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प्रथम अध्ययन - संयम-संशुद्धि : पुनः प्रव्रज्या
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णिग्गंथाणं णिसढे त्तिक? पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - इच्छामि णं भंते! इयाणिं दोच्चंपि सयमेव पव्वावियं सयमेव मुंडावियं जाव सयमेव आयारगोयरं जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खह।
शब्दार्थ - संभारिय पुव्वभवे जाइसरणे - पूर्वभववर्ती जाति स्मरण ज्ञान को याद करा दिए जाने पर, दुगुणाणीय संवेगे - दुगुने संवेग-मोक्षाभिलाषा रूप वैराग्य भाव, आणंदअंसुपुण्णमुहे- आनंद के आँसुओं से परिपूर्ण मुख, धाराहय-कदंबकं - मेघ की धारा से आहत कदंब पुष्प, समूससिय - समुच्छ्रित-उठे हुए, अजप्पभिई - आज से, अच्छीणि - दोनों नेत्र, मोत्तूणं - छोड़कर, णिसट्टे - अधीन, अर्पित।
भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा पूर्व भववर्ती जातिस्मरण ज्ञान का स्मरण कराए जाने पर मेघकुमार के मन में दुगुना वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसका मुख आनंद के आँसुओं से व्याप्त हो गया। आध्यात्मिक हर्ष के कारण उसके शरीर के रोम-रोम बादलों की जलधारा से आप्लुत कदंब के पुष्पों की तरह विकसित हो उठे। उसने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वंदन, नमन किया और निवेदन किया-भगवन्! आज से मेरी दोनों आँखों के सिवाय, यह सारा शरीर श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए समर्पित है। यों कह कर उसने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को पुनः वंदन, नमन किया और कहा-भगवन्! मैं दूसरी बार आप से प्रव्रजित एवं मुण्डित होकर अनगार धर्म ग्रहण करना चाहता हूँ। ज्ञानादि आचार, भिक्षाचर्या, पिंड विशुद्धि आदि संयमयात्रा एवं मात्रा प्रमाण युक्त आहार आदि विषयक धर्म के स्वरूप का आप आख्यान करें, उपदेश दें।
(१६१) तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पव्वावेइ जाव जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खइ-एवं देवाणुप्पिया! गंतव्वं एवं चिट्ठियव्वं एवं णिसीयव्वं एवं तुयट्टियव्वं एवं भुंजियव्वं एवं भासियव्वं उट्ठाय २ पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमियव्वं।
भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने मेघ कुमार को स्वयं पुनः प्रव्रजित किया। यात्रा-मात्रादि विषयक धर्म का उपदेश करते हुए कहा - देवानुप्रिय! चलने, खड़े होने, बैठने, करवट बदलने, खाने-पीने एवं बोलने में यतना पूर्वक वर्तन करना चाहिए। जागरूकतापूर्वक सभी प्राणियों के प्रति संयम पूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए।
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