Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
पैर उसके मस्तक से, किन्हीं का पेट से टकरा जाता है । कतिपय उसको लांघकर निकलते, बार-बार ऐसा होता । किन्हीं - किन्हीं के पैरों की धूल उसके लग जाती । इस प्रकार उस लम्बी रात में मेघकुमार पल भर के लिए भी अपनी आँखें बंद नहीं कर सका ।
विवेचन जैन धर्म में चारित्र का स्थान सर्वोपरी है । वहाँ कुलीनता, वैभव, पद, प्रसिद्धि इत्यादि लौकिक विशेषताओं का महत्त्व नहीं है । यही कारण है कि प्रव्रजित हो जाने पर साधु संघ में सब एक समान हो जाते हैं। कोई राज परिवार से आया हो अथवा अतिसाधारण घर से आया हो, पूर्वावस्थाओं के आधार पर कोई अंतर नहीं माना जाता।
साम्यवाद का यह एक अति उत्तम आध्यात्मिक रूप है साधु-संघ में मर्यादागत निर्वद्य सुविधाओं की दृष्टि से, उनके विभाग की दृष्टि से दीक्षा - पर्याय की ज्येष्ठता का ध्यान रखा है। जो साधु दीक्षा में बड़े होते हैं, विभाग में उनकी अनुकूलता का विशेष ध्यान रखा जाता है। चारित्र रूप रत्न के पर्यायाधिक्य के कारण उनके लिए यह प्रचलित है। इसी समतामूलक विभाग परंपरा के कारण राजकुमार मेघ के साथ शय्या संस्तारक के विभाग में पूर्वोल्लिखित व्यवहार हुआ जो श्रमण मर्यादा की दृष्टि से सर्वथा उचित था । संयम - साधना आत्म-बल के परीक्षण की कसौटी है। सहसा राजपरिवार से आने के कारण मेघ कुमार को वह अमनोज्ञ प्रतीत हुआ क्योंकि वह तो उसके संयम स्वीकार का पहला ही दिन था । वह वैराग्यवान् तो था, किन्तु अभ्यास की परिपक्वता अभी बाकी थी, जो आगे भगवान् महावीर द्वारा दिए गए आत्मावबोध प्रस्फुटित हुई ।
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तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था एव खलु अहं सेणियस्स रण्णो पुत्ते धारिणीए देवीए अत्तए मेहे जाव सवणयाए, तं जया णं अहं अगारमज्झे वसामि तया णं मम समणां णिग्गंथा आढायंति परिजाणंति सक्कारेंति सम्मार्णेति अट्ठाई हेऊई पसिणाइं कारणाइं वागरणाई आइक्खंति इट्ठाहिं कंताहि वग्गूहिं आलवेंति संलवेंति, जप्पभिडं च णं अहं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए तप्पभिड़ं च ण ममं समणा णो आढायंति जाव णो संलवेंति, अदुत्तरं च णं मम समणा णिग्गंथा राओ पुव्वरत्तावरत्तकाल -
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