Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
प्रथम अध्ययन - देव का प्राकट्य
७५
-
-
-
-
-
पासित्ता ओहिं पउंजइ। तए णं तस्स पुव्वसंगइयस्स देवस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु मम पुव्वसंगइए जंबूद्दीवे २ भारहे वासे दाहिणड्ड भरहे, रायगिहे णयरे पोसहसालाए पोसहिए अभए णामं कुमारे अट्ठमभत्तं पगिण्हित्ता णं मम मणसी करेमाणे २ चिट्ठइ। तं सेयं खलु मम अभयस्स कुमारस्स अंतिए पाउन्भवित्तए। एवं संपेहेइ संपेहित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ २ त्ता वेउव्विय-समुग्घाएणं समोहणइ २ त्ता संखेज्जाई जोयणाई दंडं णिसिरइ, तं जहा -
शब्दार्थ - परिणममाणे - पूर्ण होने पर, चलइ - चलित होता है, ओहिं - अवधिज्ञान को, पउंजइ - प्रयुक्त करता है, वेउब्विय-समुग्धाएणं - वैक्रिय समुद्घात, समोहणइ - आत्मप्रदेशों का विस्तार कर उन्हें बाहर निकालता है, संखेज्जाई - संख्यात, जोयणाई - योजन, णिसिरइ - निकालता है।
भावार्थ - जब अभयकुमार के तेले की तपस्या पूर्ण हुई तो उसके पूर्वजन्म के मित्र देव का आसन डोलने लगा। देव ने अपने आसन को जब डोलते हुए देखा तो उसने अवधिज्ञान का उपयोग किया। तब उस देव के मन में ऐसाभाव उद्गत हुआ-उसे यों परिज्ञात हुआ कि जंबूद्वीप-भारत वर्ष के अंतर्गत दक्षिणार्ध भरत में, राजगृह नगर में, पौषधशाला में मेरे पूर्वजन्म का मित्र अभयकुमार अपने तेले की तपस्या के पूर्ण होने पर मुझे स्मरण करता हुआ स्थित है। इसलिए मेरे लिए यह उचित है कि मैं अभयकुमार के समक्ष उपस्थित होऊँ। यों विचार कर वह उत्तरपूर्व दिशा भाग; ईशान कोण में अवक्रांत होता (जाता) है और वैक्रिय समुद्घात करता हैउत्तर वैक्रिय शरीर बनाने हेतु आत्म-प्रदेशों को बाहर निकाल कर उन्हें संख्यात योजन पर्यंत दण्डाकार रूप में परिणत करता है।
विवेचन - उपर्युक्त वर्णन में आये हुए “आसणं चलई" शब्द का अर्थ - "शारीरिक अंग. स्फुरण (कम्पन)" समझना चाहिए। सिंहासन व विमान आदि आसन का चलन नहीं समझना चाहिए।
(६६) रयणाणं १, वइराणं २, वेरुलियाणं ३, लोहियक्खाणं ४, मसारगल्लाणं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org