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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
भावार्थ - मेघ! तुम इस भव से पूर्व अतीत काल में, तीसरे भव में वैताढ्य पर्वत की तलहटी में तेराज थे। वनचरों ने तुम्हारा नाम सुमेरुप्रभ रखा था। तुम्हारा वर्ण श्वेत था। तुम शंख, चूर्ण, दधि, गोदुग्ध के फेन, चंद्र, जल कण, रजत के समान निर्मल, उज्ज्वल, श्वेत थे। तुम सात हाथ ऊँचे, नौ हाथ लम्बे एवं मध्यभाग दस हाथ के परिणाह-परिधि घेराव वाले थे। तथा अपने सुगठित सातों अंगों (चार पैर, सूंड, पूंछ, जननेन्द्रिय) से युक्त बड़े सुहावने थे। तुम्हारी देह का अग्र भाग, पृष्ठ भाग, मस्तक, निम्न भाग, कुक्षि इत्यादि सभी प्रमाणोपेत, पुष्ट
और सुभग-सौभाग्यशाली थे। तुम्हारी सूंड लंबी और सुहावनी थी। छह दांतों से तुम बड़े मनोज्ञ प्रतीत होते थे। तुम्हारे बीसों नाखून श्वेत, निर्मल, स्निग्ध और निरुपहत थे। ... .
तत्थ णं तुम मेहा! बहहिं हत्थीहि हत्थिणियाहि य लोहएहि य लोहियाहि य कलभेहि य कलभियाहि य सद्धिं संपरिवुडे हत्थि-सहस्सणायए देसए पागट्ठी पट्टवए जूहवई वंदपरियट्टए अण्णेसिं च बहूणं एकल्लाणं हत्थिकलभाणं आहेवच्चं जाव विहरसि। __ शब्दार्थ - लोट्टएहि - छोटी अवस्था के हाथियों से, लोहियाहि - छोटी अवस्था की हथनियों से, कलभेहि - हाथी के बच्चों से, हत्थि-सहस्सणायए - एक हजार हाथियों के अधिपति, देसए - मार्ग दर्शक, पागट्ठी - अग्रगामी, पट्ठवए - प्रस्थापक-विविध कार्य नियोजक, जूहवई - यूथपति-हस्ति समूह नायक, वंदपरियट्टए - वृंद परिवर्धक-हस्ति समूह के उन्नायक, अण्णेसिं - दूसरों के, एकल्लाणं - एकाकी।
भावार्थ - मेघ! तुम तब बहुत से बड़े हाथियों-हथनियों, छोटे हाथियों-हथनियों तथा बच्चों से घिरे रहते थे। एक हजार हाथियों के नायक, मार्ग दर्शक एवं अग्रगामी थे। अकेले घूमने वाले हाथियों के बच्चों का भी लालन-पालन करते थे। इस प्रकार तुम विहरणशील थे।
(१६६) तए णं तुमं मेहा! णिच्चप्पमत्ते सई पललिए कंदप्परई मोहणसीले अवितण्हे कामभोग तिसिए बहूहिं हत्थीहि य जाव संपरिवुडे वेयड गिरिपायमूले गिरीसु य दरीसु य कुहरेसु य कंदरासु य उज्झरेसु य णिज्झरेसु य वियरएसु य गद्दासु य पल्लवेसु य चिल्ललेसु य कडगेसु य कडयपल्ललेसु य तडीसु य वियडीसु य
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