Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अंडक नामक तीसरा अध्ययन - यावज्जीवन साहचर्य की प्रतिज्ञा
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परस्पर, अणुरत्तया - अनुराग युक्त, अणुव्वयया - अनुव्रजक-अनुगमन करने वाले, छंदाणुवत्तया- छंदानुवर्तक-अभिप्राय का अनुसरण करने वाले, हिययइच्छियकारया - हृदयेप्सितकारकहृदय की भावना के अनुरूप कार्य करने वाले, किच्चाई - कृत्य-करने योग्य कार्य, करणिज्जाइंआवश्यक कार्य।
भावार्थ - चंपा नगरी में दो सार्थवाह पुत्र रहते थे। उनमें से एक जिनदत्त का पुत्र था तथा दूसरा सागरदत्त का पुत्र था। वे एक ही समय में जन्मे, बड़े हुए, धूल में खेले-कूदे। एक ही समय उनका विवाह हुआ। दोनो का परस्पर अत्यधिक अनुराग था। दोनों एक दूसरे का अनुगमन करते थे। एक दूसरे की इच्छा के अनुरूप कार्य करते थे। एक दूसरे के घर के करणीय एवं आवश्यक कार्यों में साथ रहते थे। यावज्जीवन साहचर्य की प्रतिज्ञा
(५) तए णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अण्णया कयाइं एगयओ सहियाणं समुवागयाणं संण्णिसण्णाणं सण्णिविट्ठाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पजित्था-जण्णं देवाणुप्पिया! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पव्वजा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जइ तं णं अम्हेहिं एगयओ समेच्चा णित्थरियव्वं-त्तिकटु अण्णमण्णमेयारूवं संगारं पडिसुणेति २त्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था।
शब्दार्थ - सहियाणं - मिले हुए-एकत्र हुए, समुवागयाणं - समुपागत-आए हुए, सण्णिसण्णाणं - सन्निषण्ण-साथ बैठे हुए, सण्णिविट्ठाणं - सन्निविष्ट-सम्मिलित, मिहोकहासमुल्लावे - मिथः कथा समुल्लाप-परस्पर वार्तालाप, समेच्चा - समेत्य-परस्पर मिलकर, णित्थरियव्वं - निस्तरितव्य-व्यवहार करना चाहिए, संगारं - वैचारिक संकेत, पडिसुणेति - प्रतिज्ञा की, सकम्मसंपउत्ता - अपने-अपने कार्यों में संप्रवृत्त।
भावार्थ - तदनंतर, किसी समय वे सार्थवाह पुत्र परस्पर मिले। एक के घर आए, एक साथ बैठे तथा उनके बीच यों वार्तालाप हुआ-हमारे जीवन में सुख, दुःख प्रव्रज्या, विदेशगमन आदि जो भी प्रसंग बनें, उन सबका हम एक साथ ही निर्वाह करें, उनमें एक साथ रहें, यों विचार कर उन्होंने ऐसी प्रतिज्ञा कर ली। फिर वे अपने-अपने कार्यों में लग गए।
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