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शैलक नामक पांचवाँ अध्ययन - थावच्चा-पुत्र
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थावच्चा-पुत्र
तस्स णं बारवईए णयरी थावच्चा णामं गाहावइणी परिवसइ अड्डा जाव अपरिभूया। तीसे णं थावच्चाए गाहावइणीए पुत्ते थावच्चापुत्ते णामं सत्थवाहदारए होत्था सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे। तए णं सा थावच्चा गाहावइणी तं दारयं साइरेगअट्ठवासजाययं जाणित्ता सोहणंसि तिहिकरणणक्खत्तमुहुत्तंसि कलायरियस्स उवणेइ जाव भोगसमत्थं जाणित्ता बत्तीसाए इब्भकुलबालियाणं एगदिवसेणं पाणिं गेण्हावेइ बत्तीसओ दाओ जाव बत्तीसाए इब्भकुलबालियाहिं सद्धिं विपुले सद्दफरिसरसरूववण्णगंधे जाव भुंजमाणे विहरइ।
शब्दार्थ - गाहावइणी - गाथापत्नी (श्रेष्ठी पत्नी), साइरेगअट्ठवासजाययं - आठ वर्ष से कुछ अधिक आयु का, सोहणंसि - उत्तम, इब्भकुल-बालियाणं - अति धनाढ्य सार्थवाहों की कन्याओं के साथ, दाओ - दायभाग-स्त्रीधन।
- भावार्थ - उस द्वारका नगरी में स्थापत्या (थावच्चा) नामक सार्थवाह महिला निवास करती थी। वह अत्यंत समृद्धिशालिनी, यावत् अपरिभूता-सर्वसम्मानिता थी। उसका पुत्र 'थावच्चापुत्र' नाम से प्रसिद्ध था। उसके हाथ-पैर आदि समस्त अंग सुकुमार थे, यावत् वह अत्यंत रूपवान था। जब थावच्चा ने अपने पुत्र को आठ वर्ष से कुछ बड़ा हुआ देखा तो वह उसे उत्तम ग्रह, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में कलाचार्य-शिक्षक के पास ले गई, यावत् जब वह विभिन्न कला आदि की शिक्षा प्राप्त कर युवा हुआ, तब उसको भोग-समर्थ जानकर बत्तीस अति धनाढ्य सार्थवाहों की कन्याओं के साथ एक ही दिन पाणिग्रहण करवाया। उन बत्तीस नववधुओं को दायभाग (प्रीति दान) दिया, यावत् वह सार्थवाह पुत्र बत्तीस नवपरिणीता पत्नियों के साथ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, वर्ण एवं गंध विषयक विपुल भोग भोगता हुआ रहने लगा।
विवेचन - इस सूत्र में प्रयुक्त 'थावच्चा' शब्द विचारणीय है। संस्कृत में 'स्थपति' शब्द वास्तुकार, भवन निर्माता या काष्ठकलाविज्ञ, वर्धकि-बढई आदि के लिए प्रयुक्त है। 'स्थपतेर्भावः स्थापत्यम्'-इस प्रकार भाव में स्थपति से स्थापत्य शब्द बनता है। स्थापत्य का ही प्राकृत रूप थावच्च है। यहाँ एक शंका होती है। स्थापत्य भाव वाचक संज्ञा है, जबकि यहाँ प्रयुक्त 'थावच्च' का स्त्रीलिंग रूप 'थावच्चा' व्यक्तिवाचक है।
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