________________
'प्रथम अध्ययन - गुणरत्नसंवत्सर तप की आराधना
कल्लाणेणं सिवेणं धण्णेणं मंगल्लेणं उदग्गेणं उदारएणं उत्तमेणं महाणुभावेणं तवोकम्मेणं सुक्के भुक्खे लुक्खे णिम्मंसे णिस्सोणिए किडिकिडियाभूए अट्ठिचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्था, जीवंजीवेणं गच्छइ जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता गिलायइ, भासं भासमाणे गिलायइ, भासं भासिस्सामित्ति गिलायइ ।
शब्दार्थ - पयत्तेणं - गुरु द्वारा प्रदत्त, पग्गहिएणं - बहुमान पूर्वक अंगीकृत, महाणुभावेणंमहान् प्रभाव युक्त, णिम्मंसे - मांस रहित, णिस्सोणिए - रक्त रहित, किडिकिडियाभू कड कड करते हुए, अट्ठिचम्मावणद्धे - हड्डी- चमड़ी मात्र, किसे - कृश-दुर्बल, धमणिसंतएस्पष्ट तथा दीख रही नाड़ियों से युक्त, भासं भासमाणे बोलते-बोलते, गिलायइ - ग्लान हो जाता है, बहुत कष्टानुभव करता है ।
भावार्थ उग्र, विपुल, श्रेयस्कर, कल्याणमय, शिवमय, मंगलमय, अति तीव्र, उत्तम, प्रभावपूर्ण तप द्वारा मेघकुमार का मांस, रक्त सूख गया। उसकी देह सूख कर कांटा हो गई । केवल कड़-कड़ करती हड्डियों एवं चर्म से ढका हुआ दिखने लगा । वह इतना कृश दुर्बल हो गया कि उसकी धमनियाँ दिखाई देने लगीं। उसकी शारीरिक शक्ति बिलकुल ही क्षीण हो गई । वह अपने प्राण बल से ही चलता खड़ा होता । बोलते हुए बहुत कष्ट अनुभव करता। “मैं बोलूं " - इतना सोचते ही ग्लान होने लगता ।
-
(२०२)
से जहाणामए इंगाल - सगडियाई वा जाव उन्हे दिण्णा सुक्का समाणी ससद्धं गच्छइ ससद्धं चिट्ठइ एवामेव मेहे अणगारे ससद्धं गच्छइ ससद्धं चिट्ठइ उवचिए तवेणं अवचिए मंससोणिएणं हुयासणे इव भासरासि परिच्छण्णे तवेणं तेएणं तवतेय - सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठा ।
जहाणामए
शब्दार्थ दिण्णा दी हुई, उचि
परिच्छण्णे भावार्थ
-
-
-
-
-
Jain Education International
१७६
यथानामक - जैसे कोई, इंगाल - कोयले, सगडियाइ - गाड़ी,
उपचित-बढ़े हुए, अवचिए
अपचित-घटे हुए, भासरासि
भस्म राख की राशि से ढकी हुई ।
जैसे धूप में डाल कर सुखाए गए कोयले, काठ, पत्ते, तिल तथा एरण्ड के
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org