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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
तीन बार आदक्षिण- प्रदक्षिणा पूर्वक वंदन नमन किया, उनकी पर्युपासना करने लगा, उनकी सन्निधि में स्थिर हुआ।
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तणं 'मेहाइ' समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं एवं वयासी- “ से णूणं तुमं मेहा! राओ पुव्वरत्तावरत्त - कालसमयंसि समणेहिं णिग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए जाव महालियं च णं राई णो संचाएसि मुहुत्तमवि अच्छिं णिमिल्लावेत्तए, तए णं तुम्भे मेहा! इमे एयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - जया णं अहं अगारमज्झे वसामि तया णं मम समणा णिग्गंथा आढायंति जाव संलवेंति, जप्पभिड़ं च णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि तप्पभिदं च णं मम समणा णो आढायंति जाव णो परियाणंति अदुत्तरं च णं मम समणा णिग्गंथा राओ अप्पेगइया वायणाए जाव पायरयरेणुगुंडियं करेंति, तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगार मज्झे आवसित्तए त्तिकट्टु एवं संपेहेसि २ त्ता अट्ट - दुहट्ट - वसट्ट - माणसे जाव रयणिं खवेसि २ ता जेणामेव अहं तेणामेव हव्वमागए, से णूणं मेहा! एस अट्ठे समट्ठे ? हंता अट्ठे समट्टे ।
भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने मेघकुमार को संबोधित कर कहा - “मेघ! रात के पहले एवं अंतिम समय में जब श्रमण निर्ग्रन्थ वाचना, पृच्छना हेतु आते-जाते थे, तब उनसे टकराए जाने आदि से तुम मुहूर्त भर भी आँखें बंद नहीं कर सके। तब तुम्हारे मन में ऐसा विचार आया कि जब मैं घर में था तब सभी श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे, मधुरतापूर्वक आलाप-संलाप करते थे। जब से मैं अनगार धर्म में प्रव्रजित हुआ हूँ, न मेरा आदर करते हैं और न मधुरवाणी में बात ही करते हैं। इतना ही नहीं रात में मुनिगण वाचना, पृच्छना के निमित्त जाते-आते समय मुझ से टकराते रहे। उनके पैरों की धूल मुझ से लगती रही । अतः प्रातःकाल श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास जाकर, उनकी आज्ञा लेकर घर चला जाऊँतुम्हारे मन में ऐसा ऊहापोह होने लगा। तुम आर्त्तध्यान से, दुःख से उद्विग्न हो उठे। तुमने नरकावास की तरह रात्रि बिताई। रात व्यतीत कर शीघ्र ही तुम यहाँ आ गए। मेघ! क्या यह बात सही है?” मेघकुमार बोला - “भगवन्! जैसा आप फरमाते हैं, वह यथार्थ है । "
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