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अंडक नामक तीसरा अध्ययन
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उद्यान में आमोद-प्रमोद
शब्दार्थ हत्थसंगेल्लीए - एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले हुए, आलिघरएसु - घरों के आकार में परिणत श्रेणीबद्ध वृक्ष कुञ्जों में, कयलीघरेसु - केले के वृक्षों के झुरमुटों में, अच्छणघरएसु लोगों के बैठने हेतु बने हुए आसन युक्त परिसरों में, पेच्छणघरएसु प्रेक्षणगृह - नाटकादि के मंचन हेतु निर्मित रंगशालाओं में, पाहणघर प्रसाधन-देह सज्जा आदि करने हेतु बने हुए स्थानों में, मोहणघरएसु - विलास हेतु विनिर्मितकक्षों में, सालघरएसुशाल वृक्षों के समूह में, जालघरएसु - जालगृह - जालीदार झरोखों से युक्त स्थानों में ।
भावार्थ वे सार्थवाह पुत्र मध्याह्न के समय शामियाने से बाहर निकले। परस्पर हाथों में हाथ मिलाए हुए उद्यान के बहुत से भागों में वृक्षों-लताओं के कुंजों में लोगों के बैठने हेतु बने परिसर, प्रेक्षणगृह, प्रसाधनगृह, विलासगृह आदि में भ्रमण करते हुए उद्यान की शोभा का आनंद लेने लगे।
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(१४)
तए णं ते सत्थवाहदारगा जेणेव से मालुयाकच्छए तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तए णं सा वणमऊरी ते सत्थवाहदारए एज्जमाणे पासइ, पासित्ता भीया तत्था० महया-महया सद्देणं केकारवं विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी मालुयाकच्छाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता एगंसि रुक्खडालयंसि ठिच्चा ते सत्थवाहदारए मालुयाकच्छयं च अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी २ चिट्ठा ।
शब्दार्थ - केकारवं – मयूर - ध्वनि, रुक्खडालयंसि - वृक्ष की शाखा पर, ठिच्चा - स्थित होर, अणिमिसाए दिट्ठीए - अनिमिष - अपलक दृष्टि से, पेहमाणी - प्रेक्षमाणा -देखती हुई । भावार्थ " सार्थवाह पुत्र घूमते-घूमते वहाँ स्थित मालुकाकच्छ की ओर गए । वन मयूरी ने सार्थवाह पुत्रों को आते हुए देखा। वह भयभीत एवं संत्रस्त हो गई। जोर-जोर से शब्द करती हुई, वह मालुकाकच्छ से निकल कर एक वृक्ष की शाखा पर बैठ गई एवं अपलक दृष्टि से सार्थवाह पुत्रों एवं मालुकाकच्छ को देखती रही ।
(१५)
तए णं ते सत्थवाहदारगा अण्णमण्णं सद्दावेंति २ त्ता एवं वयासी जहा णं देवाप्पिया! एसा वणमऊरी अम्हे एजमाणे पासित्ता भीया तत्था तसिया उव्विग्गा
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