Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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शैलक नामक पांचवाँ अध्ययन - वासुदेव कृष्ण की भक्ति
२६३
णीलुप्पलगवल-गुलिय-अयसि-कुसुमप्पगासे अट्ठारसहिं समण-साहस्सीहिं चत्तालीसाए अजिया-साहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे जाव जेणेव बारवई णयरी जेणेव रेवयग-पव्वए जेणेव णंदणवणे उजाणे जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। परिसा णिग्गया धम्मो कहिओ।
शब्दार्थ - दसधणुस्सेहे - दंस धनुष परिमाण ऊँचे, अजिया - आर्यिका-साध्वी।
भावार्थ - उस काल, उस समय अर्हत् अरिष्टनेमि-(एतद् विषयक विस्तृत वर्णन औपपातिक सूत्र आदि से ग्राह्य है) सुखपूर्वक, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए, रैवतक पर्वत के सन्निकट अवस्थित द्वारका नगरी में, नंदनवन उद्यान के अन्तर्वर्ती सुरप्रिय नामक यक्ष के आयतन में, उत्तम अशोक वृक्ष के समीप आए। उनका शरीर दस धनुष प्रमाण ऊँचा था। वे नीलकमल, महिष श्रृंग के भीतर के भाग समान नीलगुलिका तथा अलसी पुष्प के सदृश श्याम कांतियुक्त थे। अठारह सहस्र साधुओं तथा चालीस सहस्र साध्वियों से संपरिवृत थे। वहाँ यथा प्रतिरूपनिरवद्य, मर्यादानुरूप शुद्ध अवग्रह-आवास स्थान गृहीत कर, संयम तप से आत्मानुभावित होते हुए विराजित हुए। उनके दर्शन, वंदन और उपदेश-श्रवण हेतु जनसमूह आया। उन्होंने धर्मदेशना दी। सुनकर लोग चले गए।
वासुदेव कृष्ण की भक्ति
(८)
तए णं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लट्टे समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सभाए सुहम्माए मेघोघरसियं गंभीर महुरसई कोमुइयं भेरिं तालेह। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठ जाव मत्थए अंजलिं कटु एवं सामी! तह त्ति जाव पडिसुणेति २ त्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियाओ पडिणिक्खमंति २ त्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव कोमुइया भेरी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं मेघोघ-रसियं गंभीरं महुरसई कोमुइयं भेरिं तालेति।
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