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अंडक नामक तीसरा अध्ययन - उद्यान में आमोद-प्रमोद २३५ रखकर वहन की जाने वाली पालकी में बैठकर चलती थी। सहस्रों गणिकाओं का आधिपत्यनेतृत्व करती थी, उनमें अग्रगण्या थी। इस प्रकार समृद्धिमय, सुखमय जीवन व्यतीत करती थी।
उद्यान में आमोद-प्रमोद
तए णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अण्णया कयाइं पुव्वावरण्हकाल समयंसि जिमिय-भुत्तुत्तरा-गयाणं समाणाणं आयंताणं चोक्खाणं परमसुइभूयाणं सुहासणवरगयाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पजित्था - तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! कल्लं जाव जलंते विपुलं असणं ४ उवक्खडावेत्ता तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं धूव-पुप्फ-गंध-वत्थं-गहाय देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुब्भवमाणाणं विहरित्तए-त्तिकट्टु अण्णमण्णस्स एयमढं पडिसुणेति २ त्ता कल्लं पाउन्भूए कोडुंबियपुरिसे सद्दावेंति २ त्ता एवं वयासी___ शब्दार्थ - पुव्वावरण्ह-कालसमयंसि - मध्याह्न काल में। '. भावार्थ - एक बार का प्रसंग है, मध्याह्न काल में भोजन, आचमन, हाथ-पैर आदि प्रक्षालन कर वे दोनों सुखद आसनों पर बैठे। उन्होंने परस्पर इस प्रकार बातचीत की। अच्छा हो, कल प्रातः आकाश में सूर्य के देदीप्यमान होने पर, हम लोग विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, धूप, वस्त्र आदि लेकर देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग उद्यान में जाएँ। वहाँ की शोभा का अनुभव करते हुए विचरण करें। दोनों को ही यह रुचिकर प्रतीत हुआ। उन्होंने दूसरे दिन सूर्योदय होने पर अपने सेवकों को बुलाया और कहा।
गच्छह णं देवाणुप्पिया! विपुलं असणं ४ उवक्खडेह २ त्ता तं विपुलं असणं ४ धूवपुप्फ गहाय जेणेव सुभूमिभागे उजाणे जेणेव णंदापुक्खरिणी तेणामेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता गंदाए पोक्खरिणीए अदूरसामंते थूणामंडवं आहणह
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