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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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भावार्थ - मेघ! तुम्हे भली भाँति यह ज्ञात हुआ कि मैं अपने व्यतीत हुए दूसरे भव में यहीं जंबूद्वीप, भारत वर्ष में वैताढ्य पर्वत की तलहटी में विचरणशील था। इसी प्रकार की अग्नि से भयावह स्थिति उत्पन्न हुई। तुम उसी दिन के अंतिम प्रहर में अपने यूथ के साथ एक स्थान पर एकत्र हुए। तब तुम समस्त शारीरिक शक्ति आदि से परिपूर्ण, जाति स्मरण ज्ञान युक्त, मेरुप्रभ हाथी थे।
(१७७) तए णं तुझं मेहा! अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था - तं सेयं खलु मम इयाणिं गंगाए महाणईए दाहिणिल्लंसि कूलंसि विंझगिरिपायमूले दवग्गिसंजायकारणट्ठा सएणं जूहेणं महालयं मंडलं घाइत्तए तिकट्ठ एवं संपेहेसि २ त्ता सुहंसुहेणं विहरसि। ___शब्दार्थ - इयाणिं - इस समय, दाहिणिल्लंसि कूलंसि - दक्षिणी किनारे पर, . दवग्गिसंजायकारणट्ठा - दावानल से बचाव के लिए, घाइत्तए - वृक्ष, घास आदि उखड़वाना।
भावार्थ - मेघ! तुम्हारे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि अच्छा यह होगा कि मैं इस समय गंगा महानदी के दक्षिणी तट पर, विन्ध्याचल पर्वत की तलहटी में, दावानल से बचाव हेतु अपने यूथ के साथ वृक्षादि को साफ कर एक विशाल मंडल की रचना करूँ इस प्रकार तुम्हारे मन में विचार-मंथन चलने लगा। विशाल मंडल की संरचना
(१७८) तए णं तुम मेहा! अण्णया कयाइ पढम पाउसंसि महावुट्टिकायंसि सण्णिवइयंसि गंगाए महाणईए अदूर सामंते बहूहिं हत्थीहिं जाव कलभियाहि य सत्तहि य हत्थिसएहिं संपरिवुडे एगं महं जोयण परिमंडल महइमहालयं मंडलं घाएसि जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा कंटए वा लया वा वल्ली वा खाणुं वा रुक्खे वा खुवे वा तं सव्वं तिक्खुत्तो आहुणिय आहुणिय पाएणं उट्टवेसि
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