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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
जया णं अहं पुत्ता! एए पंच सालिअक्खए जाएजा तया णं तुमं मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिजाएसि-त्तिकटु तं हत्थंसि दलयामि। से णूणं पुत्ता! अट्टे समढे? हंता अत्थि। तं णं (तुमं) पुत्ता! मम ते सालिअक्खए पडिणिजाएहि।
भावार्थ - पुत्रियो! अब से पांच वर्ष पूर्व इन्हीं मित्रादि स्वजन बंधु बांधवों तथा हम चारों के पीहर के लोगों के समक्ष तुम्हारे हाथ में पांच-पांच शालि धान के दाने दिए थे और कहा था जब ये पांच शालि धान के दाने माँगू तब मुझे इन्हें वापस लौटाओगी। ___ उज्झिका को संबोधित कर कहा - 'क्या यह यथार्थ है?' उज्झिका बोली-'तात्! यही बात थी।' इस पर धन्य सार्थवाह बोला- पुत्री! वे शालि धान के दाने वापस लौटाओ।' ..
(१८) . . तए णं सा उज्झिया एयमढे धण्णस्स पडिसुणेइ २ ता जेणेव कोट्ठागारं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पल्लाओ. पंच सालिअक्खए गेण्हइ २ त्ता जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-एए णं ते पंच सालिअक्खए-त्तिकट्ट धण्णस्स हत्थंसि ते पंच सालिअक्खए दलयइ। तए णं धण्णे उज्झियं सवहसावियं करेइ, करेत्ता एवं वयासी-कि णं पुत्ता! एए चेव पंच सालिअक्खए उदाहु अण्णे? .
शब्दार्थ - सवहसावियं - शपथ शापितं-सौगंध दिलाकर।
भावार्थ - उज्झिका ने सार्थवाह का यह कथन स्वीकार किया, वह कोष्ठागार में आई। वहाँ उसके अन्तवर्ती एक कोठार से उसने पांच शालिधान के दाने लिए, लेकर वह धन्य सार्थवाह के निकट उपस्थित हुई और बोली- ये वे पांच शालिधान के दाने हैं, यों कह कर उसने वे दाने सार्थवाह के हाथ में रख दिये। तब धन्य सार्थवाह ने उज्झिका को सौगंध दिलाकर कहा-'बेटी! क्या ये वही दाने हैं, जो मैंने दिए थे या अन्य हैं?'
(१६) तए णं उज्झिया धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-एवं खलु तुम्भे ताओ इओ अईए पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्तणाइ० चउण्ह य जाव विहराहि। तए णं अहं
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