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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
कालमासा य अत्थमासा य धण्णमासा य। तत्थ णं जे ते कालमासा ते णं दुवालसविहा पण्णत्ता तंजहा-सावणे जाव आसाढे, ते णं अभक्खेया। अत्थमासा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा हिरण्णमासा य सुवण्णमासा य, ते णं अभक्खेया। धण्णमासा तहेव।
शब्दार्थ - कालमासा - समय सूचक महीने, अत्थमासा - अर्थ-रजत, स्वर्ण के तौल सूचक मासे, धण्णमासा - धान्य सूचक माष-उडद, दुवालसविहा - द्वादशविध-बारह प्रकार के। ___ भावार्थ - इसी प्रकार मास के संबंध में जानना चाहिए। वहाँ विशेषता यह है - मास तीन प्रकार के कहे गये हैं - काल मास, अर्थ मास तथा धान्यमाष। इनमें जो कालमास हैं, वे बारह प्रकार के परिज्ञापित हुए हैं, जैसे - श्रावण यावत् आषाढ। श्रमण निर्ग्रन्थों की दृष्टि में ये अभक्ष्य हैं। अर्थ मास दो प्रकार के कहे गए हैं। जैसे चांदी के मासे, सोने के मासे। ये भी अभक्ष्य हैं। धान्य भाष उड़द के संबंध में सरिसवय-सर्षप की तरह सभी बातें जाननी चाहिए। ..
(५०) एगे भवं दुवे भवं अणेगे भवं अक्खए भवं अव्वए भवं अवट्टिए भवं अणेगभूयभावभविएवि भवं? सुया! एगे वि अहं दुवेवि अहं जाव अणेगभूयभावभविएवि अहं। से केणटेणं भंते! एगे वि अहं जाव सुया। दव्वट्टयाए एगे अहं णाणदंसणट्टयाए दुवेवि अहं पएसट्टयाए अक्खएवि अहं अव्वएहि अहं अवट्टिएवि अहं उवओगट्ठयाए अणेगभूयभावभविएवि अहं।
शब्दार्थ - भवं - आप, अणेगभूयभावभविए - भूत, भाव एवं भावी के रूप में अनेक, दव्वट्ठयाए - द्रव्य की अपेक्षा से, णाणदंसणट्ठयाए - ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से, पएसट्टयाए - प्रदेशों की अपेक्षा से, अक्खए - अक्षय, अव्वए - अव्वय, अवट्ठिए - अवस्थित, उवओगट्ठयाए - उपयोग की दृष्टि से।
भावार्थ - शुक - भगवन्! क्या आप एक हैं, दो हैं, अनेक हैं, अक्षय हैं, अव्यय है, अवस्थित हैं तथा भूत-वर्तमान-भविष्य रूप अनेक हैं?
थावच्चापुत्र - शुक! मैं एक हूँ, दो हूँ यावत् भूत-वर्तमान भविष्य रूप अनेक हूँ। ___ पुनश्च, द्रव्य की दृष्टि से मैं एक हूँ। ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से दो भी हूँ यावत् भूतवर्तमान-भविष्यरूप अनेक हूँ।
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