Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२२४
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
सा भद्दा धंण्णं सत्थवाहं एजमाणं पासइ-पासित्ता णो आढाइ णो परियाणाइ अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी तुसिणीया परम्मुही संचिट्ठइ। तए णं से धण्णे सत्थवाहे भदं भारियं एवं वयासी-किं णं तुब्भं देवाणुप्पिए! ण तुट्ठी वा ण हरिसे वा णाणंदे वा जं मए सएणं अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पाणं विमोइए।
शब्दार्थ - परम्मुही - पराङ्मुखी-मुख फेरकर, तुट्ठी - तुष्टि-परितोष।
भावार्थ - धन्य सार्थवाह अपनी पत्नी भद्रा के यहाँ आया। भद्रा ने जब सार्थवाह को आता हुआ देखा तो उसका कुछ भी आदर स्वागत सम्मान नहीं किया। वह चुपचाप मुंह फेर कर स्थिर रही। धन्य सार्थवाह ने तब अपनी पत्नी से कहा-'देवानुप्रिये! द्रव्यादि भेंट करवा कर मैं राजदंड से मुक्त हुआ हूँ। यह देखते हुए भी तुम्हें न परितोष है, न हर्ष है, न आनंद ही है।
(४६) तए णं सा भद्दा धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-कहं णं देवाणुप्पिया! मम तुट्ठी वा जाव आणंदे वा भविस्सइ? जेणं तुम मम पुत्तघायगस्स जाव पच्चामित्तस्स ताओ विपुलाओ असणाओ ४ संविभागं करेसि।
भावार्थ - भद्रा ने अपने पति धन्य सार्थवाह से कहा-'देवानुप्रिय! तुम मेरे पुत्र घाती नितांत वैरी विजय चोर को अपने खान-पान की सामग्री में से हिस्सा देते रहे, तब भला मुझे परितोष और आनंद कैसे हो?'
(४७) तए णं से धण्णे भदं एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिए! धम्मोत्ति वा तवोत्ति वा कयपडिकइयाइ वा लोगजत्ताइ वा णायएइ वा घाडिएइ वा सहाएइ वा सुहित्ति वा ताओ विपुलाओ असणाओ ४ संविभागे कए णण्णत्थ सरीर चिंताए। तए णं सा भद्दा धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणी हट्ठा जाव आसणाओ अब्भुट्टेइ २ त्ता कंठाकंठिं अवयासेइ खेम कुसलं पुच्छइ, पुच्छित्ता ण्हाया जाव पायच्छित्ता विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org