________________
२८२
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
यावत् उसने धर्मोपदेश सुना, वह श्रमणोपासक बना, यावत् जीव-अजीव आदि तत्त्वों का बोध प्राप्त किया, यावत् महाव्रती साधुओं को आहारादि का दान देता हुआ रहने लगा।
शुक का पुनः आगमन
(४०) तए णं तस्स सुयस्स परिव्वायगस्स इमीसे कहाए लद्धट्ठस्स समाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पजित्था - एवं खलु सुदंसणेणं सोयधम्मं विप्पजहाय विणयमूले धम्मे पडिवण्णे। तं सेयं खलु मम सुदंसणस्स दिहिँ वामेत्तए पुणरवि सोयमूलए धम्मे आघवित्तए त्तिकटु एवं संपेहेइ २ त्ता परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं जेणेव सोगंधिया णयरी जेणेव परिव्वायगा वसहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता परिव्वायगावसहसिं भंडणिक्खेवं करेइ, करेत्ता धाउरत्तवत्थ परिहए पविरलपरिव्वायगेणं सद्धिं संपरिवुडे परिव्वायगावसहाओ पडिणिक्खमइ,पडिणिक्खमित्ता सोगंधियाए णयरीए मज्झमझेणं जेणेव सुदंसणस्स गिहे जेणेव सुदंसणे तेणेव उवागच्छइ।
शब्दार्थ - विप्पजहाय - त्याग कर, वामेत्तए - छुड़ा दूँ, परिवर्तित कर दूं।
भावार्थ - जब शुक परिव्राजक को इस वृत्तांत का पता चला तो उसके मन में ऐसा भाव उपजा-विचार आया कि-सुदर्शन ने शौचमूलक धर्म का परित्याग कर, विनयमूलक धर्म स्वीकार कर लिया है। मेरे लिए यही श्रेयस्कर है, मैं सुदर्शन की दृष्टि बदल दूं। पुनः उसे शौचमूलक धर्म समझाऊँ। यों चिंतन कर एक हजार परिव्राजकों के साथ वह सौगंधिका नगरी में आया। परिव्राजकों के मठ में उसने अपने उपकरण रखे। काषाय (गेरु से रंगे) वस्त्र धारण किए हुए, थोड़े परिव्राजकों से घिरा हुआ, वह मठ से निकला। सौगंधिका नगरी के बीचोंबीच होता हुआ, सुदर्शन के घर आया।
(४१) तए णं से सुदंसणे तं सुयं एजमाणं पासइ, पासित्ता णो अब्भुट्टेइ णो पच्चुग्गच्छइ णो आढाइ णो परियाणाइ णो वंदइ तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं से
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org