Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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रहा हो ऐसी बात नहीं। ढाई अहोरात्रि तक धैर्य के साथ तीनों पांवों पर भूखा प्यासा खड़ा रहकर मारणांतिक स्थिति का सामना करता रहा किन्तु अनुकम्पा की उपेक्षा नहीं की। इसी दृढ़ता से उसने सम्यग्दर्शन प्राप्त करके संसार परित्त कर लिया। यह कोई साधारण मनोबल की घटना नहीं थी, इसमें दृढ़ता के उच्च शिखरों को छुआ गया था। इसी के परिणाम स्वरूप संसार परित्त कर पाया था। हाथी के मन में जगत् के सभी प्राणियों के प्रति जो तीव्र अनुकम्पाभाव था जिसमें अमुक प्राणियों के प्रति अनुकम्पा भाव और अमुक के प्रति नहीं, ऐसी भेद रेखा नहीं थी। हाथी के इन्हीं भावों को आगमकारों ने ‘सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की अनुकम्पा'. के रूप में स्पष्ट किया है।
(१८९) तए णं तस्स मेहस्स अणगारस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमलै सोच्चा णिसम्म सुभेहिं परिणामेहिं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहि लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सण्णिपुव्वे जाईसरणे समुप्पण्णे एयमलै सम्मं अभिसमेइ। . भावार्थ - मुनि मेघकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर से ऐसा सुना, समझा। फलतः शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय तथा विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के फलस्वरूप, जातिस्मरण ज्ञान के आवरक ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के कारण ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा पूर्वक उसके जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिसे संज्ञी जीव ही प्राप्त कर सकते हैं। मेघकुमार ने इस जातिस्मरण ज्ञान द्वारा पूर्वोक्त वृत्तांत भली भाँति अवगत किया। संयम-संशुद्धि : पुनः प्रव्रज्या
(१९०) तए णं से मेहे कुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुव्वभवेजाईसरणे दुगुणाणीय-संवेगे आणंद-अंसुपुण्णमुहे हरिस-वसेणं धाराहय-कदंबकं पिव समूससिय रोम कूवे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी- अज्जप्पभिई णं भंते! मम दो अच्छीणि मोत्तूणं अवसेसे काए समणाणं
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