Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
प्रथम अध्ययन - ऐहिक भोग : असार, नश्वर
११७
है। फिर कौन जानता है कि कौन संसार से पहले जाएगा और कौन बाद में जाएगा? इसलिए माताश्री! मैं आपसे आज्ञा लेकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास प्रव्रज्या ले लूँ, यही मेरी भावना है।
(१२३) तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो एवं वयासी-इमाओ ते जाया! सरिसियाओ सरित्तयाओ सरिसव्वयाओ सरिस-लावण्ण-रूव-जोव्वण-गुणोववेयाओ सरिसेहितो रायकुलेहितो आणियल्लियाओ भारियाओ, तं भुंजाहि णं जाया! एयाहिं सद्धिं विउले माणुस्सए कामभोगे, तओ पच्छा भुत्तभोगे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि।
भावार्थ - तब माता पिता ने मेघकुमार से कहा - पुत्र! तुम्हारी ये पत्नियाँ, तुम्हारे ही अनुरूप, लावण्य, यौवन, वय तथा गुणों से संपन्न हैं। हमारे सदृश राजकुलों में जन्मी हैं। इनके साथ तुम मनुष्य जीवन के विपुल काम भोगों का सेवन करो। भोगों को भोगने के अनंतर, भगवान् महावीर स्वामी से श्रमण-प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना।
. . (१२४) - तए णं से मेहे कुमारे अम्मापियरं एवं वयासी - तहेव णं अम्मयाओ! जं णं तुब्भे मम एवं वयह-इमाओ ते जाया! सरिसियाओ जाव समणस्स जाव पव्वइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ! माणुस्सगा काम भोगा असुई असासया वंतासवा पित्तासवा खेलासवा सुक्कासवा सोणियासवा दुरुस्सास-णीसासा दुरुयमुत्त-पुरीस-पूय-बहुपडिपुण्णा उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाणग-वंतपित्त-सुक्क-सोणियसंभवा अधुवा अणियया असासया सडण-पडण-विद्धंसणधम्मा पच्छा पुरं च णं अवस्स विप्पजहणिजा, से के णं अम्मयाओ! जाणइ के पुव्विं गमणाए के पच्छा गमणाए? तं इच्छामि णं अम्मयाओ! जाव पव्वइत्तए।
शब्दार्थ - असुई - अशुचि-अपवित्र, असासया - अशाश्वत, वंत - वमन, खेल -
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org