Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रथम अध्ययन - प्रतिबोध हेतु पूर्वभव का आख्यान
१४६
टंकेसु य कूडेसु य सिहरेसु य पन्भारेसु य मंचेसु य मालेसु य काणणेसु य वणेसु य वणसंडेसु य वणराईसु य णईसु य णईकच्छेसु य जूहेसु य संगमेसु य वावीसु य पोक्खरिणीसु य दीहियासु य गुंजालियासु य सरेसु य सरपंतियासु य सरसरपंतियासु य वणयरेहिं दिण्णवियारे बहूहिं हत्थीहि य जाव सद्धिं संपरिवुडे बहुविह-तरु-पल्लव-पउर-पाणियतणे णिब्भए णिरुव्विग्गे सुहंसुहेणं विहरसि।
शब्दार्थ - णिच्चप्पमत्ते - नित्य प्रमत्त-मस्त, सई - सदा, पललिए - क्रीडाशील, कंदप्परई - कामक्रीड़ा में प्रीतिशील, मोहणसीले - विषयासक्त, अवितिण्हे - काम-भोग में अविरक्त, कामभोगतिसिए - काम-भोग में सतृष्ण, कुहरेसु. - पर्वतों के अन्तराल भाग में, उज्झरेसु - पर्वत के ऊपरी भाग से गिरने वाले झरनों पर, णिज्झरेसु - पर्वत के नीचे के भाग से गिरने वाले झरनों पर, वियरएसु - नदी के तट प्रदेश से बहते हुए जल में, पल्लवेसु - छोटे जलाशयों में, चिल्ललेसु - कीचड़ युक्त, छोटे तालाबों में, कडगेसु - पर्वत तटों पर, कडय पल्ललेसु - पर्वतों के निकटवर्ती छोटे तालाबों में, वियडीसु - छिन्न-भिन्न तटों पर, टंकेसु - एक दिशा की ओर टूटे हुए पर्वतों पर, कूडेसु - पर्वत शिखरों पर, पम्भारेसु - कुछ झुके हुए पर्वतों के भागों में, मंचेसु - बड़े-बड़े सपाट शिला खंडों पर, मालेसु - खेतों की रक्षार्थ बनाई गई मचानों में, णईकच्छेसु - नदी तटवर्ती वृक्ष समूहों में, जूहेसु - बंदर आदि प्राणि समूह के आवास स्थानों में, वावीसु - चतुष्कोण युक्त बावड़ियों में, पोक्खरिणीसु - कमल युक्त गोलाकार जलाशयों में, दीहियासु - दीर्घाकार वापियों में, गुंजालियासु - वक्राकार वापी में, सरपंतियासु - तालाबों की कतारो में, सरसर पंतियासु - परस्पर संलग्न सरोवरों की. कतारों में, वणयरेहिं - भीलादि वनवासीजनों द्वारा, दिण्णविदारे - विचरण करने की छूट, पउर - प्रचुर, तणे - तृण-घास, णिरुविग्गे - उद्वेग रहित।
भावार्थ - मेघ! तुम निरंतर मस्ती के साथ क्रीड़ा परायण, काम भोग में अभिरत, अतृप्त सतृष्ण बने हुए, वैताढ्य पर्वत की तलहटी में, पर्वतों की गुफाओं में, कंदराओं में, झरनों पर वनों में, सरोवरों में, वापियों में, नदी-तटवर्ती वृक्षों के झुरमुटों में, पुष्करिणियों में क्रीडारत रहते थे। भील आदि वनचरों ने विचरण हेतु तुम्हें छूट दे रखी थी। तुम अनेकानेक हाथियों के साथ वृक्षों के पल्लव, पानी, घास आदि का स्वेच्छा पूर्वक उपभोग करते हुए भय तथा उद्वेग रहित होकर सुख पूर्वक विचरणशील थे।
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