Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
वेसाओ- साक्षात् लक्ष्मी के सदृश वेश युक्त, सेयणगगंधहत्थिरयणं- सेचनक नामक उत्तम गंध-हस्ति, दुरूढाओ - आरूढ, चंदप्पभ - चंद्रकांत मणि, वइर - वज्र-हीरा, वेरुलिय - वैडूर्य, दग - जल बिंदु, रय - रज, अमय - अमृत, महिय - मथित, सण्णिगास - सदृश, खंध - स्कंध, पिट्ठओ - पीछे से, समणुगच्छमाणीओ - अनुगमन करती हुई, चाउरंगिणीएसेणाए - चतुरंगिणी सेना से, हयाणीएणं - अश्व-सेना, गयाणीएणं - गज-सेना, रहाणीएणंरथ-सेना, पायत्ताणीएणं - पैदल-सेना द्वारा, सव्वड्ढीए - समस्त ऋद्धि युक्त, सव्वज्जुईएसमस्त द्युति-प्रभा युक्त, णिग्घोसणाई - राजा के आगमन की, उद्घोषणा आदि से युक्त, रवेणं - शब्द के साथ, सिंघाडग - त्रिकोण मार्ग-तिकोने स्थान, तिय - त्रिक्-जहाँ से तीन रास्ते निकलते हों, चउक्क- चतुष्क-चौराहे, चच्चर - चत्वर-जहाँ चार से अधिक रास्ते.. निकलते हों, चउम्मुहं - चतुर्मुखु-चार द्वार युक्त, महापह - महापथ-राजमार्ग, पह - पथसामान्य मार्ग, आसित्त - आसिक्त-सुगंधित जल आदि छिड़का हुआ, अवलोएमाणीओ - अवलोकन करती हुई, णागर जणेणं- नागरिक जनों द्वारा, अभिणंदिज्जमाणीओ - अभिनंदित. की जाती हुई, गुम्मवल्लि - चारों दिशाओं में फैली हुई शाखाओं से युक्त लताएँ, आहिण्डेमाणीओ - घूमती हुई, विणियंति- पूर्ण करती हैं, जइ - यदि, अहमवि - मैं भी। ___भावार्थ - रानी धारिणी के मन में भाव तरंगें उठने लगीं-वे माताएँ धन्य हैं, भाग्यशालिनी हैं, पुण्यवती हैं, उन्हीं का वैभव सफल है, वे कृतार्थ हैं, जो वर्षा ऋतु के बिना. ही आकाश में नील, श्वेत, पीत, रक्त आदि विविध वर्णयुक्त मेघों को देखती हैं। वे मेघ गरज रहे हों, उनमें बिजली चमक रही हों, धीरे-धीरे उनसे बूंदे टपक रही हों। उन्होंने घनघोर वर्षा का रूप ले लिया हो। भूमि जल से संसिक्त हो गई हो। उपवनों में पौधे, लताएँ, वृक्ष अंकुरित होने लगे हों, उद्यान फूलों की सुरभि से महक रहे हो।
उसकी विचार तरंगें उच्छलित होने लगी। उसका चिंतन क्रम आगे बढ़ने लगा। मन ही मन कहने लगी - स्वर्ण, स्त्न, मणि इत्यादि से निर्मित हार, कुंडल, वलय, अंगुलिय, मेखला आदि आभूषणों को धारण किए हुए, अत्यंत बारीक, कोमल, सुहावने वस्त्र पहने हुए, महाराज श्रेणिक के साथ सेचनक गंध हस्ति पर आरूढ हों। पीछे-पीछे अश्व, हस्ति, रथ एवं पदाति रूप चतुरंगिणी सेना चल रही हो। राजगृह नगर के बीचोंबीच से जन जन द्वारा किए जाते हुए जयघोष के साथ निकल रही हो। गगन में घुमड़ते हुए, गरजते हुए, सुहावने, लुभावने, नेत्रों के लिए प्रीतिप्रद, हृदय में आनंद का संचार करने वाले, निर्जर की तरह बरसते हुए मेघों को देखकर आह्लादित होती हों, अपना दोहद पूर्ण करती हों। कितना अच्छा हो मैं भी अपना दोहद पूर्ण करूँ।
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