Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रथम अध्ययन - ऐहिक भोग : असार, नश्वर
१२१
मोक्ष-मार्ग, सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे- सभी दुःखों के प्रहाण-नाश का मार्ग, अहीव - सर्प की तरह, एगंतदिट्ठीए - निश्चल दृष्टि युक्त, खुरो - छुरा या उस्तरा, एर्गत धाराए- एक समान धारायुक्त, लोहमया- लोहे की तरह, जवा - जौ, चावेयव्वा- चबाने के तुल्य, वालुयाकवलेबालू के ग्रास जैसे, णिरस्साए - नीरस-स्वादविहीन, पडिसोयगमणाए- बहाव के विपरीत चलना, भुयाहिं - भुजाओं द्वारा, दुत्तरे - दुस्तर-कठिनाई से तरने योग्य, तिक्खं - तीक्ष्ण-तेज धार, चंकमियव्वं - आक्रमण करने जैसा, गरूअं- भारी बोझ, लंबेयव्वं - लटकाने जैसा, असिधारव्वयं - तलवार की धार पर, चरियव्वं - चलना।
भावार्थ - पुत्र! निग्रंथ प्रवचन सत्य, सर्वोत्तम, सर्वज्ञ भाषित, न्यायसंगत एवं सर्वथा शुद्ध है। वह माया-मोहादि शल्यों को काटने वाला है। सिद्धि, मुक्ति एवं निर्वाण का पथ है। समस्त दुःखों को क्षय करने वाला है। सर्प जिस तरह अपने लक्ष्य पर एकान्ततः दृष्टि लगाए रहता है, उसी प्रकार वह संयम रूप अध्यात्मदृष्टि परक है। परन्तु वह (संयम) क्षुर (उस्तरे) की तरह एक समान धार युक्त है। उसका पालन करना मानो लोहे के जौ चबाने जैसा है। वह बालू के ग्रास की तरह नीरस है। जैसे महानदी गंगा के प्रवाह के विपरीत चलना, समुद्र को भुजाओं से तैरना, भाले आदि तीक्ष्ण शस्त्रों की नोक पर आक्रमण (आघात) करना, गले में भारी बोझ लटकाना, तलवार की धार पर. चलना कठिन है-वैसे ही संयम पथ पर चलना बहुत ही दुष्कर है।
. (१२६) णो.खलु कप्पइ जाया! समणाणं णिग्गंथाणं आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा, कीयगडे वा, ठवियए वा, रइयए वा, दुब्भिक्खभत्ते वा, कंतारभत्ते वा, वद्दलियाभत्ते वा, गिलाणभत्ते वा, मूलभोयणे वा, कंदभोयणे वा, फलभोयणे वा, बीयभोयणे वा, हरियभोयणे वा, भोत्तए वा, पायए वा। तुमं च णं जाया! सुह-समुचिए णो चेव णं दुह-समुचिए णालं सीयं णालं उण्हं णालं खुहं णालं पिवासं णालं वाइय-पित्तिय-सिंभिय-सण्णिवाइय, विविहे रोगायंके उच्चावए गामकंटए बावीसं परीसहोवसग्गे उदिण्णे सम्मं अहियासित्तए। भुंजाहि ताव जाया! माणुस्सए काम भोगे तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि।
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