Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, अहं णं देवाणुप्पिया! संसार भउव्विगे जाव पव्वयामि, तुब्भे णं देवाणुप्पिया! किं करेह किं ववसह किं वा भे हियइच्छिए सामत्थे? तए णं ते पंथगपामोक्खा सेलगं रायं एवं वयासी-जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! संसार० जाव पव्वयह अम्हाणं देवाणुप्पिया! किमण्णे आहारे वा आलंबे वा अम्हे वि य णं देवाणुप्पिया! संसार भउव्विग्गा जाव पव्वयामो जहा णं देवाणुप्पिया! अम्हं बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य जाव तहा णं पव्वइयाण वि समाणाणं बहसु जाव चक्खुभूए।
भावार्थ - फिर राजा शैलक शैलकपुर नगर में अनुप्रविष्ट हुआ। बाहर की उपस्थानशालासभा भवन में आया तथा सिंहासनासीन हुआ। उसने पंथक आदि अपने पांच सौ मंत्रियों को बुलाया और कहा - देवानुप्रियो! मैंने मुनि शुक.के पास धर्म-श्रवण किया है। वह मुझे इच्छित, प्रतीच्छित और अभिरुचित है। मैं संसार के भय से उद्विग्न होता हुआ यावत् शुक अनगार के पास दीक्षा लेना चाहता हूँ। देवानुप्रियो! इस संबंध में आप क्या करणीय मानते हैं? आपकी क्या मनःस्थिति है? क्या हार्दिक इच्छा है? ... तब पंथक आदि मंत्रियों ने राजा शैलक से कहा-देवानुप्रिय! यदि आप संसार-जन्म-मरण रूप आवागमन के भय से उद्विग्न होकर यावत् दीक्षा लेना चाहते हैं तो फिर हमारे लिए क्या आलंबन-सहारा रहेगा। हम भी संसार के भय से उद्विग्न होकर यावत् आपके साथ प्रव्रज्या स्वीकार करेंगे।
देवानुप्रिय! जिस तरह लौकिक जीवन में आप हमारे लिए अनेक कार्यों में, कारणों में चक्षुभूत-मार्गदर्शक रहे, उसी प्रकार श्रमणों के रूप में प्रव्रजित होने पर भी हमारे बहुत से कार्यों में यावत् चक्षुभूत रहें।
(५५) तए णं से सेलगे पंथगपामोक्खे पंच मंतिसए एवं वयासी-जइ णं देवाणुप्पिया! तुम्भे संसार० जाव पव्वयह तं गच्छह णं देवाणुप्पिया। सएसु २ कुडंबेसु जेडेपुत्ते कुटुंबमझे ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउन्भवह त्ति। तेवि तहेव पाउन्भवंति।
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