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प्रथम अध्ययन - भिक्षु-प्रतिमाओं की आराधना
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जाना और धूप से छाया में आना नहीं कल्पता। जहाँ वह हो, वहाँ सर्दी, गर्मी आदि जो भी परीषह आएँ, उसे समभाव से सहे।
प्रथम. भिक्षु प्रतिमा का यह संक्षिप्त विवेचन है। दूसरी प्रतिमा में उन सब नियमों का पालन करना आवश्यक है, जो प्रथम प्रतिमा में स्वीकृत हैं। इतना अंतर है कि पहली भिक्षु प्रतिमा में एक दत्ति जल एवं एक दत्ति अन्न का विधान है, वहाँ दूसरी में दो दत्ति जल एवं दो दत्ति अन्न की मर्यादा है।
पहली प्रतिमा पूर्ण हो जाने पर साधक दूसरी प्रतिमा ग्रहण करता है। उसमें एक मास पहली प्रतिमा का तथा एक मास वर्तमान प्रतिमा का इस प्रकार दोनों मिलाकर दो मास होते हैं। आगे सातवीं प्रतिमा तक ऐ । ही क्रम चलता जाता है। उन सभी नियमों का उनमें पालन करना आवश्यक हैं-जो पहली प्रतिमा में विहित है। केवल अन्न एवं जल की दत्तियों की संख्या में क्रमशः वृद्धि होती जाती है।
आठवीं प्रतिमा सात अहोरात्र परिमित है। इसमें यह विधान है कि प्रतिमाधारी एक-एक दिन के अंतर से चतुर्विध आहार त्याग पूर्वक उपवास करे। वह ग्राम, नगर या राजधानी से बाहर निवास करे। शयन या विश्राम के संदर्भ में उसके लिए यह विधान है कि वह उत्तानकचित लेटे। अथवा पार्श्वशायी-एक पसवाड़े से लेटे या निषद्योपगत-पालथी लगाकर कायोत्सर्ग में बैठा रहे। इसे प्रथम सप्त-रात्रि-दिवा-भिक्षु प्रतिमा भी कहते हैं। - नवीं प्रतिमा भी सात अहोरात्र काल परिमिता है। इस प्रतिमा की आराधना के समय साधक दंडासन, लकुटासन अथवा उत्कुटुकासन में स्थित रहे।
- दसवीं प्रतिमा भी सप्त अहोरात्र परिमिता है। इसकी आराधना के समय में साधक गोदोहनिकासन, वीरासन अथवा आम्रकुब्जासन में स्थित रहे।
___ ग्यारहवीं प्रतिमा एक अहोरात्र परिमिता है। इसकी विशेषता यह है कि साधक चौविहार षष्ठभक्त-बेला करके ग्राम यावत् राजधानी के बाहर शरीर को किंचित् झुका कर, दोनों पैरों को संकुचित कर तथा दोनों भुजाओं को घुटनों तक लम्बा कर, कायोत्सर्ग करे। ... बारहवीं भिक्षु प्रतिमा एक रात्रि परिमिता है। इसमें चौविहार अष्टमभक्त-तेला कर साधु ग्राम यावत् राजधानी के बाहर शरीर को किंचित् आगे की ओर झुकाकर एक पदार्थ पर दृष्टि स्थिर कर-अनिमेष नेत्रों एवं निश्चल अंगों से समस्त इन्द्रियों को गुप्त, नियंत्रित रखता हुआ दोनों पैरों को संकुचित कर एवं दोनों भुजाओं को घुटनों तक लम्बा कर, कायोत्सर्ग में स्थित रहे।
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