Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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२८०
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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किन्ही-किन्ही प्रतियों में श्रावक के व्रतों में पांच अणुव्रत के स्थान पर चार अणुव्रत बता दिये गये हैं। परन्तु अन्यत्र आगमों में आये हुए पाठों को देखते हुए श्रावकों के बारह व्रत मानना ही उचित प्रतीत होता है।
सुदर्शन को प्रतिबोध
तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी - तुब्भे णं सुदंसणा! किंमूलए धम्मे पण्णत्ते? अम्हाणं देवाणुप्पिया! सोयमूले धम्मे पण्णत्ते जाव सग्गं गच्छंति।
भावार्थ - थावच्चापुत्र ने सुदर्शन से कहा - सुदर्शन! तुम्हारे धर्म का मूल आधार क्या बतलाया गया है?
सुदर्शन बोला - देवानुप्रिय! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है, यावत् द्रव्य शौच और . भाव शौच द्वारा पवित्र होता हुआ साधक स्वर्ग प्राप्त करता है।
(३७)
तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी - सुदंसणा! से जहाणामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण चेव धोवेजा तए. णं सुदंसणा! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेण चेव पक्खालिजमाणस्स अस्थि काइ सोही? णो इणढे समढे।
शब्दार्थ - रुहिरकयं - रुधिरकृत-रुधिर से लिप्त, धोवेजा - धोएँ, सोही - शुद्धि।
भावार्थ - थावच्चापुत्र ने सुदर्शन से कहा - सुदर्शन! जैसे कोई पुरुष रक्त से लिप्त वस्त्र को यदि रक्त से ही धोए तो रुधिर से प्रक्षालित होने पर क्या उसकी शुद्धि होगी? सुदर्शन ने कहा-ऐसा हो नहीं सकता। . .
(३८) एवामेव सुदंसणा! तुब्भंपि पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं णत्थि सोही जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिजमाणस्स णत्थि
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