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शैलक नामक पांचवाँ अध्ययन - वासुदेव कृष्ण की भक्ति
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नगर का मुख्य द्वार, प्रासादद्वार, नागरिकों के भवन, देवायतन-इन स्थानों में लक्ष परिमित प्रतिध्वनि समन्वित-लाखों प्रतिध्वनियों से युक्त, भीतरी और बाहरी भागों सहित संपूर्ण स्थानों को गुञ्जायमान करता हुआ, उसका शब्द सब ओर फैल गया।
(११) तए णं बारवईए णयरीए णवजोयण-वित्थिण्णाए बारस-जोयणायामाए समुद्दविजय-पामोक्खा दस दसारा जाव गणिया-सहस्साई कोमुईयाए भेरिए सदं सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठा जाव ण्हाया आविद्ध-वग्घारिय-मल्ल-दाम-कलावा अहयवत्थ चंदणोक्किण-गायसरीरा अप्पेगइया हयगया एवं गयगया रह-सीयासंदमाणीगया अप्पेगइया पाय विहार चारेणं पुरिसवग्गुरा-परिक्खित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियं पाउभवित्था।
शब्दार्थ - आविद्ध - धारण किये,.वग्यास्यि - लटकाए, अहय - अक्षत-नवीन, उक्किण्ण - उत्क्किलन-लेप किया हुआ, गयगया - गजगत-हाथी पर आरूढ़, सीया - शिविका-पालकी, संदमाणी - स्यंदमाणी-रथ के आकार की पालकी, वग्गुरा - वृन्द-समूह, परिक्खित्ता - परिक्षिप्त-घिरे हुए, पाउन्भवित्था - उपस्थित हुए।
भावार्थ - नव योजन विस्तीर्ण द्वादश योजन आयाम युक्त द्वारका नगरी के दस दशाह यावत् सहस्रों गणिकाएं आदि सभी कौमुदी भेरी के शब्द को सुन कर बड़े हर्षित और परितुष्ट हुए, यावत् उन्होंने स्नान किया, अनेकानेक लम्बी-लम्बी मालाएं धारण की, नवीन वस्त्र धारण किये। देह के अंग-प्रत्यंगों पर चंदन का लेप किया। कई हाथियों, कई घोड़ों, रथों, शिविकाओं तथा स्यंदमानिकाओं पर आरूढ होकर एवं कई मनुष्यों के समूह से संपरिवृत होते हुए, पैदल चलकर वासुदेव कृष्ण के समीप उपस्थित हुए।
(१२) तए णं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजय-पामोक्खे दस दसारे जाव अंतियं पाउन्भवमाणे पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ट जाव कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउरंगिणिं सेणं सजेह विजयं च गंधहत्थिं उवट्ठवेह। तेवि तहत्ति उवट्ठवेंति जाव पजुवासंति।
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