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शैलक नामक पांचवाँ अध्ययन संयम में शैथिल्य
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अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था - एवं खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रजं जाव पव्वइए विउले णं असणे ४ मजपाणए य मुच्छिए णो संचाएइ जाव विहरित्तए । णो खलु कप्पड़ देवाणुप्पिया! समणाणं जाव पमत्ताणं विहरित्तए । तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं कल्लं सेलगं रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढफलगसेज्जासंथारयं पच्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पंथयं अणगारं वेयावच्चकरं ठवेत्ता बहिया अब्भुज्जएणं जाव विहरित्तए । एवं संपेर्हेति २ त्ता कल्लं जेणेव सेलयरायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढफलग जाव पच्चप्पिणंति २ त्ता पंथयं अणगारं वेयावच्चकरं ठावेंति २ त्ता बहिया जाव विहरंति ।
त्याग कर,
वेयावच्चकरं - वैयावृत्यकर सेवा करने वाला, अब्भुज्जएणं
शब्दार्थ-चइता अभ्युद्यत्त-उद्यम सहित ।
भावार्थ तब पंथक के अतिरिक्त पांच सौ अनगार किसी दिन एक स्थान पर एकत्र हुए, यावत् अर्द्धरात्रि के समय धर्म जागरणा करते हुए, उनके मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि शैलक राजर्षि राज्य का त्याग कर यावत् प्रव्रजित हुए। अब वे विपुल अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य एवं आसवपान में मूच्छित हैं, विहार नहीं कर रहे हैं। इसलिए देवानुप्रियो ! श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रमाद युक्त होकर रहना कल्पनीय नहीं है। अतः यही श्रेयस्कर है कि हम कल प्रातःकाल शैलक राजर्षि की अनुमति लेकर प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या - संस्तारक वापस लौटाकर शैलक अनगार के वैयावृत्यकारी सेवा करने वाले पन्थक अनगार को उनकी सेवार्थ यहाँ छोड़
अर्हत् प्ररूपित साधु मर्यादा के अनुरूप विहार हेतु उद्यत होकर विचरण करें।
• ऐसा विचार कर वे शैलक राजर्षि के पास आए और उनकी अनुमति लेकर पीठ, फलक, शय्या एवं संस्तारक वापस लौटाए। पंथक को सेवार्थी के रूप में वहाँ छोड़ कर वे बाहर यावत् जनपद विहार हेतु निकल पड़े।
विवेचन - यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जब शैलक राजर्षि के पांच सौ शिष्यों ने यह जान लिया कि शैलक शिथिलाचारी हो गए हैं तथा यह निश्चय भी कर लिया कि उन्हें शैलक को छोड़ कर विहार कर देना चाहिए, तब फिर वे एक शिथिलाचारी साधु की अनुमति लेते हैं और शिथिलाचारी के वैयावृत्य हेतु पंथक को वहाँ रोकते हैं। ऐसा विसंगतकार्य वे क्यों करते हैं? जो संयम पालन में दत्तचित्त न हो उसके साथ फिर कैसा संबंध ? क्योंकि मुनियों के
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