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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
____शब्दार्थ - चिरणिज्जूढे - बहुत काल पूर्व समूह से निष्कासित, गयवर जुवाणए - उत्तम युवा हाथी, कर - सूंड, पहारेहिं - प्रहारों द्वारा, विप्परद्धे - विशेष रूप से पीड़ित, आसुरुत्ते - शीघ्र ही क्षुब्ध, रुटे - रुष्ट, कुविए - कुपित, चंडिक्किए - प्रचण्ड क्रिया युक्त, उच्छुभइ - बींध डालता है, णिज्जाएइ - निर्यातित करता है-निकालता है। ___भावार्थ - तदनंतर, हे मेघ! एक श्रेष्ठ युवा हाथी, जिसको तुमने, जब वह बहुत छोटा था, अपनी सूंड, पैर तथा मूसल के समान दाँतों से मार-मार कर अपने झुंड से निकाल दिया था, वह पानी पीने हेतु उसी सरोवर में उतरा।
उस युवा हाथी की दृष्टि तुम्हारे पर गयी। देखते ही उसे पहले का वैर याद. हो आया। वह तत्क्षण तुम्हारे पर बहुत ही क्रोधित हुआ। उसने विकराल रूप धारण किया। क्रोध की आंग से जलता हुआ वह तुम्हारे पास आया तथा तुम्हारी पीठ को उसने अपने मूसल जैसे तीखे दाँतों से तीन बार प्रहार कर बींध डाला। इस प्रकार उसने अपना वैर निकाला। बहुत प्रसन्नता से पानी पीकर, जिधर से आया था, उधर ही चला गया।
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(१७१)
तए णं तव मेहा! सरीरगंसि वेयणा पाउब्भवित्था उज्जला विउला तिउला कक्खडा जाव दुरहियासा पित्तज्जर-परिगय-सरीरे दाहवक्कंतीय यावि विहरित्था। तए णं तुमं मेहा! तं उज्जलं जाव दुरहियासं सत्तराइंदियं वेयणं वेदेसि सवीसं वाससयं परमाउं पालइत्ता अदृवसदृदुहट्टे कालमासे कालं किच्चा इहेव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे दाहिणड्ड भरहे गंगाए महाणईए दाहिणे कूले विंझगिरिपायमूले एगेणं मत्तवरगंधहत्थिणा एगाए गयवरकरेणूए कुच्छिसि गयकलभए जणिए। तए णं सा गयकलभिया णवण्हं मासाणं वसंतमासम्मि तुमं पयाया। ___ शब्दार्थ - उज्जला - तीव्र दुःख से जाज्वल्यमान, विउला - सारे शरीर में व्याप्त, तिउला - मन, वचन एवं काय व्यापी, कक्खडा - कठोर, दुरहियासा - असह्य, पित्तज्जरपरिगयसरीरे - पित्त ज्वर युक्त शरीर, दाह वक्कंतीय - दाह से व्याकुल, सत्तराइंदियंसात रात-दिन, वाससयं - सौ वर्ष, कूले - तट पर, विंझगिरिपायमूले - विन्ध्यपर्वत की तलहटी में, गयवर करेणूए - श्रेष्ठ हथिनी, कुच्छिसि - कोख में, गयकलभए - हाथी का बच्चा, गयकलभिया - युवा हथिनी।
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