Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
भावार्थ - भद्रा सार्थवाही द्वारा यों कहे जाने पर पन्थक ने बड़ी प्रसन्नता से भोजन की पिटारी और सुगंधित जल से परिपूर्ण घड़ा लिया। वह घर से निकला राजगृह नगर के बीचोंबीच होता हुआ कारागृह में धन्य सार्थवाह के पास आया। भोजन की पिटारी को रखा। उस पर लगे चिह्न और मुद्रा को हटाया। पात्रों को बाहर निकाला। उन्हें पानी से धोया। सार्थवाह के . हाथ धुलाए और उसे भोजन परोसा।
तए णं से विजए तक्करे धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-"तुमं णं देवाणुप्पिया! ममं एयाओ विपुलाओ असणाओ ४ संविभागं करेहि।" तए णं से धण्णे सत्थवाहे विजयं तक्करं एवं वयासी-अवियाइं अहं विजया! एवं विपुलं असणं ४ कागाणं वा सुणगाणं वा दलएजा उक्कुरुडियाए वा णं छड्डेजा णो चेव णं तव पुत्तघायगस्स पुत्तमारगस्स अरिस्स वेरियस्स पडिणीयस्स पच्चामित्तस्स एत्तो विपुलाओ असणाओ ४ संविभागं करेजामि।" . शब्दार्थ - अवियाई - भले ही, सुणगाणं - कुत्तों को, उक्कुरुडियाए - उत्कृरुटिकायाकचरे के ढेर पर, छड्डेजा - डाल दूँ, अरि - शत्रु, पडिणीयस्स - प्रत्यनीक-प्रतिकूल विधायी, पच्चाभित्तस्स - प्रत्यमित्र-हर तरह से विरोधी। ___ भावार्थ - विजय चोर ने धन्य सार्थवाह से कहा - देवानुप्रिय! तुम इस भोजन में से मुझे भी हिस्सा दो।
धन्य सार्थवाह चोर से बोला - विजय! इन विपुल अशन, पान आदि भोज्य सामग्री को, कुत्तों को भले ही डालना पड़े, कचरे के ढेर पर भले ही फेंकना पड़े, किन्तु मेरे पुत्र की हत्या करने वाले मेरे शत्रु वैरी, विरोधी, तुमको मैं कदापि हिस्सा नहीं दूंगा।
(३६) तइ णं से धण्णे सत्थवाहे तं विपुलं असणं ४ आहारेइ २ ता तं पंथयं पडिविसज्जेइ। तए णं से पंथए दासचेडे तं भोयणपिडगं गिण्हइ २ त्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए।
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