________________
१८४
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
(२०८) - पुग्विं पि य णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए मुसावाए अदिण्णादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे माणे माया लोहे पेजे दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुण्णे परपरिवाए अरइरइ मायामोसे मिच्छादसणसल्ले पच्चक्खाए। इयाणिं पिणं अहं तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि सव्वं असण-पाण-खाइम-साइमं चउव्विहंपि आहारं पच्चक्खामि जावजीवाए। जं पि य इमं सरीरं इठें कंतं पियं जाव विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतीतिकटु एयं पि य णं चरमेहिं ऊसासणीसासे हिं वोसिरामि तिकटु संलेहणाझूसणाझूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकंखमाणे विहरइ।
शब्दार्थ - रोगायंका - बीमारियों का कष्ट, वोसिरामि - व्युत्सर्जन-परित्याग करता . हूँ, पासउ - देखें।
भावार्थ - पहले भी मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन , परिग्रह, क्रोध, मान, माया लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पर परिवाद धर्म में अरति-अनुनराग-अनुराग रहितता, अधर्म में रति-अनुरक्तता, मायामृषा, एवं मिथ्यादर्शन शल्य-इन पाप स्थानों का प्रत्याख्यान-त्याग किया है। अब भी मैं भगवान् महावीर स्वामी के समीप समस्त प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का प्रत्याख्यान करता हूँ। सब प्रकार के अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार का परित्याग करता हूँ। यह शरीर जो इष्ट, कांत एवं प्रिय है, उसका रोग, परीषह एवं उपसर्ग स्पर्श न कर पाएं, यह चिंतन कर रक्षा की है, उस शरीर का भी मैं अंतिम श्वासोच्छ्वास पर्यंत संलेखना पूर्वक परित्याग करता हूँ। इस प्रकार उसने संलेखना को स्वीकार करते हुए भक्तपान-आहार पानी का परित्याग कर पादपोपगम समाधि मरण स्वीकार किया तथा मृत्यु की आकांक्षा न करता हुआ, आत्म स्वरूप में संस्थित रहा। . विवेचन - जैन दर्शन के अनुसार सांसारिक जीव कर्मों के आवरण से आच्छन्न हैं। इसी कारण जीव का शुद्ध स्वरूप जो परमानंद, परमज्ञान एवं परमशांति है, अप्रकटित रहता है। जब तक ये कार्मिक बंधन बने रहते हैं, जीव जन्म-मरण के चक्र में भटकता रहता है। भौतिक सुखों की मृग-मरीचिका में वह लिप्त रहता है, अन्तजागरण या आत्म-विकास की ओर उसकी गति
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org