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अंडक नामक तीसरा अध्ययन - श्रद्धाशीलता का सत्परिणाम
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अणुवकय पराणुग्गह, परायणा जं जिणा जगप्पवरा। जियरागदोसमोहा य, णण्णहावाइणो तेण॥ ५॥
॥ तच्चं अज्झयणं संमत्तं ।। शब्दार्थ - भावसच्चेसु - सत्य भावयुक्त-तथ्यमूलक, मइमं - मतिमान-बुद्धिमान, कुज्जाकुर्यात्-करना चाहिए, अणत्थहेउ - अनर्थ का कारण, णिस्संदेहत्तं - असंदिग्धता, गुणहेउं - गुण का कारण-आत्म कल्याणकारी, तओ - ततः-इस कारण, कजं - करना चाहिए, एत्थं - यहाँ, सिट्ठिसुया - श्रेष्ठिपुत्र, अंडयगाही - अण्डों को लेने और पालने वाले, कत्थइ - कहा जाता है, मइदुब्बलेण - मति की दुर्बलता के कारण, विहाय - छोड़कर, आयरियविरहओ - आचरित विरह-विपरीत आचरण, णेयगहणत्तणेणं - भाव रूप में ग्रहण करना चाहिए, णाणावरणोदएणं - ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से, हेऊदाहरणासंभवे - हेतु और उदाहरण की असंभाव्यता पूर्वक, सइ - भलीभाँति, सुट्ट - सुष्ठु-समुचित रूप में, बुज्झिजा - जानना चाहिए, सव्वण्णुमय - सर्वज्ञ का अभिमत-उपदेश, अवितहं - अवितथ-सत्य, तहावि - तथापि-उस प्रकार से, अणुवकय पराणुग्गह परायणा - अनुकंपा पूर्वक दूसरों पर अनुग्रह करने वाले, जगप्पवरा - जगत् प्रवर-लोक में सर्वश्रेष्ठ, जियरागदोसमोहा - राग-द्वेष-मोहविजेता, णण्णहावाइणो - अन्यथा-सत्यविपरीत प्ररूपणा नहीं करने वाले। ____ भावार्थ - बुद्धिमान् पुरुष को चाहिए कि वह जिनेश्वर देव द्वारा प्रतिपादित सर्वथा तथ्यमूलक भावों में संदेह न करे। उनमें संदेह करना अनर्थ का हेतु है॥ १॥
उनमें निःसंदेहता-असंदिग्धता गुण का हेतु है। इसलिए ऐसा ही करना चाहिए। यहाँ अण्डग्राही दो श्रेष्ठी पुत्रों का उदाहरण इसी भाव का द्योतक है॥ २॥
मतिदुर्बलता के कारण संदेह सहित होने से ज्ञानी आचार्यों का संयोग न मिलने से, ज्ञेय विषय की अति गहनता से और ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होने वाले जीव के विपरीत भाव से तुलनीय है।॥ ३॥
हेतु और उदाहरण द्वारा इस तथ्य को भलीभाँति जानना चाहिए, आत्मसात् करना चाहिए। बुद्धिमान् पुरुष को यह विचार करना चाहिए कि सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित तत्त्व सर्वथा सत्य है॥४॥
जिनेश्वरदेव अनुकंपा पूर्वक औरों पर-समस्त लोगों पर अनुग्रह करने वाले हैं। वे राग-द्वेष एवं मोह को जीत चुके हैं, इसलिए वे अन्यथा भाषीं नहीं होते॥ ५॥
॥ तृतीय अध्ययन समाप्त॥
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