Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
शब्दार्थ - कुमारत्ताए - राजकुमार के रूप में, पच्चायाए प्रत्यागत - उत्पन्न हुए । भावार्थ - मेघ! तुम्हारे शरीर में घोर वेदना उत्पन्न हुई । पित्त ज्वर जनित दाह से तुम व्याकुल हो उठे। उस विषम असह्य वेदना से तीन रात तीन दिन पीड़ित रहते हुए अपना सौ वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर यहाँ जंबूद्वीप-भारत वर्ष के अन्तर्गत, राजगृह नगर में श्रेणिक राजा से,. रानी धारिणी की कोख में कुमार के रूप में उत्पन्न हुए।
उपालम्भपूर्ण उद्बोधन (१८८)
तए णं तुमं मेहा! आणुपुव्वेणं गब्भवासाओ णिक्खंते समाणे उम्मुक्कबालभावे जोव्वणग - मणुप्पत्ते मम अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। तं जइ जाव तुमे मेहा। तिरिक्ख जोणिय भावमुवगएणं अपडिलद्धसम्मत्त - रयणलभेणं से पाए पाणाणुकंपयाए जाव अंतरा चेव संधारिए णो चेव णं णिक्खित्ते, किम पुण तुमं मेहा! इयाणिं विपुलकुल - समुब्भवेणं णिरुवहयसरीर - दंतलद्ध - पंचिंदिएणं एवं उट्ठाण -बल-वीरिय- पुरिसगार - परक्कम -संजुत्तेणं मम अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे समणाणं णिग्गंथाणं राओ पुव्वरत्तावरत-काल समयंसि वायणाए जाव धम्माणुओगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणाण य णिग्गच्छमाणाण य हत्थसंघट्टणाणि य पायसंघट्टणाणि य जाव रयरेणु-गुंडणाणि य णो सम्मं सहसि खमसि तितिक्खसि अहियासेसि ?
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शब्दार्थ - तिरिक्खजोणियभाव - तिर्यंचावस्था, अपडिलद्ध - अप्रतिलब्ध प्राप्त न किए हुए, लभेणं - लाभ सहित, अंग - कोमल आमंत्रण मूलक संबोधन, विपुलकुल समुब्भवेणं - उच्चकुलोत्पन्न, उट्ठाण - आत्मोन्मुख उर्ध्वगामी चेष्टा विशेष, बल दैहिक सामर्थ्य, वरिय आत्म शक्ति, पुरिसगार - पौरुष बल एवं वीर्य का उपयोग, परक्कम कार्य-साधक पुरुषार्थ, ख सक्षम होते हो, तितिक्खसि - दीनता रहित भाव से सहन करते हो, अहियासेसि - शुभ अध्यवसाय एवं निश्चल कायपूर्वक सहते हो ।
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