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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
विवेचन श्री कृष्ण वासुदेव भगवान् अरिष्टनेमि के परम भक्त और गृहस्थावस्था के आत्मीय जन भी थे। थावच्चा गाथापत्नी को अपनी ओर से दीक्षा सत्कार करने का वचन दे चुके थे। फिर भी वे थावच्चापुत्र को दीक्षा न लेकर अपने संरक्षण में लेने को कहते हैं। इसका तात्पर्य थावच्चापुत्र की मानसिक स्थिति को परखना ही है। वे जानना चाहते थे कि थावच्चापुत्र के अन्तस् में वास्तविक वैराग्य है अथवा नहीं? किसी गार्हस्थिक उद्वेग के कारण ही तो वह दीक्षा लेने का मनोरथ नहीं कर रहे हैं? मुनिदीक्षा जीवन के अन्तिम क्षण तक उग्र साधना है. और सच्चे तथा परिपक्व वैराग्य से ही उसमें सफलता प्राप्त होती है । थावच्चापुत्र परख में खरा सिद्ध हुआ । उसके एक ही वाक्य ने कृष्ण जी को निरुत्तर कर दिया। उन्हें पूर्ण सन्तोष हो गया ।
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तए णं से कहे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे कोडुंबियपुरिसे . सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी- गच्छह णं देवाणुप्पिया! बारवईए णयरीए सिंघाडग - तिग जाव पहेसु हत्थिखंधवरगया महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा २ उग्घोसणं करेह एवं खलु देवाणुप्पिया ! थावच्चापुत्ते संसार भउव्विग्गे - भीए जम्मण-जरमरणाणं इच्छइ अरहओ अरिट्ठणेमिस्स अंतिए मुंडे भवित्ता पव्वइत्तए, तं जो खलु देवाणुप्पिया राया वा जुवराया वा देवी वा कुमारे वा ईसरे वा तलवरे . वा कोडुंबिय - माडंबिय - इब्भ - सेट्ठि - सेणावइ - सत्थवाहे वा थावच्चापुत्तं पव्वयंतमणुपव्वयइ तस्स णं कण्हे वासुदेवे अणुजाणड़ पच्छाउरस्स वि य से मित्त-णाइ-णियग-संबंधि - परिजणस्स जोग खेमं वट्टमाणं पडिवहइ-त्तिकट्टु घोसणं घोसेह जाव घोसंति ।
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पच्छाउरस्स
शब्दार्थ अप्राप्त वस्तुओं की प्राप्ति, खेमं पडिवहइ - वहन करता है।
भावार्थ थावच्चापुत्र द्वारा यों कहे जाने पर कृष्ण वासुदेव ने सेवकों को बुलाया और कहा- देवानुप्रियो ! जाओ, द्वारका नगरी के तिराहे, चौराहे, चौक यावत् सभी बड़े-छोटे मार्गों में हाथी के स्कन्ध पर आरूढ़ होकर उच्च स्वर से पुनः पुनः यह उद्घोषणा करो कि देवानुप्रिय
पीछे रहे दु:खित संबद्धजनों के, जोग क्षेम-प्राप्त की रक्षा, वट्टमाणं
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योग- इच्छित या
वर्तमान- उत्तरदायित्व,
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