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संघाट नामक दूसरा अध्ययन - प्रव्रज्या एवं स्वर्गे-प्राप्ति
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धन्य सार्थवाह द्वारा उपदेश-श्रवण
(५१) तए णं तस्स धण्णस्स सत्थवाहस्स बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-"एवं खलु थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा इहमागया इह संपत्ता, तं इच्छामि णं थेरे भगवंते वंदामि णमंसामि।" एवं संपेहेइ संपेहित्ता बहाए जाव सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिए पायविहारचारेणं जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ २ त्ता वंदइ णमंसइ। तए णं थेराधण्णस्स विचित्तं धम्ममाइक्खंति। ___. भावार्थ - जब धन्य सार्थवाह ने बहुत लोगों से स्थविर भगवंत धर्मघोष के पदार्पण के सम्बन्ध में सुना तो उसके मन में भी यह भाव उत्पन्न हुआ कि ऐसे उच्च कुलोत्पन्न श्रमण भगवंत यहाँ पधारे हैं, अतः मैं भी उन्हें वंदन, नमन करने जाऊँ। .. यों निश्चय कर वह स्नानादि नित्य कर्मों से निवृत्त हुआ। शुद्ध मांगलिक वस्त्र पहने। पैदल चलता हुआ वह गुणशील चैत्य में पहुंचा, जहाँ स्थविर भगवंत विराजमान थे। उनके सम्मुख आकर उन्हें वंदन-नमस्कार किया। श्रमण भगवंत ने धन्य सार्थवाह को विविध रूप में धर्म का उपदेश दिया। . .
प्रव्रज्या एवं स्वर्ग-प्राप्ति
(५२)
- तए णं से धण्णे सत्थवाहे धम्मं सोच्चा एवं वयासी-सदहामि णं भंते! णिग्गंथे पावयणे जाव पव्वइए जाव बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता भत्तं पच्चक्खाइत्ता मासियाए संलेहणाए सर्टि भत्ताई अणसणाए छेदेइ २ त्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववण्णे। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई प० । तत्थ णं धण्णस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिई प०। से णं धण्णे देवे-ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहेवासे सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेहिइ।
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