Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
प्रथम अध्ययन - बहत्तर कलाओं के नाम
६७
अर्थात् राजा यदि बालक भी हो तो भी उसे मनुष्य जानकर तिरस्कार नहीं करना चाहिये, क्योंकि वह वस्तुतः मनुष्य के रूप में एक देवता है। इसी देवत्व की कल्पना को सिद्ध करने के लिए राजा में अद्भुत योग्यता वांछनीय थी। यही कारण है कि राजकुमारों के लालन-पालन एवं शिक्षा पर अत्यधिक ध्यान दिया जाता था।
___ इन सूत्रों (६६ से ६६ तक) में मेघकुमार के शैशव, लालन-पालन और शिक्षा प्राप्ति का वर्णन आया है, जिससे यह भली भांति ज्ञात होता है। सूत्र ६६ में अंतःपुर की दासियों का वर्णन बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। उस समय समृद्ध एवं विशाल राज्यों के अधिनायकों के अंतःपुर में देश-विदेश की दासियां होती थीं। राजकुमारों का लालन-पालन उनके बीच बड़े ही सुखमय, स्फूर्तिमय, सौम्य वातावरण में होता था। भिन्न-भिन्न देशों की दासियाँ अपने-अपने देशों की वेशभूषा में रहती थीं। उनकी अपनी विशेष उपयोगिता थी। दूर देश से लाईं गईं वे दासियां अपने स्वामी के प्रति बहुत ही समर्पित एवं विश्वास पात्र होती थीं। राजकुमारों को स्वदेशी दासियों के साथ-साथ उन दासियों द्वारा भी लालित-पालित होने का अवसर मिलता था। जिससे वे सहज रूप में देश-विदेश के रहन-सहन, वेश-भूषा, संस्कार इत्यादि का परिचय पा लेते थे। जो विस्तारवादी एवं महत्त्वाकांक्षी राज्य के अधिनायक के लिए निश्चय ही आवश्यक और लाभप्रद होता है। दासियों में जो बौनी, कुबड़ी, विकलांग थीं, उनकी भी उपयोगिता थी। राजकुमारों के समक्ष सुंदर, सुसज एवं सुललित दृश्य ही न रहे वरन् असुंदर, विकृत और हीनांग दृश्य भी उनकी अनुभूति में आते जाएं, जिससे उनके समक्ष प्रजाजनों का, संसार की विविधता का सजीव रूप विद्यमान रहे। इसका अभिप्राय यह है कि राजप्रासाद में ही राजकुमारों को लोक के समग्र ज्ञान की झलक खेल-खेल में ही प्राप्त होती जाय, ऐसा प्रयास रहता था।
यहाँ यह भी विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि जिन विभिन्न देशों से आनीत (लाई हुई) दासियों का उल्लेख हुआ है, उससे यह प्रकट होता है कि श्रेणिक आदि भारतीय नरेशों का वर्चस्व स्वदेश तक व्याप्त नहीं था वरन् दूर-दूर तक उनकी समृद्धि, प्रभाव, वैभव एवं गौरव को स्वीकार किया जाता था। तात्त्विक दृष्टि से प्रकृष्ट पुण्योदय के परिणाम स्वरूप प्राप्त होने वाले भोगमय जीवन का यह उदाहरण भी है। किन्तु आगे आने वालें मेघकुमार के उस प्रसंग से, जहाँ वह श्रमण-प्रव्रज्या स्वीकार करता है, उस राज्य वैभव-सम्पत्ति तथा सुख-भोग की व्यर्थता भी सिद्ध हो जाती है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org