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शैलक नामक पांचवाँ अध्ययन - शुक एवं थावच्चापुत्र का शास्त्रार्थ
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शुक - आपका नो-इन्द्रिय यापनीय क्या है?
थावच्चापुत्र - शुक! क्रोध, मान, माया एवं लोभ का क्षीण एवं उपशांत होना, उदित न होना, नो-इन्द्रिय यापनीय है।
(४६) से किं तं भंते! अव्वाबाहं? सुया! जं णं मम वाइयपित्तियसिंभिय सण्णिवाइया विविहा रोगायंका णो उदीरेंति से तं अव्वाबाहं। से किं तं भंते! फासुय विहारं? सुया! जं णं आरामेसु उज्जाणेसु देवउलेसु सभासु पव्वासु इत्थीपसु-पंडग-विवज्जियासु वसहीसु पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं
ओगिण्हित्ताणं विहरामि से तं फासुयविहारं। .. शब्दार्थ - वाइय - वातज-वायु से उत्पन्न होने वाले, पित्तिय - पित्तज-पित्त से उत्पन्न होने वाले, सिंभिय - श्लेष्मज-कफ से उत्पन्न होने वाले, सण्णिवाइयं - सन्निपातज-वात, पित्त एवं कफ तीनों के विकार से उत्पन्न होने वाले, उदीरेंति - उदीर्ण-उत्पन्न नहीं होते, पंडगपंडक-नपुंसक, विवजियासु - विवर्जित-रहित, वसहीसु - स्थानों में, पाडिहारियं - प्रातिहारिकपुनः समर्पणीय।
भावार्थ - शुक - भगवन्! आपका अव्याबाध क्या है?
थावच्चापुत्र - शुक! वात-पित्त-कफ एवं सन्निपात जनित विविध रोगों का उदय में न आना, हमारा अव्याबाध है।
शुक - भगवन्! आपका प्रासुक विहार कैसा है? . थावच्चापुत्र - आरामों, उद्यानों, देवायतनों, सभाभवनों, पास्थानों में स्त्री, पशु एवं नपुंसकवर्जित वसतियों में, प्रातिहारिक पीठ-पाट, फलक-बाजोट, शय्या-संस्तारक तथा कल्पनीय निर्वद्य स्थान स्वीकार कर विचरणशील रहना, हमारा प्रासुक विहार है।
(४७) . सरिसवया ते भंते! किं भक्खेया अभक्खेया? सुया सरिसवया भक्खेयावि अभक्खेयावि। से केणटेणं भंते! एवं वच्चुइ-सरिसवया भक्यावि अभक्खेयावि? सुया! सरिसवया दुविहा पण्णत्ता तंजहा-मित्तसरिसवया य धण्ण सरिसवया य।
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