Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
रत्नों से खचित कंगूरों से सुशोभित थी। वह देवराज इन्द्र की राजधानी अलका के सदृश प्रतीत होती थी। उसके निवासी बड़े प्रमोद-आनंदोत्साह और क्रीडाविनोद के साथ बहुत ही सुखमय जीवन व्यतीत करते थे। वह साक्षात् देवलोक के तुल्य थी।
रैवतक पर्वत
(३) तीसे णं बारवईए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए रेवयगे णाम पव्वए होत्था तुंगे गगणतल-मणुलिहंत-सिहरे णाणाविहगुच्छ-गुम्म-लया वल्लि-परिगए हंस-मिग-मयूर-कोंच-सारस चक्कवाय-मयणसाल-कोइल-कुलोववेए अणेगतडाग-वियर-उज्झर य पवायपभारसिहरपउरे अच्छरगण-देव-संघ-चारणविजाहर-मिहुण-संविचिण्णे णिच्वच्छणए दसार-वरवीर-पुरिस-तेलोक्कबलवगाणं सोमे सुभगे पियदसणे सुरूवे पासाईए ४।
शब्दार्थ - तुंगे - ऊँचा, गगणतलमणुलिहंत-सिहरे - आकाश को छूने वाली चोटियों से युक्त, मयणसाल - मैना, कोइल - कोकिला-कोयल, उज्झर - झरने, पवाय - प्रपात, पभार - प्राग्भार-कुछ झुके हुए पर्वतीय भाग, अच्छरगण - अप्सराओं का समूह, संविचिण्णेसंविचीर्ण-आसेवित-सेवन किए जाने वाले, णिच्चच्छणए - सदैव उत्सव युक्त, दसारवरवीरपुरिस - समुद्रविजय आदि दस उत्कृष्ट वीर पुरुष।
भावार्थ - उस द्वारका नगरी के बाहर, उत्तर-पूर्व दिशा भाग में, रैवतक (गिरनार) नामक पर्वत था। वह बहुत ऊँचा था। उसकी चोटियाँ आकाश को छूती थीं। वह नाना प्रकार के वृक्षसमूहों, मण्डपों के रूप में परिणत लता समूहों आदि से व्याप्त था। हंस, मृग, मयूर, क्रौञ्च, सारस, चक्रवाक, मैना, कोकिला-इनके समूह से समायुक्त था। अनेक सरोवर, कंदरा, निर्झर, प्रपात तथा प्राग्भार युक्त था। अप्सराओं के समूह, देवों के समुदाय, चारणों एवं विद्याधरयुगलों से व्याप्त था। समुद्रविजय आदि त्रैलोक्य में उत्तम बलशाली दशाह-७ दश योद्धाओं द्वारा नित्य प्रति समायोजित उत्सवों का यह स्थान था। यह सौम्य, सुभग, देखने में आनंदप्रद, उत्तम आकार युक्त, प्रसन्नताप्रद, दर्शनीय तथा अत्यंत सुंदर था।
० दशार्ह - समुद्रविजय, अक्षोभ, स्तिमित, सागर, हिमवान, अचल, धरण, पूरण, अभिचंद, वसुदेव।
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