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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
संचालन ४६. पडिचारं - शत्रु सेना के प्रतिरोधार्थ सैन्य सज्जा ५०. चक्कवूहं - चक्रव्यूह - चक्र के आकार में सैन्य-स्थापन ५१. गरुलवूहं - गरुड के आकार में सैन्य-व्यवस्थापन ५२. सगडवूहं - गाड़े के आकार में स्थापना ५३. जुद्धं - युद्ध कला ५४. णिजुद्धं - . मल्लवत् विशेष युद्ध ५५. जुद्धाइजुद्धं - आमने-सामने शस्त्रास्त्रों से लड़ना ५६. अट्ठिजुद्धं - शरीर के अस्थि प्रधान बलिष्ठ भागों से टक्कर मारना ५७. मुट्ठिजुद्धं - मुष्ठि प्रहार पूर्वक लड़ना ५८. बाहुजुद्धं - भुजाओं से आघात पूर्ण युद्ध ५६. लयाजुद्धं - यथावसर कंटीली, तीक्ष्ण लताओं से लड़ना ६०. ईसत्थं - इषु शास्त्र-दिव्य बाण विद्या का ज्ञान ६१. छरुप्पवायंआवश्यक होने पर खड्ग की मूठ से प्रहार करना ६२. धणुव्वयं - धनुर्विद्यां का ज्ञान ६३. हिरण्णपागं - चांदी विषयक रासायनिक ज्ञान ६४. सुवण्णपागं - स्वर्ण विषयक रासायनिक ज्ञान ६५. सुत्तखेडं - धागों से विशेष प्रकार की क्रीड़ा का बोध ६६. वट्टखेडं - गोलाकार घूमने के खेल विशेष का ज्ञान ६७. णालियाखेडं - द्यूत में हारने की स्थिति में पासों के विपरीत प्रयोग का ज्ञान ६८. पत्तच्छेजं - पत्तों के बीच स्थित किसी एक पत्ते का छेदन . ६६. कडगच्छेजं - कटक, कुण्डल आदि का छेदन ७०. सजीवं - मृत (मूर्च्छित) को. जीवित के समान दिखला देना ७१. णिजीवं - जीवित को मृत के समान दिखला देने का कौशल ७२. सऊणरूयं - पक्षियों की बोली को शुभाशुभ रूप में पहचानना।
भावार्थ - मेघकुमार ने नैसर्गिक प्रतिभा, लगन एवं उद्यम द्वारा सूत्रोक्त बहत्तर कलाओं का जिनका एक राजा के जीवन के विविध पक्षों से संबंध होता है, शिक्षण पाया तथा इनमें कौशल एवं पारगामित्व प्राप्त किया। .
विवेचन - भगवान् महावीर के युग में यद्यपि, लिच्छवि, वज्जि, मल्ल आदि कतिपय गणराज्य भी थे किन्तु एकतंत्रात्मक राज्यों का बाहुल्य था जिनमें राजा ही सर्वोपरि होता था। राजा अत्यन्त योग्य, विद्वान्, कलामर्मज्ञ, ज्ञान-विज्ञान वेत्ता, विविध लौकिक विषयों में निपुण साम-दाम-दंड-भेद आदि नीतियों में निष्णात, शारीरिक दृष्टि से समर्थ, बलिष्ठ, युद्ध-विद्या में अत्यन्त प्रवीण, चक्रव्यूह आदि सैन्य संस्थापन और मोर्चों के गठन में दक्ष, मनोविनोद के विविध साधनोपकरणों में विज्ञ, संगीत, काव्य नाट्य आदि अनेक अनुपम विशेषताओं और गुणों से विभूषित हो, यह आवश्यक माना जाता था। इसीलिए कहा गया है -
बालोऽपि नावमन्तव्यो, मनुष्य इति भूमिपः। महती देवता ह्येषा, नर रूपेण तिष्ठति॥
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