Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
पौषधशाला का प्रमार्जन किया। मल-मूत्र त्याग की भूमि का प्रतिलेखन किया। तदनंतर डाभ के आसन का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर वह आसन पर स्थित हुआ, उसने तेले की तपस्या स्वीकार की। इस प्रकार उसने पौषधशाला में ब्रह्मचर्य पूर्वक पौषध में अवस्थित होते हुए अपने मित्र देव का स्मरण किया।
विवेचन - अकाल दोहद पूर्ति के लिए अभयकुमार के द्वारा किया गया पौषध सहित तेला तप रूप नहीं समझा जाता है। किन्तु उसे तो मात्र देवता को बुलाने का साधन मात्र समझा जाता है। तेला निरवद्य प्रवृत्ति रूप होने से इसे बंधन का कारण भी नहीं समझा जाता है। देव को बुलाने का उपाय पौषध सहित तेला ही होने से अभयकुमारादि ने प्रतिलेखनादि क्रिया युक्त पौषध सहित तेला किया एवं उसका देवागमन रूप इच्छित परिणाम भी उन्हें उसी के अन्त में प्राप्त हो गया। इसलिए प्रतिलेखनादि क्रियाएँ परिणाम शून्य नहीं समझनी चाहिए। सांसारिक कार्य के लिए की गई पौषधादि प्रवृत्तियाँ भी धार्मिक नहीं कहला कर सांसारिक ही कहलाती है। तथापि सावध प्रवृत्तियों की अपेक्षा ये निरवद्य होने से प्रशस्त कहा जा सकता है। एकाग्र चित्त से तीन दिन तक देवता का स्मरण करने से स्मरण करने वाले के मनोयोग के पुद्गल देव, तक पहुँच कर उसके अंग (आसन-शरीर के अवयव) को चलित करते हैं, जिससे वह देव अवधि का उपयोग करके उस स्मरण करने वाले को देखकर उसके पास पहुँच जाता है। प्रशस्त अप्रशस्त तपस्या से प्रसन्नादि होना आने, नहीं आने में हेतु नहीं है। तेला तो देवता तक सूचना पहुँचाने का उपाय मात्र है। एकान्त में पौषध सहित होने से चित्त की एकाग्रता में सहायता मिलती है। भरत चक्रवर्ती पर उपसर्ग कराने वाले आपात चिलातों ने अपने कुलदेवों (मेघमाली) को बुलाने के लिए पौषध विधि के अनजान होने से नग्न होकर सिन्धु नदी में रेती के संस्तारक (बिछौने) पर आरूढ होकर मेघमाली देवों का तेला किया था जिससे मेघमाली देवों का आसन चलित होकर वे आ गये। कृष्ण वासुदेव का तेला भी इसी प्रकार का समझना चाहिए।
देव का प्राकट्य
(६८) तए णं तस्स अभयकुमारस्स अट्ठमभत्ते परिणममाणे पुव्वसंगइयस्स देवस्स आसणं चलइ। तए णं पुव्वसंगइए सोहम्मकप्पवासी देवे आसणं चलियं पासह
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