Book Title: Stotradi Sangraha
Author(s): Kantimuni, Shreedhar Shastri
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः ॥ वीतरागो विजयतेतराम्.. पण्डितकुलतिलकायमानेन-न्यायव्याकरणशास्त्रपारंगतेनाधिगतजैनशास्त्रतत्वेनचौबेकुलोद्भवश्रीयुतगोपीनाथसूनुपण्डितवरेणश्रीकृष्णशमी कृतं सटीकसप्तस्मरणपुस्तकमवलोक्य मप्न महान् संतोषः समजनि टकिाकारस्य विलक्षणमागधीभाषाज्ञानमधिगम्य जैनधर्म रहस्य नैपुण्यमनुभूय सरलटीकाचातुरीमवलोक्य पण्डितवराय धन्यवादं वितरामि. इन्दुर. जैनधर्मप्रवर्तक श्रीयुतमोहनलाल ता. १२-१-०९1 शिष्यकांतिमुनिः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ BiiiiR ALARY 2 Mr. Nathmal Bothra. 3 Raja Rajkumarsingh. 4 Seth Punamchand. 5 Pandit Shrikrishna Sharma, the Author of Sapta Smaran Commentary. 1 Saraimal Bapna. B.A, B.Sc., LL.B. The Bombay Art Printing Works. 6 Seth Mulchand. भा चि. गांधीनगर, पिन -382009, श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र काबा श्री कैलामसागर सूरि ज्ञानम दिनम धर्म Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः ॥ गुरुचरणेन्दुर्वरीवर्ति. भो भो इन्दरनगस्स्थजैनश्वेताम्बरपाठशालालंकरणभूताः पण्डितश्रीकृष्णशर्माणः कठिनतरमागधीभाषामयखरतरगच्छानुगामिपटनीयसप्तस्मरणानां संस्कृतच्छायादुरधिगममागधीयपदविवरणप्रतिपदहिन्दीभाषार्थ - सर्वसाधारणार्थज्ञानजनवोचितसरलभाषामयभावार्थानां लेखनेन प्रकट:कृतन्तत्रभवद्भिायव्याकरणसाहित्यशास्त्रपाण्डित्यम् एतद्विलक्षणे श्रीमतां पाण्डित्यमवलोक्य दीर्घायुषो भवन्त्विति प्रार्थयामो भगवन्तं वीतरागम्. ता. १३-२-०९ {पन्यासयशोमुनिः Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः॥ जगदीशबिजयतेतराम्. इन्दुरनगरनिवासिनागरजातीयचोबेकुलावतंसश्रीगोपीनाथात्मजपडितश्रीकृष्णशर्मकृतसटीकसप्तस्मरणग्रन्थमवलोक्य जैनमतानुयायिनी श्रीवीतरागचरणभक्तिसंपादनायोपयुक्ततमं ज्ञात्वा मम परमसंतोषः समभवत् इंदरनगरस्थजैनश्वेताम्बरपाठशालालंकारभूतायाधिगतन्यायव्याकरणसाहित्याय परिचितजैनधर्मतत्त्राय पण्डितवराय कोटिशो धन्यवादान् प्रयच्छामि. . ता. २-६-०९. { पण्डित श्रीधर शास्त्री. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MEHIDUUR, 12th February 1909. I have read with great pleasure some portions of Pandit Shrikrishna Sharma's “ Saptasmarana ” which I understand will Shortly be out. The hook possesses on originality. The learned Pandit has placed the Stodras' within the reach of all men and I ain sure the Jains will now read and understand them with trcility and interest.. As far as I know the work is allogether on different. Lincs frwn any ither Jain Work. The translation is some what sriff and in my opinion the inse of impler Words woull have been more advilotageous. But on the whole the book is in adinirable one and it appears that the author hus bestowed much labour over it. The Panditji hus rendered Conspicuous Service to the Jars Community and I am coutideni it will hvarțily welconie the book. SIRAYMAL BAPNA, B. A. B. 3. C. L. L B DISTRICT AND SESSION JUDGE MEHIDPUR Indore State. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INDORE. 23–2-1909. It was with great interest that I Shipped over some of the pages of Pandit Shrikrishna Sharma's admirable work It does credit to his high Erudition and Scholarship.. Regard being had to the fact that there are so few who possess any knowledge of Magadhi, it is but natural that those for whom it is meant should accord it their best welcome. There is no doubt that the Panditji has rendered capital Service to those who care to understand the original author and it is to be hoped that his etfort will meet the appreciation if 80 richly deserves. YESHVANT ROE B. A. Judge Nazim Diwani. Adalat Court INDORE CITY. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INDORE. 10-10-1991. Bave known Pandit Shrikrishna Sharma for the last two years. He seems to be a learned Pandit and takes ., a great deal of interest in the Study of Jain Shastras. He his. Innifer mil his love for Jiinism by: commentirig upon. “ Sapta Sinarnna” linn.glaid to say that the Cominentary Hea Jinsiprepared will be found very useful to those who Study Sapta Smarana without å tencher.. Moghadhi Verses ligve been explained in Sauskrit with some important-Graminical Notes auk fürs-the. Sake of those who are quite ignorant of the Sanskrit Language the purport of each verse in given in Hindiswilso, I believe that the Main Community ! is thankful to the learned Panditji for the endeavours to render Supta Simarına ina Language which is understood by its all His work shows that he has thorough kpowledge of; Sanskrit Magadhi: iind Hindi Lildguages. In Conclusion. I pray Panditji to take up some more important works of the Maghadhi Language and trapslate them into Hindi so that the Hindi knowing public may appreciate the Sacred Jain Literatuur. N. G: MODI, B. A, B. I. MAGISTRATE INDORE Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INDORE. 25th May1909. I thank Mr. Shrikrishna Gopeenath Chobe the well-known Scholar of Sanskrit for his great exertion in translating the most difficult seven Prayers composed by our great well--known revered sages of Jain religion in Magodhi language. I pray God for the long life of this benevolent Pandit whom the Jain Society thinks the precious Jewel for ornamenting the Jain Swaitamber School of Indore City. NATHMAL BOTHRA KŅASGEE KHAJANCHI, Indore State, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री.॥ ॥ सदस्याभ्यर्थम् ।। इह खलु परमदयालुभिः श्रमित्सर्वविद्येशानकेवल शानिभिरनादिस्वाविद्यानिर्मितकामक्रोधादि महातिमिगिलाक्रांन्तसंसरणाब्धौ पौनःपुन्येननिमज्जतां तत्तरणो. पायज्ञानपोतविकलानां प्राणिनामपारप्रापकत्वेऽपि मध्य वय॑त्युन्नतक्षणविश्रामप्रवीपवर्तमानस्वर्गारोहणसोपान-- पद्धतिसदृशवीतरागचरणनिःश्रेणी उदपादि. तदवलंबनेऽप्यविवेकतिमिरवतां दयाशीला धर्मप्रकाश प्रवर्तकाचार्या महावीरगौतमस्वामिप्रभृतय आसन् तथा प्यतिकालांतरितत्वेन तेष्वस्तंगतकल्पेषु. प्रतिपदमज्ञानतिमिरे भ्रमतां कानिचिद्विद्वज्जनकुलतिलकाः स्तवनानि रचयांबभूवुः तेषां कठिनतरबालभाषामयानां सौकर्येणार्थज्ञानासंभवे इन्दुरनगरवासिस्वात्मोन्नतिकरजैनश्वेताम्बर सभ्यप्रार्थनातिशयात् परमदयालुना विद्यावत्कुलतिल Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायमानेन पदवाक्यप्रमाणशास्त्रकृतपरिश्रमेण नागर जातीयचोबैकुलावतंसेन श्रीपोनाथसूनुपण्डितश्रीकृष्ण शर्मणा सप्तस्मरणानां संस्कृतच्छया हिन्दीभाषायां गाथापदार्थः सर्वसाधारणज्ञानार्थ सरलहिन्दीभाषायां भावार्थश्चव्यरचि. "ऋतज्ञानान्नमोक्ष ” इतिवचनानुसारेण नित्यसप्तस्मरणपठनकर्तृणां सौकर्येण ज्ञानप्राप्तिर्भूयादितिहेतो रिन्दुरजैनश्वेताम्बरमुख्यपाठशालाध्यापकेनोक्त पण्डितवरेण कृतःपरिश्रमःसफलोभवेदिति सर्वैभव्यश्रावकैःसार्थ सप्तस्मरणमवश्यं पठनीयमितिप्रार्थनापराःसदस्याः Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीधीतरागायनमः ॥ श्रीनंदिषणसरिबिरचितमजितशान्ति स्तवनं प्रारभ्यते. aor (गाथा) (गाहा) अजिअं जिअसव्वभयं संतिं च पसंतसव्वंगय. पावं ॥ जयगुरु संतिगुणकरे दोवि जिणवरे पणिवयामि ॥ १ ॥ (छाया) जितसर्वभयं अजितं च प्रशांतस+गदपापं शांति च शान्तिगुणकरी जगद्गुरू (तो) द्वावपि जिनवरौ ( अहं) प्रणिपतामि। (पदार्थ ) (जिअ ) जीत लियेहैं ( सव्वभयं ) सप्तविधभय Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ जिनने ऐसे (अजिअं ) दूसरे तीर्थकर अजितनाथस्वामी (च) और ( पसंत ) अपुनर्भावसे निवृत्त होगएहैं ( सव्व ) संपूर्ण ( गय ) रोग और ( पावं ) पाप जिनके ऐसे ( संति ) सोहलवें तीर्थंकर शान्तिनाथ स्वामी ( सतिगुणकरे ) विघ्नोपशमरूपगुणको करने वाले ( जयगुरु ) जगतमें प्राणियोंको धर्मतत्वोपदेश करने वाले ( दोवि ) दोनो ( जिणवरे ) जिनोंमें श्रेष्ट ऐसे अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीको ( पणिवयामी ) वन्दन करता हूं। (भावार्थ ) जीत लियेहैं सप्तविधभय जिन्होंने ऐसे दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ स्वामी और निवृत्त होगए हैं संपूर्ण रोग और पाप जिन्होंके ऐसे सोहलवें तीर्थंकर शान्तिनाथ स्वामी विनोंकी शांति करने वाले जगतमें जीवोंको धर्मोपदेश करने वाले जिनोंमें श्रेष्ट ऐसे दोनो अजितनाथ और शान्तिनाथ भगवानको मैं नन्दिषेण कवि वन्दनकरताहूं। (इतिहास) जिस समय दूसरे तीर्थकर अजितनाथ स्वामी अपनी माता विजयादेवीके गर्भ थे उस समय रानी विजया Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ देवी अपने पति जितशत्रुराजाके साथ चोपट खेलने लगी परन्तु परम प्रभावशाली पुत्र गर्भमें होनेसे जितशत्रु विजयादेवी को न जीत सके इस हेतु पुत्रका नाम अजित रखा । शान्तिनाथ स्वामी सोहलवें तीर्थंकर जिस समय अपनी माता के गर्भ में आए उस समय से जगतमें परममंगल होने लगा और नानाप्रकारके विघ्नों की शान्ति होनेलगी इस हेतु इन्होंका नाम शान्तिनाथ रखागया । ( गाथा ) ( गाहा ) ववयमं गुलभावे तेहं विउलतवनिम्मल सहावे । निरुवममहप्प भावे थोस्सामि सुसिन्भावे ||२|| (छाया) 4 व्यपतगतमंगलभावौ विपुलतपोनिर्मलस्वभाव निरुपमहत्प्रभाव सुदृष्टसद्भाव तौ ( अजितशान्तिनामानौ ) अहं स्तोष्ये । (पदार्थ) ( ववगय ) प्रनष्टहोगए हैं ( मंगुल ) अशोभन ( भावे) परिणाम जिन्होंके ( विउल ) विस्तीर्ण (तव) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. अजितशान्ति स्तवनम् ॥ द्वादशविधतपसे (निम्मल ) निर्मल होगयाहै (सहावे) स्वभाव जिन्होंका (निरुवम ) अनुपमेय और ( मह ) महानहै (प्पभावे ) प्रभाव जिन्होंका (सुदिट्ठ) केवल ज्ञान और दर्शन द्वारा भलीभांति देखलिये हैं ( सम्भावे ) विद्यमान जीवाजीवादिभाव जिन्होंने ऐसे (ते) वे प्रसिद्ध अजितनाथ और शान्तिनाथ भगवान को (हं ) मैं नन्दिषेण कवि (थोरसामि ) स्तुति करताहूं। (भावार्थ) नष्टहोगए हैं अशोभनपरिणाम जिन्होंके विस्तीर्ण द्वादशविध तपश्चर्यासे निर्मल होगयाहै स्वभाव जिन्होंका अनुपमेय और महानहै प्रभाव जिन्होंका केवल ज्ञान और दर्शन द्वारा भलीभाँति जानलियेहैं विद्यमान जीवाजीवादिभाव जिन्होंने ऐसे वे प्रसिद्ध अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीकी मैं स्तुति करताहूं। (श्लोकः) (सिलोगो) सव्वदुक्खप्पसंतीणं सव्वपावप्पसंतिणं । सया अजियसंतीणं नमो अजिअसतिणं ॥ ३ ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (छाया) सर्वदुःख प्रशान्तिभ्यां सर्वपापप्रशान्तिभ्यां आर्जितशान्तिभ्यां एतादृशाभ्यां अजितशान्तिनाथाभ्यां सदा नमः अस्तु । अत्रै नमःशब्दयोगजचतुर्थ्यर्थेप्राकृतत्वात् षष्टी द्विवचनस्य च बहुवचन सर्वत्र । सन्दुक्खप्पसंतीर्ण इत्यत्र पकारो घुर्गुरुर्वा समासेचेति द्वित्वस्य पाक्षिक स्वात् ॥ द्वितीये चतुर्थे च पादे संतिणं पसंतिणं चेत्य, पार्षत्वात् दीर्घाभावः अन्यथाहि छन्दोभंगः स्यात् ।। (पदार्थ) ( सव्व ) संपूर्ण ( दुवख ) वेद्यकर्म ( पसंतीणं ) प्रशान्त होगयेहैं जिन्होंके अथवा (दुवख) (दुष्टानिखानि इन्द्रियाणि दुःखानि तेषां प्रशांन्तिः इष्टानिष्टविषयेषु ययोः ) दुष्ट इन्द्रियां इष्टअनिष्ट विषयोंसे (प्पसंतीणं) शांतहोगईहैं जिन्होंकी अथवा ( सव्वदुवखप्पसंतीणं) संपूर्ण योग्य जंतुओंकी दुःखप्रशान्ति होगईहै जिन्होंसे (सब ) संपूर्ण ( पाव ) पाप (प्पसतिणं ) प्रशान्त होगए हैं जिन्होंके (अजिय ) न जीती जानेवाली ( संतीणं ) शान्ति. जिन्होंकी ऐसे ( अजियसंतिण) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीको (सया ) निरंतर ( नमो ) नमस्कार होओ ! ( भावार्थ ) संपूर्ण वेद्यकर्म प्रशान्त हो गए हैं जिन्होंके ( अथवा ) संपूर्ण दुष्ट इन्द्रियां इष्ट अनिष्ट विषयों से निवृत होगई हैं जिन्होंकी (अथवा ) संपूर्ण योग्य जन्तुओंके दुःख निवारण किये हैं जिन्होंने और संपूर्ण पाप नष्ट होगए हैं जिन्होंके और रागद्वेषादि द्वारा न जीती जाने वाली है शान्ति जिन्होंकी ऐसे अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीको मैं निरंतर नमस्कार करता हूं । ( मागधिका छंदः ) ( मागहिआ ) अजिअजिणसुहृप्पवत्तणं तव पुरि ुत्तमनामकित्तणं । तहय धिइमइप्पवत्तणं तव य जिणुत्तम संति कित्तणं ॥ ४ ॥ (छाया) हे अजितजिन हे पुरुषोत्तम तव नामकीर्त्तनं सुखप्रवर्तनं तथा च धृतिमतिप्रवर्तनं अस्ति हे जिनोत्तमशांते तव च कीर्तनमपि तथैवास्ति । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (पदार्थ) ( अजिआजण ) हे अजितसंज्ञक जिनभगवन् ( पुरिसुत्तम ) हे पुरुषोत्तम ( तव ) आपका ( नामकित्तणं ) नामस्मरण ( सुह ) सुखका (प्पवत्तणं) प्रवर्तकहै ( तहय ) और वेसेही (धिइ ) स्वास्थ्य लक्षण धृति और ( मइ ) प्रज्ञालक्षण मतिका (प्पवत्तणं) प्रवर्तक है (च) और (जिणुत्तम ) जिनोम श्रेष्ट ( संति ) हे शान्तिनाथस्वामी ( तब ) आपकाभी ( कित्तणं ) नाम स्मरग वेसाही है। (भावार्थ ) हे पुरुषोत्तम अजित संज्ञक जिनभगवन् और हे जिनोंमें श्रेष्ट शान्तिनाथ भगवन् आप दोनोंका नामस्मरण संपूर्णसुखका प्रवर्तक है और वैसेही स्वास्थ्यलक्षण धृति और प्रज्ञालक्षणमतिका भी प्रवर्तक है। ___ (आलिंगनकंछंदः) . (आलिंगणयं) किरिआविहि संचिअकम्मकिलेस विमुक्खयरं । अजिअ निचिरं च गुणेहिं महामुणिसिद्धिगयं ।। अजिअस्स य संतिमहामुणिणोविअ संतिकरं सययं मम निव्वुइकारणयं च नमसणयं ॥५॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (छाया) क्रियाविधिसंचितकर्मकेविशिकरं आणितं च गुणैः निचितं महामुनिसिद्धिगतं एतादृशं अजितस्य शांतिमहामुनेश्व नमस्यनकं सततं मम शांतिकरं निवृतिकारणकञ्च भवतु। (पदार्थ) ( किरिआ ) कायिवयादि क्रियाओंके (विधि) भेदोंसे ( संचिअ ) इकठे किये हुए ( कम्न ) ज्ञानावरणादिकर्म और ( किलेत ) कषायोंसे (विमुक्खयरं). अत्यंत प्रथक् करनेवाला ( अजितं ) तीर्थातरसंबधी अन्यदेवोंको वन्दनजनित पुण्यसे नजीताजानेवाला (च) और ( गुणेहिं ) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और चारित्रादिगुणोंसे (निचिअं) व्याप्त ( महामुनि) श्रेष्टमुनियोंकी (सिद्धि) अणिमादि. अष्टसिद्धियोतक (गय) पहुंचाहुआ ऐसा ( अजिअस्स ) अजितनाथस्वामीको ( य ) और ( संतिमहामुगिणोविअ ) शान्तिनाथ महामुनिकोभी (नमसणयं ) नमस्कार ( सभ्यं ) निरंतर (मम) मेरी (संतिकरं ) पीडाकी शान्तिकरनेवाला (च) (निव्वुइ ) मोक्षका ( कारणयं ) प्रसिद्धकारण होओ। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ . (भावार्थ ) कायिक्यादि क्रियाओंके भेदोंसे इकट्ठकियेहुए ज्ञानावरणादिकर्म और कषायोंसे अत्यन्त जुदाकरनेवाला और तीर्थांतरसंबधी अन्यदेवोंको वन्दनसे उत्पन्नहुए पुण्यसे न जीताजानेवाला और सम्यग्ज्ञानदर्शन चारित्रादि गुणोंसे व्याप्त और श्रेष्टमुनियोंकी अणिमादि अष्टसिद्धियोंतक पहुंचाहुआ ऐसा अजितनाथ स्वानीको और शान्तिनाथ महामुनिको कियाहुआ नमस्कार निरंतर मेरी पीडा की शान्तिकरनेवाला और मेरेमोक्षका करनेवाला होओ। - ( मागधिकाछंदः) ( मागहिआ) पुरिसाजइदुक्खवारणं जइअ विमग्गह सुक्खकारणं । अजिअं संतिंच भावओ अभयकरे सरणं पवज्झहा ॥६॥ (छाया) हे पुरुषाः यदि दुःखवारणं विमार्गयथ यदि च सौख्य कारणं विमार्गयथ ( तदा ) अजितं शांति च भावतः शारण गच्छत ( यतः एतौद्वौ ) अभयकरौ स्तः ( पवज्जहा ) इति दीर्घमार्षत्वात् । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (पदार्थ) ( पुरिसा ) हे भव्यजिवो ( जइ ) यदि (दुक्खवारण) दुःखोंकानाश ( जइअ ) और यदि (सुक्खकारणं) सुख का कारण (विमग्गह) शोधनकरना चाहतेहो तो (अजिअं) अजितनाथ स्वामीको ( च ) और ( संति) शान्तिनाथ स्वामीको ( भावओ ) भक्तिसे ( सरणं ) शरण ( पवझहा ) जाओ ( क्योंकि वे दोनोंही ) ( अभयकरे ) अभयके करनेवाले हैं। (भावार्थ) हे भव्यजीवो यदि तुम अपने दुःखोंका नाश और सुखकीप्राप्ति चाहतेहो तो अजितनाथ स्वाभको और शान्तिनाथस्वामीको भक्तिपूर्वक शरण जाओ क्योंकि वे दोनोंही अभयके करनेवाले हैं। (संगतकंछंदः) ( संगययं ) अरइरइतिमिरविरहिअ मुवरयजरमरण । सुरअसुरगरुलभुवगवइपयय पणिवइअं ॥ अजिअमहमविअसुनयनयनिउणमभयकरं । सरणमुवसरिअभुविदिविज महिअं सययमुवणमे ॥७॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (छाया) अरतिरतितिमिरविरहितं उपरतजरामरणं सुरासुरगरुड भुजगपतिप्रयतप्रणिपतितं सुनयनयनिपुणं अभयकरं अपिच भुविजादविजमाहतं अजितं शरणं उपसृत्य सततं उपनमे । ( पदार्थ) ( अरइ ) असंयममें अरति ( रइ) संयममें रति ( तिमिर ) अज्ञान इनसे ( विरहिअं) रहित (उवरय) निवृत्तहैं ( जरमरणं ) जरा और मरण जिनका ( सुर) देव .( असुर ) असुरकुमार (गरुल ) सुपर्णकुमार ( भुक्ग ) नागकुमार इन्होंके (वइ) पति इन्द्रने ( पयय ) सम्यक्प्रकारसे ( पणिवइअं) प्रणिपातकिया है जिनको अथवा ( सुर ) देव ( असुर ) भवनपति (गरुड ) ज्योतिष्क ( भुक्ग ) व्यंतर (या) विद्याधर इन्होंके ( वइ) स्वामी उनसे ( पयय) सम्यकप्रकारसे ( पणिवइअं) नमस्कृत ऐसे, ( सुनय ) शोभन नैगमादि सप्तनयोंके ( नय) स्वीकारकखाने में (निउणं) चतुर ( अभयकरं ) अभयकरनेवाले ( अविअ ) और भी (भुविज ) मनुष्योंसे (दिविज) देवताओंसे (महिअं) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ पूजित ऐसे ( अजिअं ) अजितनाथस्वामीको ( सरणं) शरण ( उवसरिअ) जाकर (अहं ) मैं ( सययं ) निरंतर ( उवणमे ) नमस्कार करताहूं। (भावार्थ) असंयममें अरति संयममें रति और अज्ञान इनसे रहित, निवृत्तहैं जरा और मरण जिनका, देव, असुरकुमार, सुपर्णकुमार, और नागकुभार, इन्होंकेपति इन्द्रने सम्यक् प्रकारसे प्रणिपात कियाहै जिनको, अथवा देव, भवनपति, ज्योतिष्क, व्यंतर, विद्याधर इन्होंके स्वामीने भलेप्रकारसे नमस्कार कियाहै जिनको, शोभन नैगमादि नयोंको स्वीकारकरवानेमें चतुर, अभयकरनेवाले, मनुष्योंसे और देवताओंसे पूजित, ऐसे अजितनाथ स्वामीको शरणागत होकर मैं निरंतर नमस्कारकरताहूं। (सोपानकछंदः) ( सेवाणय) तं च जिणुत्तममुत्तमनित्तमसत्तधरं अजवमद्दवखंतिविमुत्तिसमाहिनिहिं ॥ संतिअरं पणमामि दमुत्तम तित्थयरं ! संतिमुाणें मम संति समाहिवर दिसउ ॥८॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ . (छाया) उत्तमनिस्तमसत्र ( सत्व ) धरं आर्जवमार्दवक्षांतिविमुक्तिसमाधिनिधि शान्तिकरं दमोत्तमतीर्थकरं तं जिनोत्तमं शांतिमुनिं प्रणमामि ( सः ) शान्तिमुनिः मम समाधिवरं दिशतु । (पदार्थ ) ( उत्तम ) श्रेष्ट ( नित्तम ) कांक्षारहित ( सत्त ) सत्व ( सत्त ) भावयज्ञको (धरं ) धारणकरनेवाले ( अज्जब ) आर्जव मायाभाव ( मद्दव ) मार्द निरहंकारता (खंति ) क्षमा (विमुत्ति) निर्लोभता (समाहि) समाधि इनके (निहि) निधि खजीना ( संतिअरं ) आपत्तियोंके उपशमको देनेवाले (दम) इन्द्रियनिग्रहसे ( उत्तम ) प्रधान (तित्थ) तीर्थ ( यरं ) करनेवाले (तं) उन प्रसिद्ध (जिणुत्तम) सामान्यकेवलियों मेंढेष्ट ऐसे ( संतिमुणिं ) शान्तिमुनिको ( पणमामि ) प्रणामकरताहूं ( संति ) शान्तिनाथस्वामी ( मम ) मुझे (समाहिवर) प्रधान चित्तकी स्वस्थताको (दिउस) देखें। ( भावार्थ) श्रेष्ट तथा कांक्षारहित भावयज्ञको धारणकरनेवाले. मायाभाव निरहंकारता क्षमा निर्लोभता और समाधि इन्होंके Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ निधि आपत्तियोंकी शान्तिको देनेवाले इन्द्रियनिग्रहहारा प्रधानतीर्थको करनेवाले ऐसे उन प्रसिद्ध सामान्यकेवलियों में श्रेष्ट शान्तिमुनिको प्रणामकरताहूं. वे शान्तिनाथ स्वामी मुझे प्रधान चित्तकी स्वस्थता देवें । (वेष्टकच्छंदः) (वेट् डउ ). सावस्थिपुवपत्थिवं च वरहत्थिमत्थयपसत्थवित्थिन्न संथिअंथिरसरिच्छवच्छं मथगयलीलायमाण वरगंधहत्थिपत्थाणपस्थिअं संथवारिहं ॥ हथिहत्थबाहुं धंतकणगरुयगनिरुवहय पिंजरं पवरलक्खणोवचियसोम्मचारुरूवं । सुइसुहमणाभिरामपरमरमणिज वरदेवदुंदुहिनिनायमहुरयरसुभगिरं॥ ९ ॥ (छाया) श्रावस्तीपूर्वपार्थिवं च वरहस्तिमस्तकप्रशस्तविस्तीर्ण संस्थितं स्थिरसदृक्षवक्षसं मदकललीलायमानवर गंधहस्ति प्रस्थानप्रस्थितं संस्तवार्ह हस्तिहस्तबाहुं ध्मातकनकरुचकनिरुपहतपिंजरं प्रवरलक्षणोपचितसौम्यचारुरूपं श्रुति सुखमनोऽभिरामपरमरमणीयवरदेवदुंदुभिनिनादमधुरतरशुभ गिरम् । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (पदार्थ) १५ (सावत्थि ) अयोध्या के (पुत्र) दीक्षाग्रहणके पहिले ( पत्थिवं ) राजा ( च ) पादपूरणे ( वर ) श्रेष्ट (हत्थिमत्थय ) हाथी के मस्तक समान (पसत्थ) प्रशस्त और (वित्थिन्न ) विस्तीर्ण हैं ( संथिअं ) शुभसंस्थान जिनका (थिर) कठोर और ( सरिच्छ ) अविषम है ( वच्छं ) वक्षस्थल जिनका ( मयगय ) मदयुक्त और ( लीलायमाण ) लीलाकरनेवाले ( वरगंधहत्थि ) श्रेष्ठ गंधगजके ( पत्थण) गमन के समान है ( पत्थि ) चरणोंकीगति जिनकी (संथव ) स्तुतिके (अरिहं) योग्य (हत्थि ) हाथीकी ( हत्थ ) सूंडके समान हैं ( बाहुं ) भुजा जिनकी ( धंत ) खूबत पे हुए ( कणग ) सोनेके ( रुयग ) आभूषण के समान ( निरुवहय ) स्वच्छ है ( पिंजरं ) पीतवर्ण जिनका (पवर ) श्रेष्ट (लक्खण) चक्रांकुशादि चिन्होंसे ( उवचिय ) युक्त और (सोम्म) दर्शनीय ( चारु ) मनोहर हैं ( रूवं ) रूप जिनका (सुइ) कानोंको (सुह ) सुखदेनेवाली (मणाभिराम ) मनको - आल्हाददेनेवाली (परमरमणिज्ज ) अत्यन्तरमणीय (वर) श्रेष्ट ऐसी ( देवदुंदुहि ) देवोंकी दुंदुभिके ( निनाय ) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ नाद के समान है ( महुरयर ) अत्यन्तमधुर ( सुभगिरं) शुभवाणी जिनकी । ( भावार्थ ) दीक्षा ग्रहण के पहिले अयोध्यापुरीके राजा श्रेष्टगजके मस्तकसमान प्रशस्त और विस्तीर्णहै शुभसंस्थान जिन्होंका, कठोर और समान है वक्षस्थल जिन्होंका मदोन्मत्त और लीलाकरनेवाले श्रेष्टगंधगजके गमनके समान है चरणोंकीगति जिन्होंकी, स्तुतियोग्य, हाथीकी सूंडकेसमान हैं भुजा जिन्होंकी अत्यन्त तपे हुए सोने के आभूषणसमान है स्वच्छपीतवर्ण जिन्होंका, श्रेष्टचक्रांकुशादि चिन्होंसेयुक्त और दर्शनीय है मनोहररूप जिन्होंका, कानोंको सुखदेनेवाली और मनको आल्हाददायक अत्यन्त रमणीय और श्रेष्ठ ऐसी देवोंकी दुंदुभिके नाद समान है अतिमधुर शुभवाणी जिन्होंकी । (रासलुधकछंदः ) (रासलुब्छउ ) अजिअं जिआरिगणं जिअसव्वभयं भवोहरिडं । प्रणमामि अहं पयउ पापसमे मे भयवं ॥ १० ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भजितशान्ति स्तवनम् ॥ __ १७ (छाया) जितारिंगणं जितसर्वभयं (अथवा पुनरुक्तिदोषपरिहारार्थ) जीवश्रव्यभगं भवौघरिघु एतादृशं अजितं प्रयतः अहं प्रणमामि ( सः) भगवान् मे पापं प्रशमयतु । (पदार्थ) (जिअ ) जीतेहैं (अरिंगणं) अष्टकर्मरूपशत्रु समुदाय जिन्होंने (जिअ) संज्ञिपंचेन्द्रियजीवोंको (सव्वभयं ) श्रवणकेयोग्य, ऐश्वर्यजिन्होंके ( भवोह ) संसारके प्रवाहके (रिलं) शत्रु ऐसे (अजिअं) अजितनाथस्वामीको ( अहं ) मैं (पयउ ) मन वचन कायसे ( पगमामि ) नमस्कार करताहूं वह ( भयवं) भगवान ( मे ) मेरे ( पावं ) पापको ( पसमेउ) नष्टकरो। (भावार्थ) जीतेहैं अष्टकर्मरूपशत्रुओंके समुदाय जिन्होंने संज्ञिपंचेन्द्रियजीवोंको श्रवणयोग्यहै परम ऐश्वर्य जिन्होंका संसारप्रवाहकेशत्रु ऐसे अजितनाथस्वामीको मैं मनवचनकाय से प्रणामकरताहूं वे अजितनाथभगवान् मेरे पापोंको नष्टकरो।..... . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भजितशान्ति स्तवनम् ॥ (वेष्टकच्छन्दः) . (वेइढउ) : कुरुजणवयहत्थिणाउरनरीसरो पढमं तउं महाचकवाट्टिभोए महप्पभावो जो बाहत्तरि पुरवरसहस्सवरनगरनिगमजणवयवई बत्तीसारायवरसहस्साणुआयमग्गो चउद्दसवरस्यण नवमानिहि चउसाट्टि सहस्सपवरजुर्वइणसुंदरवई चुलसीहयगयरहसय सहस्ससामी छन्नवइगामकोडिसामी आसीजो भारहम्मिभयवं ॥ ११ ॥ (छाया) यः प्रथमं कुरुजनपदहस्तिनापुरनरेश्वरः ततः महाचक्र वर्तिभोगः (आसीत् ) महाप्रभावः यः भारतक्षेत्रे भगवान् पुरखरद्वासप्ततिसहस्रवरनगरनिगमजनपदपतिः द्वात्रिंशद्राजवरसहस्रानुयातमार्गः चतुर्दशवररत्ननवमहानिधि चतुःषष्टिसहस्रप्रवरयुक्तीनां सुन्दरपतिः चतुरशीतिहयगज रथशतसहस्रस्वामी षण्णवतिग्रामकोटिस्वामी आसीत् । (पदार्थ) (पढम) प्रथम (कुरुजगवय) कुरुदेशमें (हत्थिणाउर) हस्तिनापुरके ( नरीसरो ) राजाथे ( तउ ) अनंतर Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ ___१९ (महाचकवट्टि ) भारीचक्रवर्तीके ( भोए ) राज्य का उपभोगकिया ( महप्पभावो ) उत्सवोंसे, आत्माको अनुरंजन करनेवाले ( भयवं) भगवान ( भारहम्मि) भारतक्षेत्रमें (बाहत्तरि) बहात्तर (सहस्स) हजार (पुर) घरोंसे (वर) श्रेष्ट (वरनगर) उत्तम गजपुर ( जिसमेंकरनलगताहो उसे नगर कहना) (निगम) धनिकमहाजनोंके स्थान (जणवय) देशविशेषके (वई) पति (बत्तीसारायवरसहस्स ) वत्तीसहजारश्रेष्ट राजाओं से ( अणुआय) अनुयातहै ( मग्गो) मार्ग जिन्होंका (चउद्दस) चौदह (वररयण) श्रेष्टरत्नोंके (नब) नो (महानिहि) महानिधियों के (चउसठि सहस्स ) चौसटहजार ( पवर) सुंदर (जुबईण ) युवतियोंके (सुंदर) मनोहर (वई) पति (चुलसी) चौरासी (सय ) सो (सहस्स) हजार अर्थात् चोरासीलाख ( हय ) घोडे ( गय ) हाथी (रह ) रथ इन्होंकेस्वामी (छन्नवइकोडि) छन्नुकोट ( गाम ) गावोंके ( सामी ) अधिपति ( आसीत ) होतेहुए। .. (भावार्थ) प्रथम कुरुदेशमें हस्तिनापुरके राजाथे अनंतर महाचाव के भोगोंका उपभोगकरतेहुए उत्सवोंसे आत्मानु Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० भजितशान्ति स्तवनम् ।। रंजनकरनेवाले सुंदरहवोलियोंसे श्रेष्ट बहोत्तरहजारनगरोंके वणिकस्थानोंके और देशविशेषोंके पति बत्तीसहजार मुकुटधारी राजाओंसे अनुयातहै मार्गजिन्होंका चौदह श्रेष्ट रत्न नो महानिधि और चौंसटहजार अत्यन्तसुंदर युवतियोंके मनोहरपति चोरासीलाख हाथी घोडे और रथोंके अधिपति छानवेकोट गावोंके स्वामी ऐसे भारतक्षेत्र में भगवान होतेहुए। (रासानंदितकंछंदः) (रासानंदिअयं) (युगलं ) ॥ तं सन्तिं संतिकरं संतिणं सव्वभया । संति थुणामि जिणं संति विहेउमे ॥१२॥ . (छाया) शान्ति स्वान्तिकरं सर्वभयात् संतीर्ण एतादृशं तं शान्ति जिनं मे शान्ति विधातुं स्तौमि | (पदार्थ) (संति ) मूर्तिमान उपशम (संतिक ) अपने मोक्षलक्षणसामीप्यको (२) देनेवाले ( सव्वभया ) सम्पूर्णको भयहै जिससे ऐसे मृत्युसे (संतिण) तिरेहुए और स्वभक्तोंको तिरानेवाले ऐसे (तं ) उन प्रसिद्ध Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जिणं ) जिनभगवान् ( संति ) शान्तिनाथस्वामीकी ( मे ) मेरे ( संतिं ) उपसर्गोके नाशको ( विहेउ) करनेकेलिये ( थुणामि ) स्तुतिकरताहूं। (भावार्थ) मूर्तिमान उपशम मोक्षलक्षणस्वसामीप्यको देनेवाले सकलभयकारकमृत्युसे तिरेहुए और स्वभक्तोंको तिराने वाले ऐसे उन प्रसिद्ध जिनभगवान शान्तिनाथस्वामीकी मेरे दुःखोंके नाशकेहेतु में स्तुतिकरताहूं। (चित्रलेखाछंदः) . (चित्तलेहा) इस्खाग विदेहनरीसर नरवसहा मुणिवसहा । नवसारयससिसकलाणण विगयतमा विहुयरया ॥ अजिउत्तमतेअगुणेहिं महामुणिअमिअबला । वि. उलकुला पणमामि ते भवभयमरण जगसरणा मम सरणं ॥ १३॥ (छाया) हे ऐक्ष्वाक हे .विदेहनरेश्वर हे नरवृषभ हे मुनिवृषभ हे नवशारदसकलशश्यानन (भाषायां सकलशब्दस्य परनिपात आर्षत्वात् ) अथवा नक्शारदशशिसकलानन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अजित शान्ति स्तवनम् ॥ 1, २२ ( शारदशशिवत् सकलं दीप्तिसहित आननंयस्य ) हे विगततमः हे विधूतरजः हे गुणैः उत्तमतेजः हे महामुन्यमित बल हे विलकुल हे अति तुभ्यं अहं प्रणमामि हे भवभयमूरण हे जगच्छरण ( त्वं.) मम शरणं असि । ( पदार्थ ) इक्खाग) हे इक्ष्वाकुकुलोद्भव (विदेहनरीसर ) 'हे विदेह जनपदाधिपति (नरवसहा ) हे मनुष्यों में श्रेष्ट (मुणिवसहा) हे मुनियों में श्रेष्ट (नव) उदयमान (सारयं ) शरत्कालिक (सकल) सोलहकलाओंसे परिपूर्ण (सास) चन्द्रमाके समान है ( आणण ) मुखजिनका ( विगय ) मष्टहोगया है (तम) अज्ञानरूप अंधकार जिनका (विहुये ) धुल गए हैं ( रज) कर्मरूप दोष जिनके (गुणेहिं) सद्गुणों से ( उत्तमतेअ ) श्रेष्ट है तेज जिनका ( महमुणि ) महामुनियोंसेमी ( अभिअबला ) अत्यन्त अधिक है बल जिनका ( बिलकुला ) विस्तीर्ण है वंशजिनका (अजिअ ) अजितनाथस्वामी (ते) आपको ( पणमामि ) मैं नमस्कारकरताहूं (भवभय) सांसारिक भयको ( मूरण ) नष्टकरनेवाले ( जगसरण) हे जगतको आश्रय देनेवाले ( मम ) मेरे ( सरण) रक्षक हो । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___अजित्तशान्ति स्तवनम् ॥ ( भावार्थ ) हे इक्ष्वकुकुलोद्भव हे विदेहनगरके नरपति, हे मनुष्यों में श्रेष्ट हे मुनियोंमें उत्तम, हे शरदकालिकउदयहोने वाले सोलहकलाओंसेपरिपूर्ण चांदके समान मुखवाले, हे अज्ञानरूपअंधकारसे रहित, धुलगयेहैं बद्धकर्मरूपरज जिनके, सद्गुणोंसे श्रेष्टहै तेज जिनका, महामुनियोंसे भी अत्यन्त अधिकहै बलजिनका, विस्तीर्ण है वंश जिनका, ऐसे हे अजितनाथस्वामी मैं आपको नमस्कारकरताहूं हे सांसारिकजन्ममरणरूपभयको नाशकरनेवाले हे जगतको आश्रयदेनेवाले आप मेरे संरक्षकहो । ( नाराचकच्छंदः) . ( नारायउ) देवदाणविंदचंदसूरवंद हतुकृजिपरमलठ्ठ रूव धंतरुप्पपट्टसेयसुद्धनिद्धधवलदंतपंति संति सत्तिकित्तिमुत्तिजुत्तिगुत्तिपवर दित्ततेअवंद धेअ सव्वलोअभाविअप्पभावणेअ पइस मे समा: हिं ॥ १४ ॥ (छाया) हे देवदानवेन्द्रचन्द्रसूर्यवन्द्य हे हृष्टतुष्टज्येष्टपरमलषितरूप Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ हे ध्मातरूप्यपट्टश्रेयःशुद्धस्निग्धधवलंदतपङ्क्ते हे शक्ति कीर्तिमुक्तियुक्तिगुप्ति प्रवर हे दीप्ततेजोवृन्द हे ध्येय हे सर्वलोकभावितप्रभावज्ञये हे शान्ते मे समाधिं प्रदिश । ( पदार्थ ) ( देव दाणाद्रि ) देव और दानवोंकें इन्द्रसे (चन्द) द्वादशचंद्रों से ( सूर ) द्वादश सूर्योसे (वंद) चंद्य ( 8 ) रोगरहित (तु) प्रीतिको उत्पन्न करनेवाला ( जिह ) अति प्रख्यात ( परमलड ) अत्यन्त सुंदर हैं ( रूव ) रूपजिनका ( धंत ) देदीप्यमान ( रूप्प ) चान्दिके ( प ) पात्र के समान (सेय ) घन (सुद्ध) निर्मल ( निद्ध ) अरुक्ष ( धवल ) सफेद ( दंतपंति ) दांतों की पंक्ति है जिनकी ( सहित ) सामर्थ्य ( कित्ति ) कीर्ति (मुत्ति ) निर्लोभता ( जुत्ति ) न्याययुक्तवचन ( गुत्ति ) रक्षण इन्होंसे ( पवर ) श्रेष्ट ( दित ) देदीप्यमान ( तेअ ) तेजके ( बंद ) समूह ( अ ) ध्यानकेयोग्य ( सव्व ) सम्पूर्ण (लोअ ) लोगोंसे (भाविअ ) ज्ञात ( प्पभाव ) माहात्म्यसे ( अ ) जाननेलायक ( संति ) हे शान्तिनाथस्वामी ( मे ) मुझे ( समाहिं ) अंतःकरणकी स्वस्थता ( इस ) देओ । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ ( भावार्थ ) देव और दानवोंके इन्द्रसे द्वादश सूर्योसे और द्वादश चन्द्रमाओंसे वन्दना किये गए, रोगरहित, प्रीतिको उत्पन्न: करनेवाला अतिप्रख्यात और परमसुन्दर है स्वरूप: जिनका, देदीप्यमान चांदीके पात्रसमान घन निर्मल अरुक्ष और सफेद है दांतोंकी पंक्तियां जिनकी, शक्तिसे कीर्तिसे निर्लोभता से न्याययुक्त वचनोंसे अत्यन्त श्रेष्ट, प्रकाशमान तेजकेसमूह रूप, ध्यानकेयोग्य, सब लोगों में प्रख्यात महात्म्यसे जाननेलायक, ऐसे हे शान्तिनाथस्वामी, आप मुझे अन्तःकरणकी स्वस्थता देओ । (कुसुमलताछंदः ) ॥ कुसुमलया ॥ ॥ युगलं ॥ विमलस सिकलाइरेअसोग्मं । वितिमिरसूरकराइरेअतेअं || तिअसवइगणाइरेअख्खं । धरणिधरप्पचराइरेअसारं ।। १५ ।। ( छाया ) विमल शशिकलातिरेकसाम्यं वितिभिरसूर्य्यकरातिरेकतेजसं त्रिदशपतिगणातिरेक रूपं धरणिधरप्रवरातिरेकसारम् । २. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (पदार्थ) ( विमल ) निर्मल ( ससिकला ) चन्द्रकलासे भी ( अइरेअ ) अधिक है ( सोम्मं ) सौंदर्य जिनका ( वितिमिर ) मेघरहित ( सूरकर ) सूर्य किरणों से भीं (अइरेअ ) अधिक है (अं) तेज जिनका (तिअसवइ ) इन्द्रोंके ( गण ) समुदाय से भी ( अइरेअ ) अधिक है (रू) स्वरूप जिनका ( धरणिधर ) पर्वतों में ( [पवर ) श्रेष्ट जो मेरुपर्वत उससे भी ( अइरेअ ) अधिक ( सारं ) स्थिरता जिनकी ।. ( भावार्थ ) निर्मल चन्द्रकलासे भी अधिकतर है सौंदर्य जिनका, मेघरहित सूर्यकिरणों से भी अधिकतर है तेज जिनका, देवताओं के पति इन्द्रादिकों के समूहसे भी अधिक है। स्वरूपाजनका, पर्वतों में श्रेष्टतम सुमेरु पर्वत से भी अधिक है स्थिरता जिनकी । २६ ( भुजंगपरिरिंगितछंदः ) ( भुअगपरिरिंगिअं) सत्ते सया अजिअ सारीरेअ बले अजिअं । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ।। ___२७ तवसंजमेअ अजिअं एस अहं थुणामि जिणं अंजिअं ।। १६ ॥ (छाया) सत्वे सदा आजितं शारीरे बले आजितम् तपःसंयमे अजितं ( एतादृशं ) अजितं जिनं एषः अहं स्तौमि ।' . ( पदार्थ) . ( सत्तेअ) व्यवसायमें ( सया) निरंतर (अजिअं) न जीते जानेवाले ( सारीरेअ ) शरीरके ( बले ) बलमें ( अजिअं) न जीते जानेवाले ( तब ) बारह प्रकार के तपमें और (संजमे ) सतरह प्रकारके संयममें (आजि) न जीतेजानेवाले ऐसे (जिणं ) जिनभगवान (अजि) अजितनाथ स्वामीकी (एस) यह (अहं) मैं (थुणामि) स्तुति करताहूं। (भावार्थ ) उद्योगमें सर्वकाल न किसीसे जीते जानेवाले देह संबंधी बलमें भी न किसीसे जीतेजानेवाले बारह प्रकार के तप और सतरह प्रकारके संयममें भी अजित ऐसे जिनभगवान अजितनाथ स्वामीकी यह मैं स्तुति करताहूं। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (खिन्जितकच्छंदः) ॥ खिजिययं ॥ सोम्मगुणेहिं पावइ नतं नवसारयससी । ने. अगुणेहिं पावइनतं नवसरयखी ॥ रूवगुणेहिं पावइनतं तिअसगणवई । सारगुणेहिं पावइनतं धरणिधरवई ॥ १७ ॥ (छाया) नवशारदशशी सौम्यगुणैः तं न प्राप्नोति नवशरद्रविः तेजोगुणैः तं न प्राप्नोति त्रिदशगणपतिः रूपगुणैः तं न प्राप्नोति धरणिधरपतिः सारगुणैः तं न प्राप्नोति । (पदार्थ) . 11 ). उदयहोनेवाला ( सारय ) शरदऋतु संबंधी ( ससी ) चांद ( सोम्मगुणेहिं ) आल्हादकत्वादि गुणोंसे (तं) आजितनाथ स्वामीको (न) नहीं (पावइ) प्राप्त होसकता ( नव ) नया (सरय) शरत्काल संबंधी ( रवी ) सूर्य (तेअगुणहिं ) प्रचंडतापादि गुणोंसे (तं) अजितनाथ स्वामीको (न) नहीं ( पावइ ) प्राप्त होसकता (तिअस ) देवताओंके ( गण ) समुदायका (वई ) पति इन्द्र (रूव गुणेहिं ) सौंदर्यादि गुणोंसे Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (तं ) अजितनाथ स्वामीको (न ) नहीं ( पावइ ) प्राप्त होसकता ( धरणिधर ) पर्वतोंका (वई ) पति सुमेरुपर्वत ( सारगुणेहिं ) स्थैर्यादि गुणोंसे (तं ) अजितनाथ स्वामीको ( न ) नहीं ( पावइ ) प्राप्त होसकता। (भावार्थ) उदय होनेवाला शरदऋतुका चांद अपने आल्हादकस्वादि गुणोंसें अजितनाथ स्वामीकी बराबरी नहीं कर सकता, नया शरतत्कालिक सूर्य अपने प्रचण्ड तापादि गुणोंसे अजितनाथ स्वामी की बराबरी नहीं करसकता, देवोंका पति इन्द्र भी अपने सौंदर्यादि गुणोंसे अजितनाथ स्वामी की बराबरी नहीं करसकता. तथा पर्वतोंका स्वामी मेरुपर्वत भी अपने निश्चलतादि गुणोंसे अजित नाथ स्वामी की बराबरी नहीं करसकता। (ललितकंछंदः) (ललिअयं) तित्थवरपवत्तयं तमरयरहियं धीरजणथुचि चुअकलिकलुसं । संतिसुहपवत्तयं तिगरणपयओ संति महं महामुणिं सरणमुवणमे ॥१८॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ '.. (छाया) . - तीर्थवरप्रवर्तकं तमोरजोरहितं धीरजनस्तुताचित ध्युतकलिकलुषं शांतिसुखप्रवृत्तदं ( अथवा ) शांतिसुख प्रवृत्तकं त्रिकरणैः (मनोवाक्कायैः) प्रयतः अहं महामुनि शान्तिं शरणं उपनमे. (शांतिसुखप्रवृत्तान् क्यते पालयति स शान्तिसुखप्रवृत्तदः तम् ). ..... . (पदार्थ) (तित्थवर ) सकल तीर्थोसें श्रेष्ट तर्थिको (पवत्तयं) प्रवृत्त करनेवाले ( तम ) तमोगुण और (स्य) रजोगुण से ( रहिय ) रहित (धरिजण ) पण्डितजनों से ( थुअच्चिअं) स्तुति कियेगये और पुष्पोंसे पूजित (चुअ) नष्ट होगयाहै (कलिकलुसं ) र और मनका मेलापन जिनका (संतिसुह) मोक्षसुखमें (पवत्त) लगेहुए जनोंको (य) पालन करनेवाले ऐसे (महामुणिं) महामुनि ( संतिं ) शान्तिनाथ स्वामी को ( तिगरण ) मन वचन कायसे ( पयओ ) पवित्र होकर ( सरणं ) शरण ( उवणमे ) जाताहूं। (भावार्थ ) श्रेष्ट चतुर्वण संघको प्रवृत्त करनेवाले, तमोगुण और Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ रजोगुणसे रहित, पण्डितजनोंने वाणीसे स्तुति की है जिनकी मोक्षसुखार्थी, लोगोंको रक्षण करनेवाले ऐसे महामुनि शान्तिनाथ स्वामीको मन वचन कायसे उत्कंठित होकर मैं शरण जाताहूं। (किसलयमालछंदः) ॥ किसलयमाला॥ . ॥ विशेषकं ॥ विणओणयसिररइअंजलिरिसिगणसंथुअंथिमिअं विबुहाहिवधणवइनरवइथुयमहिअचिअंबहुसो अइरुग्गय सरयादिवायरस महिअ सप्पभंतवसा गमणंगणविहरणसमुइअचारणवंदिअं सिरसा ॥ १९ ॥ . (छाया) विनयावनतशिरोरचितांजलि ऋषिगणसंस्तुतम् स्तिमितं विबुधाधिपधनपतिनरपतिभिः क्रमेण स्तुतं महितं बहुशः अर्चितं. तपसा अचिरोद्गतशरदिवाकरसमधिकस्वप्रभं शिरसा गगनांगणविरहणसमुदितचारणवंदितम् । . (पदार्थ) (विणओणय ) विनयसे झुकेहुए ( सिर ) मस्तकों पर ( रइ) रचितहैं ( अंजलि ) अंजलि जिन्होंने Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (रिसिगण) ऐसे ऋषियोंके समुदायने (संथुअं) स्तुतिकी है जिनकी, (थिमिअं) निश्चयसे ( विबुहाहिव ) इन्द्र (धणवइ) धनदादिलोकपाल और ( नरवइ ) राजाओंने ( थुय ) स्तुति की है जिनकी ( महि ) पूजा की है जिनकी ( बहुसो ) अनेकवार ( अच्चिअं) पुष्पादिकों से अर्चनाकीहै जिनकी, (तक्सा) तपश्वार्यासे (अइरुग्गय) तत्काल उगाहुआ ( सरयदिवायर ) शरतकालिक सूर्य से ( समहिअ ) अधिकहै ( सप्पभं ) स्वकीय कान्ति जिनकी, (सिरसा ) मस्तकसे ( गगणंगण ) आकाश में ( विरहण ) संचारसे ( समुइअ) समुदित (चारण) जंघाचारणादि मुनियोंने ( वदिअं) वन्दन किया है जिनको। (भावार्थ) विनयसे झुकेहुए मस्तकों पर अंजलियां रख ऋषियों ने स्तुति की है जिनकी, देवाधिपति इन्द्रने अपनी वाणीद्वारा निश्चयपूर्वक स्तुति की है जिनकी, धनदादि लोकपालने प्रणामादिकों से पूजा की है जिनकी, और राजाओंने पुष्पादि द्रव्योंसे अनेकवार अर्चना की है जिनकी, स्वत्योबलसे तत्काल उदयाचलावरोही शस्त्काल Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ ३३ के सूर्यसे भी अधिक है स्वकान्ति जिनकी, आकाश में विहार करनेवाले जंघाचारणादि मुनियोंने स्वमस्तक से वंदना की है जिनको । (सुमुखंछंदः) ॥ सुमुहं ॥ असुरगरुलपरिवंदिरं किंनरोरगणमं सि। देव कोडिसयसंथुयं समणसंघपरिवदिरं ॥ २० ॥ (छाया) असुरगरुडपरिवंदितं किन्नरोरग नमस्यितं देवकोटिशत संस्तुतं श्रमणसंघपरिवंदितम् । (पदार्थ) ( असुर ) असुरकुमार (गरुल ) सुपर्णकुमारादि भवनवासी देवताओंने (परि) आसपासआकर (वंदि) वंदन किया है जिनको, ( किंनरोग ) किन्नर निकाय और व्यंतरनिकाय जातीके देवताओंने (णमंसिअं) नमन कियाहै जिनको, (देवकोडिसय) सोकोट देवताओं ने ( संथुयं ) स्तुति कीहै जिनकी, ( समण ) साधुओं ने और ( संघ ) श्रावक श्राविकाओंने ( परिवंदिअं) स्तवन किया जिनका. ( समणसंघः साधुसमुदाय )। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ ( भावार्थ ) . असुरकुमार सुपर्णकुमार और भवनवासी देवताओंने आसपास आकर वंदनकिया है जिनको, किन्नरनिकाय और व्यंतरनिकाय के देवताओंने नमस्कार किया है जिनको, सोकोट देवताओंने तथा साधु साध्वी श्रावक श्राविकाओं ने स्तुति की है जिनकी । (विद्युद्विलसितच्छंदः) ॥ विज्जुविलसिअं ॥ ३४ अभयं अहं अयं अरुजं अजिअं अजिअं पयओ पणमे || २१ || (छाया) अभयं अनघं अरतं अरुजं अजितं अजितं पदतः प्रणमामि ( पदतः पादयो आद्यादित्वात्तस् ) । ( पदार्थ ) . ( अभयं ) सप्ताधिभय रहित ( अहं ) पापरहित ( अरयं ) आसक्तिरहित (अरुजं ) रोगरहित (अजितं ) कामक्रोधादि शत्रुओंसे अनभिभूत एसे ( अजितं ) अजितनाथ स्वामी के ( पयओ) चरणोंमें ( पणमे ) नमस्कार करता हूं ! Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम ॥ (भावार्थ) सातप्रकार के भयोंसे रहित, पापरहित, मैथनादि विषयोंमें आसक्तिरहित, शारीरिक रोगरहित, कामक्रोधादि शत्रुओंसे अजित ऐसे अजितनाथ स्वामी के चरणों में मैं नमस्कार करताहूं। ॥ वेष्टकच्छन्दः ॥ ॥ वेड्ढओ॥ (कलापकं) आगया वरविमाणदिवकणगरहतुरयपहकरसये हिं हुलिअं। ससंभमो अरणक्खुभिअलुलिअचल कुंडलंगयकिरीडसोहंतमउलिमाला ॥ २२ ॥ (छाया) वरविमानदिव्यकनकरथतुरगपरिकरशतैः शीघ्रं आगताः ससंभ्रमावतरणक्षुभितलुलितचलकुण्डलांगदकिरीटशोभनाना मौलिभलाः। (पदार्थ) ( वर ) श्रेष्ट (विमाण) विमान (दिव्य) सुंदर (कणग) सोनेके ( रह) रथ ( तुरय ) घोडोंके (पहकरसयेहिं) अनेक शत संघात द्वारा ( हुलिअं) शीघ्र ( आगया) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ ३६ आये हुए, ( संसभमो ) जलदीसे ( अरण ) आकाशसे उतरने से ( क्खुभिअ ) संचलित ( लुलिअ ) लुलित ( चल ) चंचल ऐसे ( कुंडल ) कानके आभूषण ( अंगय ) बाहुभूषण ( किरीड) मुकुटों से ( सोहंत ) शोभायमान हैं ( मउलिमाला ) शिरःपंक्ति जिन्होंकी । ( भावार्थ ) श्रेष्ट विमान सुन्दर सोनेकेरथ और घोडे इत्यादि वाहनों से शीघ्रही आये हुए और जलदी आकाश से उतरनेसे चलायमान लुलित और चंचल ऐसे कुण्डल बाहुभूषण और मुकुटों से शोभायमान हैं शिरः पंक्ति जिन्होंकी | ( रत्नमालाच्छंदः ) रयणमाला जं सुरसंघा सासुरसंघा वेरविउत्ता भत्तिसुजुत्ता आयरभूसिअसं भ्रमपिंडिअ सुरुसुविम्हि सव्वबलोघा । उत्तमकंचणरयणपरूविअभासुरभूषण भा सुरिअंगा गायसमोणय भत्तिवसागय पंजलिये सिअसीसपणामा || २३ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ ( छाया ) वैर वियुक्ताः भक्तिसुयुक्ताः आदरभूषितसंभ्रमपिंडित सुष्टुसुविस्मितसर्वबलौघाः उत्तमकांचनरत्नप्ररूपितभास्वरभूषण भास्वरिताङ्गाः गात्रसमवनतभक्तिक्शंगतप्रांजलिप्रेषितशिरः प्रणामाः एतादृशाः सासुरसंघाः सुरसंघाः यं प्रति । ३७ ( पदार्थ ) ( बेर विउत्ता ) शत्रुता से रहित ( भत्तिसुजुत्ता ) सद्भक्तिसहित ( आयर ) बाह्योपचारसे (भूसिअ ) भूषित ( संभम) सत्वर ( पिंडिअ ) मिलेहुए (सर) अत्यर्थ ( सुविम्हिअ ) आश्चर्ययुक्त है ( सव्वबलोघा ) सम्पूर्ण वाहनादि समुदाय जिन्होंका, (उत्तम) देदीप्यमान ( कंचण ) सुवर्ण और ( रयण ) रत्नोंसे ( परूविअ ) कियेहुए ( भासुर ) प्रकाशमान (भूसण ) अलंकारों से ( भासुरि ) सुशोभित हैं ( अंगा ) अंग जिन्होंके ( गाय ) गात्रसे ( समोणय ) सम्यक् नमेहुए और ( भत्ति ) भक्तिके ( वसामय ) वशीभूत ( पंजलि ) ललाटपर स्थापित किए हुए मुकुलाकृति हस्तयुगलद्वारा ( पेसिअ ) किया है ( सीसपणामा ) मस्तकसे प्रणाम Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ भजितशान्ति स्तवनम् ॥ जिन्होंने, ऐसे ( सासुरसंघाः ) असुर देवताओंके संघ के साथ ( सुरसंघा ) सुर देवताओंके संघ । (भावार्थ) वैरभावसे रहित, भक्तिपूर्वक बाह्योपचारसे भाषित सत्वर मिलेहुए अत्यन्त आश्चर्ययुक्त हैं सैन्यसमुदाय जिन्होंके, उत्तम सुवर्णमय और रत्नजटित देदीप्यमान अलंकारों से सुशोभित हैं अंग जिन्होंके, शरीरसे भली भांति झुके हुए अत्यन्त प्रेमके वशीभूत होकर हाथजोड किया है प्रणाम जिन्होंने ऐसे असुर देवता और सुर देवताओं का संघ । (क्षिप्तकच्छंदः) ॥ खित्तिअं॥ वंदिऊण थोऊण तो जिणं तिगुणमेव य पुणो पयाहिणं । पणमिऊण य जिणं सुरासुरा पमुइआ सभवणाई तो गया ॥ २४॥ (छाया) (ते ) सुरासुरा जिनं वंदित्वा च ( वाग्भिः ) स्तुत्वा ततः त्रिगुणं प्रदक्षिणं ( कृत्वा ) ( स्वस्थानगमनावसरे ) पुनरपि (तं) जिनं प्रणम्य प्रसुदिताः सन्तः ततः स्वभवनानि गताः। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ ( पदार्थ ) ( सुरासुरा) सुर और असुर देवता ( जिणं ) जिनभगवानको ( दिऊण ) चन्दन कर ( थोऊण ) वाणी से स्तुति कर (तो) अनंतर ( तिगुणमेव ) तीनही ( पयाहिणं ) प्रदक्षिणा (कर) (य) और ( पुणो ) फिर ( जिणं) जिन भगवान को ( पणमिऊण) प्रणामकर ( पमुइआ ) अत्यन्त हर्षित होकर ( तो ) अनंतर ( सभवणाई ) स्वभवनको ( गया ) गए । ( भावार्थ ) सुर और असुर देवता जिन भगवान को वंदन कर और वाणी से स्तुति कर अनंतर तीन प्रदक्षिणा कर अपने अपने घर जानेके समय फिर भगवानको प्रजाप कर अत्यन्त हर्षित हो अपने अपने घर गए । (क्षिप्तकंछंदः ) ॥ खित्तयं ॥ ३९ रागदेस भयमोह तं महामुणिमपिपंजली वजिअं । देवदाणव नरिंदवंदिअं संति मुत्तम महातवं नमे ।। २५ ।। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अजितशान्ति स्तवनम् 11 ( छाया ) रागद्वेष भय मोहवर्जितं देवदानवनरेन्द्रवन्दितं उत्तम महा तपसं तं महामुनिं शान्तिनाथं अहमपि प्रांजलि: सन् नमे । ( पदार्थ ) (राग) प्रीति (देस) द्वेष (भय) डर ( मोह ) अज्ञान इन्होंसे ( वज्जिअं) रहित (देव) देवता (दानव) और दानव (नरिंद) राजाओं से (दि) नमस्कृत अथवा (देवदानवनरिंद) ऊर्ध्वलोकवासी अधोलोकवासी मध्यलोकवासी जीवों के (दि) कारागृह को नाश करनेवाले ( उत्तममहातः) उत्तम और दीघ्र तपश्चर्यावाले ( महामुणि) महामुनि ( संतिं ) शान्तिनाथ स्वामी को ( अहंपि ) मैं भी ( पंजली ) हाथ जोडकर ( नमे ) नमस्कार करता हूं । ( भावार्थ ) रागद्वेषभय और मोहसे रहित, देवदानव और राजाओं ने नमस्कार किया है जिनको अथवा तीनों लोक के जीवोंके संसाररूप कारागृह को तोडनेवाले, श्रेष्ठ तथा दीर्घ तपोबलधारी महामुनि शान्तिनाथ स्वामी को मैं भी हाथ जोडकर नमस्कार करताहूं । । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ ___४१ (चतुर्भिकलापकं) (दीपकंछंदः) ॥ दीवयं ॥ अंबरंतर विआरणिआहिं ललिअहंसबहुगामिणिआहिं। पीणसोणथणसालणिआहिं सकलकमलदललोआणिआहि ॥ २६ ॥ . (छाया) . अंबरंतरविहारिणीभिः ललितहंसवधुगानिनीभिः पीन श्रोणिस्तनशालिनीभिः सकलकमलदललोचनाभिः । - ( पदार्थ) ( अंबरंतर ) आकाशमार्गमें ( विआणिआहिं ) संचार करने वाली ( ललिअ) सुन्दर (हंसवहू) हंस पक्षी की स्त्री के समान ( गामिणिआर्हि ) गमन करने वाली ( पीग ) पुष्ट ( सोण ) नितंब और ( थण ) स्तनों से ( सालणिआहि ) शोभायमान (सकल ) संपूर्ण (कमलदल) कमलपत्रके समान हैं (लोआणिआर्हि) नेत्र जिन्होंके। . (भावार्थ) आकाश मार्ग में संचार करनेवाली, सन्दर हंस पक्षी Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ की स्त्री के समान गमन करनेवाली, मांसल नितंब और स्तनों से शोभायमान, सम्पूर्ण कमलपत्र के समान हैं नेत्र जिन्होंके ऐसी। (चित्राक्षराछंदः) चित्तक्खरा ॥ पीणनिरंतरथणभरविणमिअगायलयाहिं । मणि कंचणपसिढिलमेहलसोहिअसोणितडाहिं ॥ वरखिखिणिनेउरसात्तलयवलयाविभूसाणआहिं रइकरचउरमणोहरसुंदरदंसाणिआहि ॥ २७ ॥ (छाया) पीननिरंतरस्तनभरविनमितगात्रलताभिः . मणिकांचन प्रशिथिलभेखलशोभितश्रोणीतटाभिः . वरकिंकिणीनूपुर सत्तिलकवलयविभूषणाभिः रातकरचतुरमनोहरसुंदर दर्शनाभि । (पदार्थ) (पीण ) मांसल (निरंतर ) अन्तररहित (थण ) स्तनोंके (भर) भारसे (विणमिअ) नमूह (गायलयाहिं) गात्रलता जिन्होंकी ( माण) हीरेमाणिक और (कंचण) सोनेके ( पसिढिल ) प्रशिथिल ( मेहल ) मेखलाओंसे Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशाति स्तवनम् ॥ (सोहिअ) सुशोभित हैं ( सोगितडाहिं ) नितंबतट जिन्होंके ( वर ) श्रेष्ट (खिखिणि ) पायोके घूघरे और ( नेउर ) नूपुर ( सत्तिलय ) सुन्दर तिलक ( वलय) कंकण इत्यादि हैं (विभूसजिआहिं ) आभूषण जिन्होंके ( रइकर ) प्रीति उत्पन्नकरनेवाले ( चउर ) चतुरों के ( मणोहर ) मनको आकर्षण करनेवाले ( सुंदर ) रमणीय हैं ( दसणिआहिं ) दर्शन जिन्होंके । . (भावार्थ) · मांसल अन्तररहित स्तनोंके भारसे नम्र हैं गात्रलता जिन्होंकी हीरे माणिक और सोनेके प्रशिथिल मेखलाओं से सुशोभित हैं नितंबतट जिन्होंके. सुन्दर पावोंके घूबरे, नूपुर, उत्तमतिलक और कंकण इत्यादि आभूषण हैं जिन्होंके. प्रीति उत्पन्न करनेवाले, चतुर पुरुषों के अन्तःकरण को आकर्षण करनेाले और अत्यन्तरमणीय हैं दर्शन जिन्होंके। (नाराचकछंदः) . ॥ नारायओ॥ देवसुंदरी हिं पायवांदआर्हि वदिआ य जस्स ते सुविकमाकमा अप्पणो निडालएहि मंडणोदुणप C Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ गारएहि केहि केहि वि अवंगतिलय पत्तलेहनाम एहिं चिल्लएहिं संगयं गयाहिं मतिसंनिविठ्ठवंदणा गयाहिं हुंति ते वंदिआ पुणो पुणो ॥ २८ ॥ ( छाया ) ४४ कैः कैरप्यपांगतिलकपत्रलेखनामभिः चिलगः मण्डनो दुणप्रकारकैः संगताकाभिः पादन्दाभिः देवसुदरीभिः यस्य तौ सुविक्रम क्रमौ वन्दितौ च भक्तिसन्निविष्टबन्द1. नागताभिः ( देवसुन्दरीभिः ) आत्मनः ललाटकैः तौ क्रम पुनः पुनर्वन्दितौ भवतः ( चिलगैः चित्तं लगन्तीति चिल्लाः तैः चिह्नगैः अतिरम्यैरित्यर्थः ) । ( पदार्थ ) ( केहि केहि ) वे अपूर्व (वि) भी ( अवंग ) नेत्रों में काजलकी रचना ( तिलय ) तिलक (पत्तलेह) कस्तूरी की स्तनोंपर विशेष रचना इत्यादि ( नाम एहिं ) नाम हैं जिन्होंके ( चिल्लरहिं ) अतिरम्य ( मण्डण ) आभूषणोंकी ( उदुण ) रचनाओं के ( पगारएहिं ) प्रकार से ( संगयं) युक्त हैं (अंगाहिं ) शरीर जिन्हों का ऐसी ( पाय ) शरीर के अथवा आभूषणोंके किरणो के (आ) समुदाय है जिन्होंपर एसी (देसुंदरी हि ) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ १५ देवांगनाओंसे (जस्स) जिनभगवानके (ते) वे प्रसिद्ध ( सुविक्कमा ) अत्यन्त पराक्रमशाली (कमा ) चरण ( वन्दिआ ) वन्दना कियेगए ( य ) और ( भत्ति ) अत्यन्त प्रेमसे ( संनिविठ्ठ ) व्याप्त ( वंदण ) नमस्कार के हेतु ( आगयाहिं ) आई हुई देवांगनाओं से ( अप्पणो ) अपने ( निडालएहिं ) प्रशस्त ललाटोंसे ( ते ) वे चरण ( पुणो पुणो ) बारबार ( वन्दिआ ) वन्दित ( हुन्ति ) होतेहैं। (भावार्थ) अपूर्व अपांग तिलक और पत्रलेख इत्यादि नामों से विख्यातरचनाओंसे और आभूषणोंकी रचनाओंके प्रकार से भषित हैं शरीर जिन्होंके और आभूषणोंके किरणोंसे मण्डित ऐसी देवाङनाओंने जिनभगवानके प्रराक्रम शाली चरणोंको वन्दन किया और अत्यन्त प्रेमसे प्रपूरित नमस्कारके हेतु फिर आईहुई देवांगनाओंने उन चरणों को बारबार नमस्कार किया। __ (नंदितकंछंदः) - नंदिअयम् ॥ तमहं जिणचंदं आजिअं जिअमोहं धुयसब किलेसं पयओ पणमामि ॥ २९ ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (छाया) जिनचन्द्र जितमोहं धुतसर्वक्लेशं तं अजितं प्रयतः अहं प्रणमामि । ४-६ ( पदार्थ ) ( जिणचंद ) सामान्य केवलियों में चांदके समान ( जिय मोहं ) जीत लिये हैं सांसारिकमोह जिनने (धुय) घोडाले हैं ( सव्व ) सम्पूर्ण ( किलेसं ) क्लेश जिनने ऐसे ( तं ) वे प्रसिद्ध ( अजिअ ) अजितनाथ स्वामी को ( पयओ) पवित्र होकर (अहं) मैं ( पणमानि ) नमस्कार करता हूं | ( भावार्थ ) सामान्य केवलियों में चांदके समान जीत लिये. सांसारिक मोह जिनने घोडाले हैं सम्पूर्ण क्लेश जिनने ऐसे वे प्रसिद्ध अजितनाथ स्वामीको मैं पवित्र होकर नमस्कार करता हूं । ( भासुरकंछंदः ) युगलं थुयवंदिअस्सा रिसिगणदेवगणेहिं तो देववहृहिं पयओ पण मिअस्सा | जस्स जगुत्तमसासणयस्सा भविस गया पीडियाहिं देववरच्छरसा बहुयाहिं सुखरts गुणपण्डियाहिं ॥ ३० ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्ववनम् ॥ ( छाया ) भक्तिवशागतपिंडितकाभिः देववराप्सरो बहुकाभिः सुरवर रतिगुणपण्डितकाभिः देववधूभिः प्रयतं वा पदयोः प्रणतकस्य जास्यजगदुतमशासनस्य तौ ( ' क्रमौ ) ऋषिगणदेवगणैः स्तुतवन्दितौ । ४० ( पदार्थ ) ( भक्तिसागय ) भक्तिवशहोकर देवलोकसे आकर ( पिंडिअयाहिं ) मिलीहुईं ( देववर ) नृत्यकला श्रेष्ट देव और ( अच्छरसा ) अपसराओंका ( बहुयाहिं ) समुदायों से ( सुखर ) श्रेष्ट देवताओंकी ( रइ ) प्रीति के उत्पादक ( गुण ) गुणोंमें ( पंडिआहिं ) निपुण ( देवहूहिं ) देवांगनाओंसे ( पयओ) सम्यक् अथवा ( चरणोंमें ) ( पणमिअस्सा ) नमस्कृत ऐसे (जस्स) मोक्षके हेतु ( जग्) जगतमें ( उत्तम ) श्रेष्ट है ( सासणयस्सा ) शासन जिनका ऐसे ( अस्सा ) जिन भगवान के (तो) वे प्रसिद्ध चरण ( रिसिगण ) ऋषिगणों से और ( देवगणेहिं ) देवगणों से ( य ) स्तुति किये गए और ( वंदि ) वंदना किये गए । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् । ( भावार्थ ) गान और वादनकला में निपुण, देवोंके साथ भाक्तचश होकर देवलोक से आकर मिलीहुई अप्सराओंसे, और श्रेष्ट देवताओंकी प्रीतिको बढ़ानेवाले गुणोंमें पण्डित, ऐसी देवाङ्गनाओंसे सम्यक् नमस्कृत और मोक्षसुखके हेतु जगतमें श्रेष्टहै शासन जिनका. ऐसे जिनभगवानके चरण ऋषि और देवगणोंसे वंदन कियेगए और स्तुति कियेगए। (नाराचकछंदः) ॥ नारायउ॥ वंससद्द तंतितालमेलिए तिउक्खराभिरामसद्दमीसए कएअ सुइसमाणणेअ सुद्धसजगीअपायजालघंटिआहिं । वलयमेहलाकलावनेउराभिराम सहमीसए कए अ देवनट्टिआहिं हावभावविन्भमपगारएहि॥नचिऊण अंगहारपहिं वंदिआ य जस्स ते सुविकमा कमा त यं तिलोय सव्व सत्त संतिकारयं । पसंतसवपावदोष मेसहं नमामि संत्ति मुत्तमं जिणं ॥ ३१ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ . (छाया) . वंशशब्दतंत्रीतालमिलिते त्रिपुष्कराभिरामशब्दमिश्रके कृते च श्रुतिसमानने कृते शुद्धषट्जगीतपादजालघंटिकाभिः उपलक्षिते वलयमेखलाकलापनूपुराभिरामशब्दमिश्रके कृते (सति) हावभावविभमप्रकारकैः अङहारैः नर्तित्वा देवनर्तकीभिः यस्य तौ सुविक्रमौक्रमौ वन्दिती तं त्रिलोकसर्वशान्तिकारकं प्रशान्तसर्वपापदोष उत्तम जिनं शान्तिनामानं एष अहं नमामि । (पदार्थ) (वंस सद्द ) बांसुरी की ध्वनि (तंति ) वीणा और ( ताल ) तालसे (मेलिए) मिलेहुए (तिउक्खर ) आतोद्यवाद्य, दुर्दुरट, और मुरज इन्होंके । मुखके (अभिराम ) मधुर ( सद्द ) शब्द से (नीसए) मिश्रित (कए ) कियेसते (अ) और ( सुई) संगीत शास्त्रोक्त श्रुतियोंका ( समाणणे ) समीकरण कियेसते ( अ ) और ( सुद्ध ) शुद्ध ( सज्ज) षड्जस्वरसे ( गीअ) गीतकेसाथ ( पायजालघंटिआहिं ) पावोंमें किंकिणियाओंसे उपलक्षित और ( वलय ) कंकण ( मेहला ) कंदोरा ( कलाव ) भूषण, और ( नेउर ) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अनितशान्ति स्तबवम् । भूपुर इन्होंके ( अभिराम ) मनोहर ( सह) शब्दोंसे (मीसए ) मिश्रित ( कए ) कियेसते (अ) और ( हाव ) बहुतकाम विकार (भाव) थोडा विकाराभिप्राय ( विभम ) विलास ये हैं ( पगारएहिं ) प्रकार जिसमें ऐसे ( अंगहारएहिं ) अंगविक्षेपोंसे (नच्चिऊण) नाचकर ( देवनडिआहिं) देवताओं के सामने नाचनेवाली देवांगनाओंसे ( जस्स ) जिनभगवानके ( सुविक्कमा ) अत्यन्त पराक्रमशाली (ते) वे प्रसिद्ध (कमा).चरण (वंदिआ) वन्दन कियेगए ( तयं ) वे प्रसिद्ध (तिलोव) तीनों लोकों (सन्च ) सम्पूर्ण ( सत्त ) जीवोंको ( संतिकारयं ) विघ्नोपशम करनेवाले ( पसंत ) नष्ट होगये हैं ( सव्व ) सब (पाव ) पापरूप ( दोस) दोष जिनके ( उत्तमं ) श्रेष्ट (जिणं) जिनभगवान ( संति) शान्तिनाथस्वामी को ( एस ) यह ( अहं) मैं ( नमामि ) नमस्कार करताहूं। (भावार्थ) . बंसी सतार और तालसे मिलेहुए और आतोदवाद्य दुर्दुरट और मुरज इन्हों की मधुर ध्वनिसे मिश्रित संगीत शास्त्रोक्त श्रुतियोंका समकिरण कियेसते शुद्ध Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 अजितशान्ति स्तवनम् ॥ ५१ षट्जस्वर से गीतके साथ पावोंकी किंकिणियोंके शब्दसे मिलेहुए कंकण नूपुर आदि आभूषणों के मधुर शब्दसे मिश्रित हावभावकटाक्षादिपूर्वक अंगविक्षेपोंसे युक्त नृत्यकर देवनर्तकिओंने अत्यन्त पराक्रमशाली जिन भगवान के चरणकमलों को नमस्कार किया वे प्रसिद्ध तीनों लोकमें जीवोंके विघ्नोंको नाशकरनेवाले पाप दोषसे रहित ऐसे श्रेष्ट जिनभगवान शान्तिनाथ स्वामीको मैं भी नमस्कार करता हूं । ( ललितकंछंदः ) ललिअयम् ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ छत्रचामरपड़ागजूवजवमंडिआ ज्झयवरमगर तुरय सिखिच्छसुलंछणा । दीवसमुद्दमंदरदिसागयसोहिया सत्थिअवसहसी ह सिखिच्छसु लंछणा ॥ ३२ ॥ ( छाया ) छत्रचामरपताकायूषयवमण्डिताः ध्वजवरमकरतुरग श्रीवत्स सुलाञ्छनाः द्वीपसमुद्रमन्दर — दिग्गजशोभिताः स्वस्तिकवृषभ सिंह श्रीवृक्षसुलाञ्छनाः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ ( पदार्थ ) ( छत्र ) छत्र ( चामर ) चामर ( पड़ाग ) पताका (जूव ) स्तंभ ( जव ) यव इत्यादि चिन्होंसे (मंडिआ ) शोभित ( ज्झयवर ) श्रेष्टध्वज ( मगर ) मकर (तुरय) अश्व ( सिविच्छ ) श्रीवत्स इत्यादि है ( सुलंछना ) सुलांछन जिन्होंमें ( दीव ) द्वीप ( समुह ) समुद्र ( मंदर ) सुमेरुपर्वत ( दिसागय ) दिग्गज इन्होंसे ( सोहिआ ) शोभित ( सत्थिअ ) स्वस्तिक ( सह ) वृषभ (सीह ) सिंह (सिरि ) लक्ष्मी (वच्छ ) वृक्ष इत्यादि ( सुलंछणा ) लक्षण हैं जिन्होंमें । ( भावार्थ ) ५२ छत्र चामर पताका स्तंभ यव श्रेष्टध्वज मकर अश्व श्रीवत्स द्वीप समुद्र सुमेरुपर्वत दिग्गज स्वस्तिक वृषभ सिंह लक्ष्मी वृक्ष इत्यादि चिन्हों से सुशोभित । ( वानवासिकछंदः ) ॥ वाणवासिआ ॥ सहावलट्ठा समपट्ठा अदोसदुट्टा गुणेहिं जिट्ठा । पसाय सिट्टा तवेण पुट्ठा सिरीहिं इट्ठा रिसीहिं जुट्ठा ॥ ३३ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम ॥ ____५३ (छाया) स्वभावलष्टाः शमप्रतिष्टाः अदोषदुष्टाः गुणैः जेष्टाः प्रसादश्रेष्टाः तपसा पुष्टाः श्रिया इष्टाः ऋषिभिः जुष्टाः । (पदार्थ) ( सहाव ) स्वभाव से ( लट्ठा ) शोभायमान (सम) शान्तिसे (पठ्ठा) युक्त अथवा (असमप्रतिष्टाः निरूपम है स्व्याति जिन्होंकी ) ( अदोसदुहा) वैषभ्यरागादिकों से विकाररहित ( गुणेहिं ) सद्गुणोंसे ( जिट्ठा ) बड़े ( पसाय ) निर्मलतासे (सिट्ठा ) श्रेष्ट ( तवेण ) तपोबलसे ( पुट्ठा ) पुष्ट (सिरीहिं ) लक्ष्मीसे (इट्ठा) पूजित ( रिसीहिं ) ऋषियोंसे ( जुट्ठा ) सेव्यमान । (भावार्थ) स्वभावसे शोभायमान शान्तियुक्त वैषम्य रागादिकोंसे विकाररहित सद्गुणोंसे युक्त निर्भलतासे श्रेष्ट तपश्चर्यासे पुष्ट लक्ष्मीसेपूजित ऋषियोंसे सेव्यमान । (अपरांतिकाछंदः) ॥अपरांतिया ॥ ते तवेण धुयसपावया सवलोआहिअमूल पावया । संयुया आजिअसंतिपयया हुंतु मे सिवसुहाणदायया ॥ ३४॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ अजिसशान्ति स्तवनम् ॥ (छाया) तपसा धुतसर्वपापकाः सर्वलोकहितमलप्रापकाः ते अजितशान्तिपादाः संस्तुताः ( सन्तः ) मे शिवसुखानां दायकाः भवन्तु ( संस्तुताः शंसुखहेतुस्तुतं येषां )। (पदार्थ) ( तवेण ) तपश्चर्यासे (धुय) नष्ट होगए हैं (सव्व) सम्पूर्ण ( पावया ) पातक जिन्होंके ( सर्व ) सम्पूर्ण (लोअ) लोकके ( हिअ ) मोक्षाव्यहितके ( मूल ) ज्ञानदर्शन चरित्ररूप मूलको ( पावया ) प्राप्तकराने वाले ( ते ) पूर्वोक्त ( अजिअ ) अजितनाथ स्वामी के और ( संति ) शान्तिनाथ स्वामी के (पायया) चरण ( संस्तुताः ) सम्यक् वर्णन कियेसते ( संस्तुता) सुख हेतुक स्तवनहै जिन्होंका (मे) मुझे (सिव) मोक्षरूप (सुहाण) सुखके (दायया ) देनेवाले (हंतु ) होओ। __(भावार्थ) तपोबलसे प्रनष्टहोगए हैं सम्पूर्ण पातक जिन्होंके सम्पूर्ण लोकके मोक्षास्यहितके ज्ञानदर्शन चारित्ररूप मूलको प्राप्तकरानेवाले. सुखहेतुक स्तवनहै जिन्होंका ऐसे. अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीके चरण मुझे मोक्षरूप सुख देनेवाले होओ। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ . (गाथा छंदः) ॥गाहा ॥ एवं तवबलविउलं थुअंमए अजिअसंति जिण जुयलं ववगयकम्मरयमलं गई गयं सासयां विमलां ॥ ३५॥ (छाया) तपोबल विपुलं व्यपगतकर्मरजोमलं शाश्वती विमलां गतिं गतं ( एतादृशं ) अजितशान्तिजिनयुगलं मया एवं स्तुतम् । . (पदार्थ ) ( तवबल ) तपोबलसे ( विउलं ) विशाल (ववगय) नष्टहोगयाहै ( कम्म ) ज्ञानावरणादि आठ कर्म और (स्यमलं ) बध्यमान कर्मोंकामल जिन्होंका (सासयां) आद्यन्तरहित ( विमलां ) कर्ममलसे रहित (गई ) 'मोक्षरूप गतिको ( गयं) पहुंचेहुए एसे ( अजिअसंति जिणजुयलं) दोनो जिनभगवान अजितनाथ और शान्तिनाथस्वामी ( मए ) मुझसे ( एवं ) इस प्रकार (थुअं) स्तुति कियेगये। ११ शां• स्तव Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (भावार्थ), तपोबलसे विशाल नष्ट होगया है ज्ञानावरणादि आठ बध्यमान काँका मल जिन्होंका आद्यन्तरहित निर्मल मोक्षास्व्य गतिको पहुंचेहुए ऐसे दोनों अजितनाथ और शान्तिनाथस्वामी की इस प्रकार मैने स्तुति की। - (गाथाछंदः) ॥ गाहा ॥ तं बहुगुणप्पसायं मुक्खसुहेण परमेण अविसायं । नासेउमेविसायं कुणउअपरिसाविअपसायं ॥३६ ।। (छाया) . बहुगुणप्रसादं परमेण मोक्षसुखेन अविषादं एतादृशं तत् जिनयुगलं मे विषादं नाशयतु च परिषदपि प्रसाद करोतु । बहुगुणानां प्रसादो नैर्मल्यं यस्य अथवा बहुगुण प्रसादोऽनुग्रहो यस्य तत् (१) मदुक्तेर्गुणस्वीकरणदूषणाबधीरणलक्षण मनुग्रहं मयि करोतु । ( पदार्थ) (बहुगुण) ज्ञानादि अनेक गुणोंका (प्पसायं) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ ५७. प्रसाद है जिन्होंको ( परमेण ) उत्तम ( मुक्खसुहेण ) मोक्षसुखसे ( अविसायं ) विषादरहित (तं ) पूर्वोक्त जिनयुगल ( मे) मेरे ( विसायं ) खेदको ( नासेउ ) माशकरो ( अ ) और (परिसावि) सभाजननी ( पसायं ) अनुग्रह ( कुणउ ) करो । ( भावार्थ ) ज्ञानादि अनेक गुणोंका प्रसाद है जिन्होंको सर्वोत्तम मोक्षसुख होनेसे खेदरहित ऐसे पूर्वोक्त जिनयुगल मेरे खेदको नाशकरो और इस स्तोत्रको सुननेवाले सभाजन भी मुझपर क्षमारूप अनुग्रह करो । ( गाथाछंदः ) ॥ गाहा ॥ तमो एउअनंदि पावेउनंदिसेणमभिनंदि । परिसाइ विसुहनदि ममयदिसउसंजमेनंदि ॥ ३७ ॥ ( छाया ) तत् ( जिनयुगलं ) ( लोकानां ) नंदि मोदयतु नंदिषेणञ्च अभिनंदि प्रापयतु परिषदोऽपि सुखनंदें दिशतु संयमे ममच नंदि दिशतु । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (पदार्थ) . . (तं ) वह जिनयुगल ( नंदि) हर्ष ( मोएउ) करो (अ) और ( नंदिसेणं ) नंदिषेण कविको (अभिनंदि ) आनंदसमृद्धि ( पावेउ ) प्राप्त कराओ (परिसाइवि ) श्रोतृजनसभाको भी ( सुहनंदि ) सुखसमृद्धि (दिसउ ) देओ (य) और ( मम ) मुझे ( संजमे ) सतरहप्रकारके संयममें ( नंदि ) आनंद (दिलउ ) देओ। (भावार्थ ) वे अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामी सम्पूर्ण जीवों को और नंदिषेण कविको आनंद समद्धि देओ. और श्रोतृजनसभाको भी सुखसमृद्धि देओ और मुझे सतरह प्रकारके संयमोंमें आनंद देओ। (गाथाछंदः) ॥ गाहा ॥ पक्खिअचाउम्मासिअ संवच्छरिए अवस्स भणिअन्वो । सोयव्वो सव्वेहिं उवसग्ग निवारणो एसो ॥ ३८॥ (छाया) पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकेषु अवश्यं भणितव्यः Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भजितशान्ति स्तवनम् ॥ सर्वैः श्रोतव्यः एषः अजिशान्तिस्तवः उपसर्गनिवारणः अस्ति । (पदार्थ) (पक्खिअ ) पूर्णिमाको ( चाउम्मासिअ ) चातुर्मास मैं ( संवच्छरिए ) संवत्सरके प्रतिक्रमणके दिन (अवस्स) अवश्य (भणिअव्वो) पठन करनाचाहिये और (सन्वेहि) सबोंने ( सोयो ) श्रवणकरना चाहिये ( एसो) यह स्तवन ( उक्सग्ग) विश्नोंका (निवारण) नाशकरने वाला है। (भावार्थ) इस सम्पूर्ण विघ्नोंको नाशकरनेवाले अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीक स्तवनको पनमकेदिन चोमासेमें और संवत्सरके प्रतिक्रमणके दिन अवश्य सब श्रावकोंने पठनकरना चाहिये और श्रवणकरना चाहिये । (गाथाछंदः) ॥ गाहा ॥ जो पदइजोअनिसुणइ उभओकालंपि अजिअ. संतिसंथयं । नहु हुंति तस्स रोगा पुवुपन्ना विनासंति ॥ ३९ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (छाया) . यः अजितशान्तिस्तवं उभयकालं पठति निशृणोतिच तस्य हु ( निश्चितं ) रोगाः न भवन्ति पूर्वोत्पन्ना अपि ( रोगाः) नश्यन्ति । (पदार्थ) । (जो) जो मनुष्य ( अजिअसतिसंथयं ) अजित नाथ और शान्तिनाथ स्वामीक स्तवनको (उभओकालं) प्रातःकाल और सायंकाल ( पढइ ) पठनकरताहै (अ) और (निसुणइ ) श्रवणकरता है ( तस्स ) उसे (रोगा ) शारीरिक पीडा (हु) निश्चयसे (न ) नहीं (हुति ) होतीहै ( पुव्वुपन्ना ) पहिले पैदाहुए रोग (पि ) भी ( विनासंति ) नष्ट होतेहैं । .. (भावार्थ ) जो मनुष्य अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीके स्तवनको प्रातःकाल और सायंकाल पठनकरताहै और श्रवणकरताहै उसे शारीरिक पीडा निश्चयसे नहीं होती और इस स्तवनके पठनारंभके पहिले पैदाहुए रोगभी शान्त होजातेहैं। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् i ( गाथाछंदः ) ॥ गाहा ॥ ववगयककिकलुसाणं ववगयनिद्धंत रागदोसाणं । बवगय पुणभवाणं नमोत्थु देवाहिदेवाणं ॥ ४० ॥ ( छाया ) ६१ व्यपगतकलिकलुषेभ्यः व्यपगत पुनर्भवेभ्यः देवाधिदेवेभ्यः नमः अस्तु । ( पदार्थ ) व्यपगत निर्धूतराग दोषेभ्यः ( वय ) नोशहागया है ( कलिकलुसाणं ) कलह संबंधि मनका मालिन्य जिनका ( क्वगयनिद्धंतरागदोसाणं ) नष्ट होगए हैं रागद्वेष जिनके (ववगय ) नाशहोगया है ( पुणभवाणं ) पुनर्जन्म जिनका ऐसे ( देवाहिदेवाणं ) देवाधिदेवतीर्थंकर भगवानको (नमोत्थु ) नमस्कारहोओ । ( भावार्थ ) माशहोगया है कलहसंबंधी मनमालिन्य जिनका नाश होगए हैं रागद्वेष जिनके नाशहोगया है पुनर्जन्म जिनका ऐसे देवाधिदेव तीर्थंकर भगवानको मैं नमस्कार करता हूं । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (गाथाछंदः) ॥ गाहा ॥. सवं पसमइ पावं पुण्णंवदइ नमंसमाणस्स । संपुन्नचंदवयणस्स कित्तणं अजिअसतिस्स ॥४१॥ (छाया) संपूर्णचन्द्रवदनयोः अजितशान्तिनाथयोः कीर्तनं नमस्यमानस्य सर्व पापं प्रशमयति च पुण्यं वर्धयति । (पदार्थ) (संपुन्न) संपूर्ण (चंद) चन्द्रके समान है (वयणस्स) मुख जिन्होंका ऐसे ( अजिअ संतिरस) आजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीका (कित्तणं) कीर्तन (नमं समाणस्स) अजित शान्तिनाथ स्वामीको नमस्कार करने वाले पुरुषके ( सव्वं) सब ( पावं) पाप ( पसमइ ) नाश करता है और (पुण) पुण्यको (वड्ढइ) बढाता है। (भावार्थ) पूर्णचन्द्रके समान मुख है जिन्होंका ऐसे अजितशान्तिनाथ स्वामीका कीर्तन अजितशान्तिनाथ स्वामीको नमस्कार करनेवाले पुरुषके सब पाप नाश करता है और पुण्यको बढ़ाता है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (गाथा छंदः) गाहा जइ इच्छह परमपयं अहवा कित्तिं सुवित्थडां भुवणे ॥ ता तेलुकुद्धरणे जिणवयणे आयरं कुणह ॥ ४२ ॥ - (छाया) यदि परमपदं अथवा भुवने सुविस्तृता कीर्ति इच्छया तदा त्रैलोक्योद्धरणे जिनवचने आदरं कुरुथ । (पदार्थ) (जइ) यदि ( परमपयं ) मोक्षपद ( अहवा) अथवा ( भुवणे ) जगतमें ( सुवित्थडा ) अतिविस्तीर्ण ( कित्तिं ) कीर्ति ( इच्छह ) चहाते हो ( ता ) तो ( तेलुकुद्धरणे ) लोकत्रयको उद्धार करने वाले (जिणवयणे ) जिन वचनमें ( आयरं ) आदर ( कुणह) करो। (भावार्थ) हे भव्य जीवो यदि मोक्षपद की अभिलाषाहो अथवा जगतमें अति विस्तीर्ण कीर्तिकी इच्छा हो तो तीनों लोक को उद्धार करने वाले जिनभगवानके वचनोंमें आदर करो। ११ शां० स्तवः Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (स्तोत्रसमाप्तौ मंगलश्लोकाः) ॥ सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् ॥ ॥ प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम्॥४३॥ ॥ उपसर्गाः क्षयं यान्ति छिद्यन्ते विनवल्लयः॥ मनः प्रसन्नतामेति पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥ ४४ ॥ ॥शिवास्तु सर्वजगतः परहितनिरता भन्वतु भूतगणाः ॥ दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥ ४५ ॥ ॥ स्मरणं यस्य सत्वानां तीव्रतापोपशांतये ॥ ॥ उत्कृष्टगुणरूपाय तस्मै श्रीशान्तये नमः ॥४३॥ इति श्रीनंदिषेणसूरिविरचितमजितशान्तिस्तवनमिन्दुरजैनश्वेताम्बर . पाठशालामुख्याध्यापकचोबेकुलोन्दव श्रीगोपीनाथ. सूनुपण्डितश्रीकृष्णशर्मकृतसुबोधिनी व्याख्योपेतं समाप्तम् ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः ।। अथ जिनवल्लभसूरिकृत “ उल्लासिक ” स्तोत्रं प्रारभ्यते. - श्रीमहावीरायनमः ॥ ॥ गाथा ॥ — उल्लासिकमनक्खनिग्गयपहादण्ड छलेणंगिणं ॥ वन्दारूणदिसन्तइव्वपयनिव्वाणमग्णावलिम् ॥ कुन्दिन्दुजलदंतकान्तिमिसउ नीहन्तनाणंकुरू ।। केरे दोवि दुइज सोलस जिणे त्योस्सामि खेमंकरे ॥१॥ (छाया) उल्लासिक्रमनखनिगत भादण्डच्छलेन वन्दारूणामङ्गिनां निर्वाणमार्गावलिं प्रकटं दिशन्ताविव कुन्देन्दू ज्वलदन्त कान्तिमिषतो निर्यज्ज्ञानांकुरोत्करौ क्षेमङ्करौद्रावपि द्वितीयषोडशजिनौ ( अजितशान्तिनामानौ ) ( अहं ) स्तौमि, Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक्क स्तोत्रम् || ( पदार्थ ) ( उल्लास ) देदीप्यमान ( क्रम ) पार्श्वोके ( नक्ख ) नखोंसे ( निग्गय ) निकली हुई ( पहा ) कान्ति यह ही मानो एक ( दण्ड ) लकड़ी उसके ( छलेण ) मिषसे ( वन्दारुण ) नमस्कारकरनेवाले ( अङ्गिणं ) प्राणियोंको ( निव्वाण ) मोक्षके ( मग्ग) मार्गकी ( आवाले ) श्रेणीको ( पयडं ) स्पष्टतासे ( दिसन्तौ ) दिखलानेवालेके ( इव्वं ) समान (कुन्द) कुन्दके पुष्प और (इन्दु ) चन्द्रमाके समान ( उज्जल ) स्वच्छ ( दन्त ) दांतोंकी ( कान्ति ) प्रभाके ( मिसउ ) मिषसे (नीहन्त ) निकला है ( नाण) ज्ञानके (अंकुर ) अंकुरोंका ( उकेरे) समुदाय जिन्होंसे ( खेमङ्करे ) सुखकरनेवाले ( दोवि) दोनों को भी ( दुइज्ज ) दूसरे और ( सोलस ) सोलमें अजित और शान्तिनाथ स्वामी को (अहं) मैं जिनवल्लभसुरि (त्थोस्सामि ) स्तुति करता हूं. ( भावार्थ ) दैदीप्यमान पार्वोके नर्खोसे निकली हुईकान्ति यहही मानो एक लकड़ी उसके मिषसे नमस्कारकरनेवाले प्राणियों को मोक्षके मार्ग की श्रेणीको स्पष्टतासे दिखलाने Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् वालेके समान कुन्दपुष्प और चन्द्रमाके समान स्वच्छ दांतोंकी प्रभाके मिषसे निकला है ज्ञानके अंकुरोंका समुदाय जिन्होंसे, सुखकरनेवाले ऐसे दूसरे और सोल हवें अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीकी में जिन वल्लभसूरि स्तुति करता हूं. ॥ गाथा ॥ चरमजलहिनीरं जो मिणिजं जलीहिं || खयसमयसमीरं जो जणिज्झा गईए ॥ सयलनहयलं वा लंघए जो परहिं ॥ अजियमहव संतिं सो समत्थो धुणेउम् ॥२॥ (छाया) चरम जलधिनीरं योऽञ्जलिभिर्मिनुयात् क्षयसमयसमीरं यो गत्या जयेत् सकलनभस्तलं यः पद्भ्यां लंघयेत् स अजितमथवा शान्ति स्तोतुं समर्थः ॥ ( पदार्थ ) ( चरम ) स्वयंभूरमणनामक ( जलहि ) समुद्रके ( नीरं ) जलको ( जो ) जोमनुष्य ( अंजलीहिं ) अंजलियों से (मिणिज्यं ) मापसकता है ( खयसमय ) प्रलयकालके (समीरं ) वायुको ( जो ) जोमनुष्य Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ मईए ) गतिसे ( जणिज्झा ) जीतसकता है ( बा ) अथवा ( सहल ) सकल ( नहयलं ) आकाशतलको ( जो) जोमनुष्य ( पएहिं ) पावोंसे (लंघए) उल्लंघनकरसकताहै (मो ) वह ही ( अजिअं ) अजितनाथस्वामीकी (अहव ) अथवा ( संति ) शान्तिनाथस्वामीकी (थुणेउम् ) स्तुतिकरनेको (समत्थो) समर्थ होताहै. . (भावार्थ ) .. स्वयंभूरमणनामक समुद्रके जलको जो मनुष्य अंजलियोंसे माप सकताहै प्रलयकालके वायुको जो मनुष्य अपनी गतिसे जीतसकताहै अथवा संपूर्ण आकाशतलको जो मनुष्य पावोंसे उल्लंघनकरसताहै वही मनुष्य अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीकी स्तुति करनेको समर्थ होताहै.. ॥ गाथा ॥ तहवि हु बहुमाणुल्लासभत्तिभरेण ॥ गुणकणमवि कित्तेहामि चिन्तामणिव्व ॥ अलमहवअचिंता पंतसामत्थओसिम् ॥ फलहइ लहु सव्वं वंछिअं णिच्छिअं मे ॥३॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ ( छाया ) तथापि बहुमानोल्लास भक्तिभरेण गुणकणमपि चिन्ता मणिमित्र कीर्तयिष्यामि अथवा अलं अनयोः अचिन्त्या नन्तसामर्थ्यतः मे सर्व्वे वाञ्छितं लघु निश्चितं फलिष्यति. -- ( पदार्थ ) ( तहवि ) तोभी ( हु ) प्रकट ( बहुमाण ) अन्तः करणके प्रेमविशेषसे ( उल्लास ) बढ़ी हुई (भत्ति ) प्रीतिके ( व्भरेण ) अतिशय से ( गुणकणमवि ) गुणलेशभी ( चिन्तामणिव्व ) चिन्तामणिके समान ( कित्तेहामि) कीर्तन करूंगा ( अहव ) अथवा (अलं) बस इस बिचारसे ( ओसिं ) इन्होंकी ( अजित और शान्तिनाथस्वामी की ) ( अचिंत ) बिचारमें न आनेवाली ( अनंत ) अन्त न होनेवाली (सामत्थ) शक्तिसे ( मे) मेरे ( सव्वं ) सब ( वांछिअं ) इच्छित ( लहु) शीघ्रही ( णिच्छिनं ) निश्चयपूर्वक ( फलहइ ) फलीभूत होंगे, ( भावार्थ ) तोभी अन्तःकरण के प्रेमविशेषसे बढ़ी हुई भक्ति के अतिशय से भगवानका गुणलेशभी चिन्तामणि के समान Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक सोत्रम् ॥ कीर्तन करूंगा ( जैसे चिन्तामणिकी थोडीभी स्तुति करनेसे बहुत फलमिलताहै वैसेही भगवकीर्तन थोडाभी करनेसे बहुत फलदेनेवाला होताहै ) अथवा इस विचारसे क्या फलहै? इन अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीकी बिचारमें न आनेवाली अनन्तशक्तिसे मेरे सब वांछित शीध्रही निश्चयसे फलीभूत होंगे. ॥ गाथा ॥ सयलजयहियाणं नाममित्तेण जाणं ॥ विहडइ लहु दुठ्ठानिदोघट्टघट्टम् ॥ नमिरसुरकिरीइग्घिठ पायारविन्दे ॥ सययमजिअसंती ते जिणिन्दे भिवन्दे ॥४॥ (छाया) अहं नम्रसुरकिरीटोघृष्टपादारविन्दौ तौ अजितशान्ति नामानौ जिनेन्द्रौ सततं अभिवन्दे सकल जगद्वितयोः ययोः नाममात्रेण दुष्टानिष्टदोघट्टघट्ट लघु विघटते. ___(पदार्थ) ( नमिर ) नम्र ('सुर ) देवताओंके ( किरीड ) मुकुटोंसे ('अग्घिट्ट) उत्तेजितहै ( पायारविन्दे ) चरणकमलजिन्होंके ऐसे (ते ) बे ( अजिअसंती ) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलासिक स्तोत्रम् ॥ अजितनाथ और शान्तिनाथस्वामी ( जिणिन्दे ) जिने - न्द्रभगवानको ( सययं ) निरंतर (अभिवन्दे ) नमस्कार करताहुं (सयल ) सकल ( जय ) जगतके (हिआणं) हितकरनेवाले ( जाणं ) जिन अजितनाथ और शान्तिनाथस्वामीके ( नाममित्तेण ) नाममात्रसें (दुङ) दुःखजनक (अनि ) प्रियवियोगादिअनिष्टरूप ( दोघह) हाथियोंके ( घट्टम् ) समुदाय ( लहु ) शीघ्रही (विहss ) दूर हो जाते हैं, ( भावार्थ ) मैं जो नम्रदेवताओं के मुकुटोंसे उत्तेजित हैं. चरणकमल जिन्होंके ऐसे प्रसिद्ध जिनेन्द्र भगवान अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीको निरंतर नमस्कार करता हूं सकल जगतके हित करनेवाले जिन शान्तिनाथ और श्रजितनाथस्वामी के नाममात्र से दुःखजनक प्रियवियोगादि अनिष्टरूप हाथियोंके समुदाय शीघ्रही दूर होजाते हैं. || गाथा || पसरइ वरकित्ती वड्डए देहदित्ती ॥ विलसइ भुविमित्ती जायए सुप्पवित्ती ॥ फुरइपरमतित्ती होइ संसारछित्ती ॥ जिण अपयभत्ती ही अचिंतो रुसती ॥ ५ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ (छाया) जिनयुगपदभक्तिः ही अचिंत्योरुशक्तिः ( अस्ति ) ( तत्प्रभावातू ) वर कीर्तिः प्रसरति देहदीप्तिः वर्धते भुवि मैत्री विलसति सुप्रवृतिः जायते परमतृप्तिः स्फुरति संसारछितिः भवां. ( पदार्थ ) ( जिणजुअ ) दोनों जिन भगवानके ( प ) चरणोंकी ( भक्ती ) भक्ति ( ही ) अत्यन्त आश्चर्य है कि ( अचिन्त ) बिचार में न आनेवाली ( उरु ) भारी है (सती) प्रभाव जिसका ( उसके प्रभाव से ) ( वर किती) श्रेष्ट यश ( पसरइ ) फैलता है ( देहदित्ती ) शररिका तेज ( बढए ) बढ़ता है ( भुवि ) संसार में ( मित्ती ) मित्रता ( विलसइ) बढ़ती है ( सुप्ववित्ती) अच्छा व्यापार ( जायए) होता है ( परमतित्ती ) अत्यन्तसंतोष (फुरइ ) उल्लसित होता है ( संसार छत्ती ) संसारका उच्छेद ( होइ ) होता है. ( भावार्थ ) अत्यन्त आश्चर्य है कि दोनों जिन भगवान के चरणोंकी भक्ति बिचार में न आनेवाली भारी शक्तिमती Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ है जिसके प्रभावसे श्रेष्टयश फैलता है शरीर का तेज बढ़ता है अच्छा व्यापार होता है अत्यन्त संतोष होता है और संसारका उच्छेद ( भी) होता है.. ॥ गाथा ॥ ललियपयपयारं भूरि दिव्बंगहारम् ॥ फुडगणरसभावोदारसिंगारसारम् ॥ आणिमिसरमणीजहंसणच्छेअभीया ॥ इवपुणपणिमंदा कासि नट्टोवयारम् ॥ ६ ॥ (छाया) यद्दर्शनच्छेदभीता इव प्रणमनमन्दाः अनिमिषरमण्यः ललितपदप्रचारं भूरिदिव्याङ्गहारं स्फुटधनरसभावोदार श्रृंगारसारं नृत्योपहारं अकार्षः - ( पदार्थ) ( जइंसण ) भगवद्दशनके ( च्छेअ) अन्तरायसे (भीया ) डरी हुई ( इव ) ऐसी क्या ? (अणिमिस) देवोंकी ( रमणी) अंगनाएं (पुणमणि ) प्रणाम करनेमें ( मन्दा.) सुस्त ऐसी ( ललिय ) रमणीय हैं ( पयपयारं ) चरणोंकेन्यास जिसमें ( भूरि) बहुतसे (दिब्ध ) सुन्दर हैं ( अंगहारं ) अंगविक्षेप जिसमें Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० उक्लासिक स्तोत्रम् ॥ (फुड ) स्पष्ट और ( गण ) घन जो ( रस ) श्रृंगाररस और ( भाव ) रति इन्होंसे ( उदार ) भरपूर ( सिंगार ) शृंगारसे ( सारं ) प्रधान ( नट्टोवयारं ) नृत्यसे पूजा ( अकासि ) करती हुईं. ( भावार्थ ) भगवद्दर्शनके अन्तरायसे डरी हुई और प्रणाम करने में मन्द ऐसी देवांगनाएं रमणीय हैं चरणन्यास जिसमें बहुत से मनोहर हैं अंगविक्षेप जिसमें स्पष्ट और घन रस और रतिसे भरपूर शृंगारसे प्रधान ऐसे नृत्यद्वारा भगवत्पूजा करती हुई. ॥ गाथा || थुणह ह अजिअसंती ते कयासेससंती ॥ कणयस्यपिसंगा छज्जए जाणि मुत्ती ॥ सरभसपरिरंभारंभिनिव्वाणलच्छी ॥ घणथणघुसिणं कप्पं कपिंगकियव्व ॥ ७ ॥ (छाया) भो भव्याः कृताशेषशान्ती तौ अजितशान्ती स्तुत ययोः राजिता मूर्तिः सरभसपरिरंभाभिनिर्माणलक्ष्मी घन स्तनवसृणाङ्क पङ्कपिंगकृतेव कनकरजःपिशंगा अस्ति. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ (पदार्थ) हे भव्य जीवो ( कया ) की है ( असेस ) सम्पूर्ण जगत्रयों ( संती ) शान्ति जिन्होंने (ते ) ऐसे उन प्रसिद्ध (अजिअसंती) अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीकी ( थुणह) स्तुतिकरो. ( जाणि) जिन्होंकी ( छज्जए ) शोभायमान ( मुत्ती ) मूर्ति ( सरभस ) वेगसहित ( परिरंभारंभ ) आलिंगन का आरंभकरनेवाली ( निव्वाणलच्छी ) मोक्षरूप लक्ष्मीके ( घण) मांसल ( थण ) कुचोंके (घुसिणंक ) कुंकुमके (प्पंक) पंकसे ( पिंगाकयव ) पीली की हुई है क्या ? इस हेतुसे ही ( कणक ) सोनेके ( रय ) रज समान (पिसंगा ) पीली मालुम होती है. | (भावार्थ) हे भव्यजीवो की हे जगत्रयमें शान्ति जिन्होंने ऐसे उन. प्रसिद्ध अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीकी स्तुति करो जिन्होंकी शोभायमानमूर्ति वेगसहित आलिङ्गनका आरंभ करनेवाली मोक्षरूप लक्ष्मीके मांसल कुचोंपर लगेहुए कुंकुमके पंकसे पीली की हुई है क्या ? इस हेतुसे ही सोनेके रज समान पीली मालुम होती है. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ ॥ माथा ॥ बहुविहनयभंग वच्छुणिचं अंणिञ्चम् ॥ सदसदणभिलप्पालप्पमेगं अणेगम् ॥ इय कुनयविरुद्धं सुप्पसिद्धं च जेसिं॥ वयणमवणिज ते जिणे संभरामि ॥ ८॥ (छाया) तौ जिनौ संस्मरामि ययोः बहुविधनयभंग कुनयविरुद्ध सुप्रसिद्ध वचनं अवचनीयमस्ति ( यत्र ) वस्तु नित्यमनित्यं सदसत् अभिलप्यालप्यं एकमनेकञ्च ( प्रतिपाद्यते ) ( पदार्थ) (ते) उन प्रसिद्ध ( जिणे) जिनभगवानका ( संभरामि ) स्मरण करताहं ( जेसिं ) जिन्होंका ( बहु ) बहुत ( विह ) प्रकारके ( नयभंगं) नयभेद हैं जिसमें ( कुनय ) कुत्सितनयोंसे ( विरुद्ध ) भिन्न (सुप्पसिद्ध ) · अत्यन्तप्रसिद्ध (क्यणं) वचन (अवयणिज) अवचनीय है (उसका पूरी तन्हासे वर्णन नहीं किया जासकता ) ( यत्र ) जिसमें (वच्छु ) वस्तु (णिचं ) नित्य (च) और ( अणिचं) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ।। अनित्य ( सद् ) वस्तुअस्तित्व ( असद् ) वस्वभाव ( अभिलप्प ) वर्णनकेयोग्य ( अलप्पं.) न वर्णन के योग्य ( एगं ) एकवचननिर्देश्य (अणेगं) अनेकवचन निर्देश्य प्रतिपादन की जाती है. (भावार्थ) , , उन प्रसिद्ध अजितनाथ और शान्तिनाथ जिन भगवानका स्मरण करताहूं जिन्होंका बहुत प्रकारके नयभेद हैं जिसमें कुत्सितनयोंसे विरुद्ध अत्यन्त प्रसिद्ध वचन अवर्णनीय है जिसवचनमें वस्तु (व्यवहारनयसे) अनित्य और (निश्चय नयसे) नित्य वस्तुसद्भाव और अभाव वस्तुवर्णनीयत्व और अवर्णनीयत्व वरत्वेकवचन निर्देश्यता और अनेकवचननिर्देश्यता भलीभांति प्रतिपादन की जाती है. ॥गाथा ॥ पसरइ तिअलोए ताव मोहंधयारं ॥ . भमइ जय मसण्णं ताव मित्थत्तछण्णम् ॥ फुरइ फुड फलंताणतणाणंसुपूरो ॥ पयड मजियसंतीझाणसूसे न जाव ॥९॥ (छाया) तादत् त्रैलोक्ये मोहान्धकार प्रसरति तावत् असंझं या॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ जगत् मिथ्यात्वच्छन्नं सत् भ्रमति यावत् स्फुटफलदनंत ज्ञानांशुपूरः अजितशान्तिध्यानसूरः प्रकटं न स्फुरति. (पदार्थ) ( ताव ) तबतक (तिअलोए ) तीनों लोकमें ( मोहन्धयारं.) मोहरूपअन्धकार ( पसरइ ) फैलता है ( ताव ) तबतक ( असणं ) धर्म अधर्मादि ज्ञान शून्य ( जयं) जगत् (मित्थत्तछण्णं ) सभ्यक्त्व के आभावसे आच्छादित होकर ( भमइ ) विपरीत प्रवृत्त होता है (जाव ) जबतक ( फुडफलंताणतणाणंसुपूरो) स्पष्ट उल्लासको प्राप्त होनेवाला है अनंतज्ञान यही मानो किरणोंका समुदाय जिसका ऐसा ( अजिय. संतीझाणसूरो ) अजितनाथ और शान्तिनाथस्वामीका शुक्लध्यानरूपसूर्य ( पयर्ड ) कर्मरूपरजके पटलसे न ढंकाहुवा ( न ) नहीं ( फुरइ ) उदय होता. (भावार्थ) जबतक उल्लासको प्राप्त होनेवाला है अनंत ज्ञान यह ही मानों किरणोंका समुदाय जिसका ऐसा अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीका शुक्लध्यानरूपसूर्य कर्मरूपरजके पटलसे न ठेकाहुवा होकर नही उदय Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ १५ होता है तबतक तीनों लोकमें मोहरूप अन्धकार फेलता है और धर्माधर्मादिज्ञानशून्य जगत् सम्यक्त्वके अभावसे आच्छादित होकर विपरीत प्रवृत्त होताहै. ॥ गाथा ॥ अरिकरिहरितिण्हुण्हम्बुचोराहिवाही। समरडमरमारीरुदखुद्दोवसग्गा ॥ पलयमजिअसंतीकित्तणे झत्ति जंती । निबिडतरतमोहा भस्करालंखियब्व ॥ १०॥ (छाया) अरिकरिहरितृष्णोष्णाम्बुचौराधिव्याधिसमरडमरमारी रौद्रक्षुद्रोपसर्गाः अजितशान्तिकीर्तने सति निबिड तरतमौघाः भास्करा लुखिता इव (स्प्टष्टाइव ) झगितिप्रलयं गच्छति. (पदार्थ) ( अरि ) शत्रु ( करि ) हाथी (हरि) सिंह (तिण्ह ) तृषा (उण्ह) आतप (अम्बु) जल, (चोर) तस्कर ( आहि ) मनोव्यथा (वाहि ) शारीरिकपीडा ( समर ) संग्राम ( डमर ) राजकृत उपद्रव ( मारी ) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ उल्हासिक स्तोत्रम् ॥ महामारी ( रुद्दखुद्दोवसग्गा ) भयानक कूराशयवाले व्यंतरादिकृत उपद्रव ( अजिअ ) अजितनाथस्वामी के ( संति ) शान्तिनाथस्वामीके ( कित्तणे ) कीर्तन किये सते (भास्कर) सूर्य से ( लुंखियन्त्र ) स्पर्श किये हुये (निविडतर ) अतिगाढ़ ( तमोहा ) अन्धकार के समूह के समान ( झत्ति ) शीघ्र ही ( पलयं ) नाशको ( जन्ती ) प्राप्त होते हैं. ( भावार्थ ) शत्रु हाथी सिंह तृषा उष्णता जलघात चोर मनोव्यथा शारीरिकपडा संग्राम राजकृत उपद्रव महामारी भयानकक्रूराशयवाले व्यंतरादिकृत उपद्रव ये सब अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामी कीर्तन से सूर्य से स्पर्श किये हुवे अतिगाढ अन्धकारके समृहके समान शीघ्रही नष्ट हो जाते || गाथा || निचिअदुरिअदारुद्दित्तझाणाग्गिजाला । परियमिवगौरं चिंतिअं जाणरूवं ॥ कणयनिहसरेहाकं तिचोरं करिज्झा | चिरथिर महलच्छिं गादसंथेभिअव्व ॥ ११ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उलासिक स्तोत्रम् ॥ (छाया) ययोः निचितदुरितदा रूद्दीत ध्यानाग्निज्वालापरिगतमित्र गौरं कनकनिकष रेखाकान्तिचोरं एतादृशं रूपं चिंतितं ( सत् ) गाढसंस्तंभिताभिव चिरस्थिरां लक्ष्मी कुर्य्यात्. ( पदार्थ ) ( निचिअ ) अनेक जन्मोंमें इकट्ठे किये हुए ( दुरिअ ) दुष्टकर्मरूप ( दारु ) लकडियोंसे (उद्दित्त ) प्रदीप्तकी हुई ( झाण ) ध्यानरूप ( अग्गि ) अग्निकी ( जाला ) ज्वालाओंसे मानों ( परिगयमिव ) व्याप्त किया है क्या ? ऐसा ( गौरं ) उज्वल ( कणयनिहस ) सोनेकी कसोटी परकी ( रेहा ) रेखाकी ( कन्ति ) कान्तिको ( चोरं ) चुरानेवाला ऐसा ( जाण ) अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीका ( रूवं ) रूप (चिंतिअं) चिंतन करने से ( इह ) इस जगत में ( गाढ ) अत्यन्त ( संथभिअन्त्र ) नियंत्रित की हुई के सामान ( चिरथिरं ) निश्चल ऐसी ( लच्छि ) लक्ष्मीको ( करिता ) करता है. ( भावार्थ ) अनेक जन्मोंमें इकट्ठे किये हुए दुष्टकर्मरूप लकडियोंसे प्रज्वलित की हुई ध्यान रूप अग्नि की ज्वालाओंसे Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ उल्लासित स्तोत्रम् । मानो व्याप्त ऐसा क्या ? उज्वल, और कसोटीपर खींची हुई सोनेकी रेखाकी कान्तिको चुरानेवाला ऐसा आजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीका स्वरूप चिन्तन करनेसे इस जगतमें लक्ष्मीको कैद की हुई के समान अत्यन्त निश्चल करता है. (गाथा) अडविनिवडिआणं पत्थिवुत्तासिआणं ! जलहिलहरि हीरताण गुत्तिठियाणम् ॥ जलिअजलणजालालिंगिआणं च झाणं । जणयइ लहु संतिं संतिनाहाजिआणम् ॥१२॥ (छाया) शांतिनाथाजितयो वा॑नं लघु अटविनिपतिताना पार्थिवौत्रासिताना जलधिलहरिहियमाणानां गुप्तिस्थितानां चलितज्वलनज्वालालिंगितानां शान्तिं जनयति. (पदार्थ ) (संतिनाह ) शान्तिनाथ और (अजिआणं) अजितनाथ स्वामीका (झाणं ) ध्यान (लहु ) शीघ्रही ( अडवि) घोर अरण्यमें (निवडिआणं ) छूटे हुवे लोगोंको ( पत्थिव ) राजाओंसे ( उत्तासिआणं ) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्यातिस्तोत्रम् ॥ १९ संत्रस्त किये गए लोगोंको ( जरुरि ) समुहकी ( लहर ) लहरियों में ( हीरताण ) हुदने वाले लोगों को ( गुति) कैदखाने में ( ठियाण ) बन्द किये हुए लोगोंको (जलिअ ) जलती हुई ( जलण) दावानिकी ( जाला ) ज्वालाओंसे ( अलिंग आणं ) आलिंगित किये हुए लोगोंको (सन्ति) शान्ति ( जणयइ ) उत्पन्न करता है. ( भावार्थ ) शान्तिनाथ और अजितनाथ स्वामी का ध्यान घोर अरण्यमें छूटे हुए लोगों को और राजाओंसे संत्रस्त कीये हुए लोगोंको और समुद्री लहरियोंमें डूबते हुए लोगोंको और कैदखाने में बन्द किये हुए लोगोंको और जलती हुई दावा की ज्वालाओं से आलिंगित हुए लोगोंको शीघ्र ही शान्ति उत्पन्न करता || गाथा ॥ हरिकरिपारिकिरणं एकाइकपुष्णं ॥ सयलपुहविरज्जं छड्डअंआणसज्जं ॥ तणमिव पडिलग्गं जे जिणा मुत्तिमग्र्ग ॥ चरणमणुपवण्णा हुंतु ते मे पसण्णा ॥ १३ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - उल्लास्ति स्तोत्रम् ॥ (छाया) यौ जिनौ हरिकरिपरिकीर्ण पक्वपदातिपूर्ण आज्ञासज्जं सकलपृथ्वीराज्यं पटलनं तृणमिव छर्दित्वा मुक्तिमार्ग चरणं अनुप्रपन्नौ तौ जिनौ मे प्रसन्नौ भवताम् (पदार्थ) (हरि ) घोडे और (करि) भद्रादिजातीय हाथियोंसे ( परिकिणं) व्याप्त ( पक) शत्रुओंको रोकने लायक (पाइक) सिपाहीयोसे ( पुणे ) भराहुआ ( आण) राजाकी आज्ञाको ( सज्जं ) पालन करनेवाला ( सयल) सकल ( पुहवि ) पृथ्वीके ( रज्जं ) राज्यको ( पडिलग्गं) कपडेमें लगेहुए ( तणमिव ) तिनके के समान ( छडिअं) छोडकर (मुत्तिमग्गं) मोक्षका मार्ग रूप ( चरणं ) चारित्रका ( अणुपवण्णा ) अंगीकार करनेवाले ऐसे (जे) जो प्रसिद्ध (जिणा) शान्तिनाथ और अजितनाथस्वामी (ते) वे (मे) मुझपर ( पसण्णा ) प्रसन्न ( हुन्तु ) होओ. (भावार्थ) ( बाल्हीकादिदेशोंमें पैदाहोनेवाले) बोडे और भद्रादि जातीयहाथियोंसे परिपूर्ण शूर सिपाहियोंसे भरेहुए Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ राजाज्ञाको भलीभाँति पालनेवाले संपूर्ण पृथ्वीके राज्यको कपडे पर लगे हुए तृणके समान छोडकर मोक्षके मार्ग रूप चारित्रका अंगीकारकरनेवाले प्रसिद्ध जिनभगवान अजितनाथ और शान्तिनाथस्वामी मुझपर प्रसन्न होओ. ॥ गाथा ॥ छणससिवयणाहिं फुल्लनित्तुप्पलाहिं। थणभरन मिरीहिं मुष्ठिगिज्जोदरीहीं॥ ललिअभुअलयाहिं पीणसोणित्थणीहि ॥ सय सुररमणीहिं वंदिआ जेसि पाया॥१॥ (छाया) ययोः पादौ क्षणशशिवदनाभिः फुल्छनेत्रोत्पलाभिः स्तनभरनम्राभिः मुष्टिग्राह्योदरीभिः ललितभुजलताभिः पीनश्रोणिस्थलीभिः सुररमणीभिः सदा वन्दिती . (पदार्थ) (जेसि) जिन अजितनाथ और शान्तिनाथ भगवानके ( पाया ) चरण (छण) पूर्णिमाके ( ससि) चांदके समान हैं ( वयणाहिं ) मुख जिन्होंके (फुल्ल ) सदा फूले हुए हैं ( नित्त ) नेत्ररूपी ( उप्पलाहिं ) कमल Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ उल्लासिक स्तोत्रम् ।। जिन्होंके ( थण ) स्तकने (भर ) भारसे ( नमिरीहिं ) झुकी हुई ( मुठि ) मुट्ठीसे (गिज्जो ) ग्रहण करने लायक ( उदरीहिं ) उदर हैं जिन्होंके ( ललिभ) सुंदर हैं ( भुअलयाहिं ) भुजलता जिन्हों की (पीण) पुष्ट हैं ( सोणिस्थणीहिं ) कटिपश्चाद्भाग जिन्होंके ऐसी (सुररमणीहिं) देवांगनाओंसे (सय) सदैव (वंदिआ) वन्दन कियेगए. (भावार्थ) पूनमके चांदके समान है मुख जिन्होंके सदा प्रफुल्लित हैं नेत्ररूपी कमल जिन्होंके स्तनके भारसे झुकीहुई मुठ्ठीसे ग्रहणकरनेलारक हैं उदर जिन्होके सुन्दर हैं भुजलता जिन्होंकी पुष्ट हैं कटिपश्चादागजिन्होंके ऐसी देवांगनाओंसे जिन अजितनाथ और शान्तिनाथ भगवानके चरण सदा वन्दन किये गए हैं. ॥गाथा ॥ आरिसकिडिभकुछग्गंठिकासाइसार ।। खयजरवणलूआसातसोसोदराणि ॥ नहमुहदसणच्छीकृच्छिकण्णाइरोगे ॥ महं जिमझुअपाया स-पसाया हरन्तु ।। १९ ।। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ उल्हासिक स्तोत्रम् ॥ (छाया) जिनयुगपादाः सप्रसादाः सन्तः मे अर्शकिटिभकुष्टग्रंथिकासातिसारक्षयज्वरव्रणलूतश्वासशोषोदराणिनखमुख दशनाक्षिकुक्षिकर्णादिरोगान् हरन्तु ( पदार्थ ) (जिनसुन ) ( मह ) मेरे ( सप्पसाया ) प्रसन्नतायुक्त ऐसे दोनों जिन भगवान के ( पाया ) चरण ( अरिस ) मस्से ( किडिभ ) पैरका रोग ( कुठ्ठ ) कोडकी बीमारी ( ग्गंठि ) गठिया ( कास ) खांसी का रोग ( अइसार ) दस्तकी बीमारी ( खय ) क्षयरोग ( जर ) बुखार ( वण ) फोडेकी बीमारी (लूआ ) फुनसियोंकी बीमारी ( सास ) दमकी बीमारी ( सोस ) कंठ और तालुशोष ( उदराणि ) पेटकी बीमारियां (नह ) नखकी बीमारी ( मुह ) मुखकी बीमारी ( दसण ) दांतकी बीमारी ( अच्छी ) आंखकी बीमारी ( कुच्छि ) कांखकी बीमारी ( कण्णाइरोगे) कान के रोगादिकों का (हरन्तु ) नाश करो. ( भावार्थ ) प्रसन्नतायुक्त ऐसे दोनों जिऩभगवान के चरण मेरे मस्सों को पैर रोगको कोडको गठिया रोगको खांसी के Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ रोगको दस्तकी बीमारीको क्षयको ज्वरको फोडेकी बीमारीको फुनसियोंकी बीमारीको श्वासरोगको कंठशोष और तालुशोषकी बीमारीयोंको उदररोगको नखरोगको दन्तरोगको चक्षुरोगको काखकी बीमारीको और कानके रोगोंको और इनसे पृथक् भी तमाम बीमारीयोंको दूर करो. ॥गाथा ॥ इष गुरुदुहतासे पख्खिए चाउमासे ॥ जिणवरदुगथुत्तं वच्छरे वा पवित्तं ॥ पढह सुणह सज्झाएह झाएह चित्ते ॥ कुणह मुणह विग्धं जेण घाएह सिग्वं ॥१६॥ (छाया) भो भव्याः यूयम् इदं पवित्रं जिनवरद्विकस्तोत्रं गुरुदुःखत्रासे पाक्षिके चातुर्मासे वा वत्सरे पठत शृणुत स्वाध्यायत ध्यायत चित्तेकुरुत मन्यत येन विघ्नं शीघ्रं घातयत (पदार्थ) हे भव्यजीवो तुम ( इय ) इस ( पवित्तं ) पवित्र (जिगवरदुग) दोनों जिन भगवानके ( थुत्तं ) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ _ २५ स्तोत्रको (गुरु ) बडेभारी ( दुह ) दुःखोंको (तासे) डरानेवाले ( पख्खिए ) पाक्षिकपर्वमें (चाउमासे) चातुर्मास पर्वमें ( वा ) अथवा ( बच्छरे ) पर्युषणपर्वमें ( पठह ) पठनकरो ( सुणह ) श्रवण करो (सिज्झाएह ) विकथा त्यागकर गुणनकरो ( झएह ) ध्यानकरो (चित्ते ) मनमें ( कुणह ) पदपदार्थादि चिन्तन करो ( मुणह ) सूत्रार्थसे जानों ( जेण ) जिससे (विग्धं ) विघ्नका ( सिग्धं ) सत्वर (घाएह ) नाशकलो. (भावार्य) हे भव्यजीवो तुम इस पवित्र अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीके स्तोत्रको अनेकजन्मार्जित कर्मजनित भारी दुःखों को डरानेवाले पाक्षिकपर्वमें चातुर्मासपर्वमें अथवा पर्युषण पर्वमें पठनकरो श्रवणकरो विकथा छोड़ गुणनकरो ध्यानकरो मनमें पदपदार्थादि चिन्तनकरो सूत्रार्थसे जानो जिससे सब विघ्नोंका शीघही नाश होवे. • ॥ गाथा ॥ इय विजयाजियसत्तुपुत्तसिरिअजिअजिणेसर ॥ तह अइराविससेणतणय पंचमचक्कीसर ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ तित्थंकर सोलसम सन्तिजिणवलहसंतह ।। कुरु मंगल मम हरलु दुरिअमखिलंपि ॥ थुणंतह ॥ १७ ॥ (छाया) विजयाजितशत्रुपुत्र श्रीअजित जिनेश्वर तथा अचिराविश्वसेनतनय पंचमचक्रीश्वर षोडश तीर्थंकर सतां वल्लभ शान्तिजिन इत्थं मम मंगलं कुरु आखिलं दुरितं हरस्व तथा स्तुवतामपि (मंगलंकुरु अखिलं दुरितं हर) (पदार्थ ) ( विजया ) विजयानाम्नीमाता और ( जियसत्तु) जितशत्रु नामक पिता इन्होंके (पुत्त ) पुत्र ऐसे (सिरि ) शोभायुक्त ( अजिअ जिणेसर ) हे अजित. नामक जिन भगवन् ( तह ) और ( अइरा ) अचिरानाम्नीमाता (विससेण ) विश्वसेन नामक पिता इन्होंके ( तणय ) पुत्र ( पंचम ) पांचवें (चन्कीसर) चक्रवर्ती ( सोलसम ) सोलहवें ( तित्थंकर ) तीर्थंकर ( संतह ) सत्पुरुषों के (वल्लह ) प्यारे ( संतिजिण ) हे शान्तिनाथ जिन भगवन् ( इय ) पूर्वोक्तप्रकारसे ( मम.) मेरे और ( पिथुणंतह ) इसस्तवनको पठन Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ __ . २० करनेवाले पुरुषोंकेभी ( अखिलं ) सम्पूर्ण ( दुरिअं) पापको [ हरसु ] हरणकरो और ( मंगल ) कल्याण ( कुरु ) करो. (भावार्थ ) विजया नाम्नी माता और जितशत्रु नामक पिताके पुत्र ऐसे हे अजित जिन भगवन् और अचिरानाम्नी माता तथा विश्वसेन नामक पिता के पुत्र पांचवें चक्रवर्ती सोलहवें तीर्थकर सत्पुरुषोंके प्यारे ऐसे हे शान्तिनाथ जिन भगवन् आप मेरे और इस स्तवनको पठन करनेवाले भव्यजीवोंके पूर्वोक्तप्रकार संपूर्ण पार्पोको हरण करो और मंगल करो इति श्रीजिनवल्लभसूरिविरचितमुल्लासिक्कस्तोत्रमिन्दुरजैनश्वेताम्बरपाठशाल मुख्याध्यापकचोबेकुलोद्भवश्रीगोपीनाथसूनुपाण्डतश्रविष्णशर्मकृतसुबोधिनी घ्याख्योपेतं समाप्तम् । Page #102 --------------------------------------------------------------------------  Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः॥ अथ नमिऊणनामकं स्मरणं प्रारभ्यते । ॥ श्रीवीतरागायनमः॥ आदौ मंगलाविधानपुरःसरा मंगलगाथा कथ्यते । ॥ गाथा ॥ नमिऊण पणयसुरगण चूडामणिकिरणरंजिअं मुणिणो । चलणजुअलंमहाभय पणासणं संथवं वुच्छं ॥१॥ (छाया) मुनेः प्रणतसुरगणचूडामणिकिरणरंजितं महाभयप्रणाशनं चरणयुगलं नत्वा संस्तवं वच्मि ॥ १ ॥ (विवरणम् ) अहं मुनेः पार्श्वनाथस्वामिनः प्रणतसुरगणचूडामणिकिरणरंजिंत प्रकर्षेगनताः ये सुराणां देवानां गणाः वृन्दानितेषां चूडाः मुकुटानि तेषु मणयः तेषां किरणः Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ रंजितं शोभितं महाभययप्रणाशनं रोगजलज्वलनादि षोडशभयेषुयानि अष्टमहाभयानितेषां प्रणाशकर्तृ एतादृशं चरणयुगलं नमस्कृत्य संस्तवं वच्मि वर्णयामि ॥ १॥ ( पदार्थ) ( मुणिणो ) पार्श्वप्रभुके ( पणय ) नमस्कारकरने वाले ( सुरगण ) देवताओंके समूहके ( चूडा ) मुकुटों में स्थित ( मणि ) मणियोंकी (किरण ) किरणोंसे ( रंजिअं) सुशोभित और ( महाभय ) आठ महाभयों के ( पपासणं ) नाशकरनेवाले ऐसे (चलणजुअलं) चरणयुगलको ( नमिऊण) प्रणामकर (संथ) स्तवन को ( वुच्छं) वर्णन करताहूं ॥ १॥ (भावार्थ) संस्तवके आरंभमें मंगल कीर्तन पूर्वक मंगलगाथा कहते हैं। प्रणामकरनेवाले देवोंके मुकुटमणियोंकी किरणोंसे सुशोभित और आठ महाभयोंके नाशकरनेवाले ऐसे पार्श्वप्रभुके चरणयुगलको प्रणामकर मैं स्तवनको वर्णन करताहूं ॥१॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ अथमाथायुगलेन पार्श्वस्वामिनो रोगभयनिवारण लक्षगोऽतिशयो वर्ण्यते । ॥ गाथा ॥ सडियकरचरणनहमुह निवुड्डनासाविवनलाक्ना कुठमहारोगानल फुलिंगनिद्दड्ढसब्बंगा ॥२॥ तेतुहचलणाराहण सलिलंजलिसेयवुट्टियच्छाया वणदवदवागिरिपा यवव्वपत्तापुणोलच्छि ॥ ३॥ (छाया) (ये ) विशीकरचरणनखमुखाः ( ये ) निभग्ननासिकाः ( ये ) विनष्टलावण्याः ( ये ) कुष्टमहारोगानलस्फुलिंगनिर्दग्धसांगाः ते तव चरणाराधनसलिलाञ्जलिसेकवतिच्छायाः सन्तः पुनः बनदवदग्धा, गिरिपादपा इव ( आरोग्यरूपां ) लक्ष्मी प्राप्ताः (भवन्ति) ॥२-३ ॥ __ (विवरणम् ) विशीर्ण करचरणनखमुखं येषान्ते विशीर्णकरचरणनखमुखाः ( करचरणनखमुखमिति प्राण्यगत्वात् नित्यमेकवचनंनपुंसकत्वञ्च समासे ) निभग्ननासाः निभग्नाः Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ कुरूपतांनीताः नासाः घाणेन्द्रियाणि येषां विनष्टं भ्रष्टं लावण्यं सौंदर्य येषां कुष्टरूपः महारोगः (कुष्टोरोगविशेषः) सवअनलः अग्निः तस्य स्फुलिंगाः अग्निकणाः तैर्निर्दग्धानि प्लुष्टानि सागानि अखिलेन्द्रियाणि येषां ते तव भवतः चरणयोः पादयोः आराधनं पूजनं तदेव तत्संबंधिवासलिलं तेनकृतःसेकः पूजनावशिष्टजलसेचनं इत्यर्थः तेनवर्दिताः एधिताः छायाः कान्तयो येषां एतादृशाः सन्तः वनदवेन आरण्यदावानलेन दग्धाः प्लुष्टाः गिरिपादपाः पर्वतीयवृक्षा इव लक्ष्मी आरोग्यसंपत्ति प्राप्ताः भवन्ति ॥ २-३ ॥ (पदार्थ) ( साडय) सडगए हैं (कर ) हाथ ( चरण ) पाव ( नह ) नख ( मुह ) मुख जिन्होंके, (निबुड्ड ) बैठगई है ( नासा ) नासिका जिन्होंकी, (विवन्न ) नष्टहोगया है ( लावन्ना ) लावण्य जिन्होंका, ( कुट्ठ) कोढ़रूप (महारोग) भारी व्याधि यही मानो (अनल) अग्नि उसकी ( फुलिंग ) चिनगारियोंसे ( निवडूढ ) जलगया है ( सव्वंगा ) सम्पूर्ण अंग जिन्होंका (ते ) वे ( तुह ) आपके ( चलण ) चरणोंकी ( आराहण ) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ सेवारूप ( सलिलंजलि ) जलपूरित अंजलिके ( सेय ) सेचनसे ( वुड्ढिअच्छाया ) वृद्धिंगतहै शोभा जिन्होंकी ऐसे होकर ( पुणो ) फिर ( वणव ) दावानलसे ( दढा ) जलेहुए ( गिरिपायव ) पर्वतीयवृक्षोंके (ब) समान (लच्छि ) आरोग्यरूप संपदाको (पत्ता) प्राप्त होतेहैं ॥ २-३ ॥ (भावार्थ) ___ अब दो गाथाओंसे पाचप्रभुका रोगभयनाशक. वरूपसे प्रभाव कथन करतेहैं । सडगएहैं हाथपांवनखमुखादि अवयव जिन्होंके, बैठगईहै नासिका जिन्होंकी, प्रनष्टहोगयाहै लावण्य जिन्होंका कोढरूपमहारोगसे उत्पन्नहुई हुई पीडा जनित संतापरूप अग्निकी चिनगारियोंसे जलगयाहै सारा शरीर जिन्होंका ऐसे. प्राणी. भी आरके चरणोंकी आराधनारूप जल पूरित अंजलीके सेचनसे बढ़गई है शरीरकी कान्ति जिन्होंकी ऐसे होकर फिर बनके अग्निसे जलेहुए पर्वतीयवृक्षों के समान आरोग्यरूप संपदा को प्राप्त होतेहैं ॥ २३ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ।। अथगाथाद्वयन पार्श्वस्वामिनो द्वितीयजलभयापहरणलक्षण माहात्म्यं वर्ण्यते । गाथा ॥ दुव्वायग्बुभियजलनिहि उपभडकल्लोलभीसणारावे संभंतभयविसंटुल निझामयमुक्कवावारे ॥ ४॥ अविदलिअजाणवत्ता खणेणपावन्ति इच्छि. अंकूलं पासजिणचलणजुअलं निचचिअ जे नमंतिनरा ॥५॥ (छाया) ये नराः पार्श्वजिनचरणयुगलं नित्यं नमन्ति चेत् ते दुर्वाताभितजलनिध्युटकल्लोलभीषणारावे संभ्रांतभयविसंष्टुलविव्हलनिर्यामकमुक्तव्यापारे अदिलितयानपानाः संतः क्षणेन इच्छितं कूलं प्राप्नुवन्ति ॥ ४.५ ॥ (विवरणम् ) ये नराः मानवाः पाजिनस्य पार्थस्वामिनः चरणयुगलं आंध्रद्वयं नित्यं निरंतरं नमन्ति वन्दन्ते चेत अवधारणार्थे (तेन त एव नान्येइतिफलति) ते दुर्वातेन प्राकूिलपवनेन क्षुभितः क्षोभंप्राप्तः यः जलनिधिः समुद्रः तस्य उद्भटाः उदाराः कल्लोलाः ऊर्मयः तैः भीषणः Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ भयंकरः आरावः शब्दः यस्मिन संभ्रांताः प्राप्तसंकटनिवारणे संमूढंचेतसः भयात् भीत्याः विसंष्टुलाः विव्हलाः एतादृशाः निर्यामकाः नाविकाः तैः मुक्तः परित्यक्तः व्यापारः व्यवसायः यस्मिन् एतादृशे महाजलाशये अविदलितानि अभग्नानि यानपात्राणि पोताः येषां क्षणेन निमेषमात्रेण इच्छितं अभिलाषितं .कूलं तीरं प्राप्नुवन्ति ॥ ४-५ ॥ (पदार्थ) (जे ) जो (नरा) मनुष्य (पासजिण) जिनभगवान पार्श्वप्रभुके ( चलणजुअलं ) चरणयुगलको (निञ्च ) निरंतर ( नमंति ) नमनकरतेहैं (चिअ ) अवधारणार्थे. (ते ) वेही ( दुव्बाय ) प्रलिकूल पवनसे (खुभिय) क्षोभित ( जलनिहि ) समुद्रकी ( उप्भड ) भारी ( कल्लोल ) लहरियोंसे ( भीसण ) भयंकरहै (आरावे) शब्द जिसमें तथा ( संभंत ) घबराए हुए और (भयविसंतुल ) भयसे विव्हल ऐसे (निझामय ) मल्लाह लोगोंने ( मुक्क ) छोडदिया है (वावारे) नावचलानेका व्यापार जिसमें ऐसे जलाशयमें भी ( अविदलिअ ) सुरक्षित, ( जाणवत्ता ) नौका जिन्होंकी ऐसे होकर Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ (खणेण ) क्षणभरमेही (इच्छिअं) आभिलषित ( कूलं ) तीरको ( पावन्ति ) प्राप्तहोतेहैं ॥ ४-५॥ (भावार्थ) अब गाथा द्वयसे भगवानका जलभयनाशकत्वरूपसे ___दूसरा माहात्म्य कीर्तन करते हैं । जो मनुष्य पार्श्वप्रभुके चरणयुगलको नित्य नमस्कार करतेहैं वेही प्रतिकूल वायुसे क्षुभित समुद्रकी मोटी लहरियोंसे भयंकर है शब्दजिसमें और वर्तमान संकट के निवारणमें घबराएहए और भयसे विव्हल मल्लाहओं ने छोडदियाहै नौकाचालनादिव्यापार जिसमें ऐसे समुद्रमें भी सुरक्षित नोकावान् होकर जलदी ही इच्छित तटको पहुंच जाते हैं ॥ ४५ ॥ अथ गाथायुगलेन पार्श्वप्रभोः तृतीय दवानलभयाप हारातिशयो वर्ण्यते। ॥ गाथा ॥ खरपवणुद्धअवणदव जालावालिमिलियसयल दुमगहणे । उज्झंतमुद्धमयबहु भौसणखभीसणं मिवणे ॥६॥ जगगरुणोकमजुअलं निव्वाविअसयलतिहु Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ अणाभोअं ! जेसंभरतिमणुआ नकुणइजलणो भयंतासं ॥ ७ ॥ ९ ( छाया ) खरपवनोद्धतवनदवञ्वालावलिमिलितसकलद्रुमगहने द ह्यन्मुग्धमृगवधूभीषण रवभषिणवने, अथवा दह्यान्तमुग्धमृगबहुभीषण रवभीषणवने ये मनुजा निर्वापितसकलत्रिभुवनाभोगं एतादृशं जगद्गुरोः क्रमयुगलं संस्मरति तेषां ज्वलनो भयं न करोति ॥ ६-७ ॥ ( विवरणम् ) खरः प्रचण्डः पवनः वायुः तेन उद्धतः प्रसारितः चनदवः दावानलः तस्य ज्वाला: अर्चिषः तासां आवलिः श्रेणिः तया मिलिताः संस्पृष्टा दह्यमानाः इत्यर्थः सकलाः समग्राः द्रुमाः वृक्षाः यस्मिन् तत् गहनं वनं तस्मिन् तथा दह्यमानाः प्लुष्यमाणशरीरावयवाः मुग्धाः सरला: याः मृगवध्वः हरिण्यः तासां भीषणः भयंकरः रवः आकंदः तेन भीषणं भयप्रदं वनं अरण्यं तस्मिन् अथवा दग्धुं शक्यं दह्यं वनं तस्य अन्तः अवसानं यस्मिन् स दह्यान्तः दावाग्निः तेन सुग्धाः मुच्छिताः मृगाः वनपशवः तेषां बहुभीषणः अत्यन्तभयानकः रवः Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० नमिऊणस्तोत्रम् ॥ आक्रंदः तेन भीषणं भयप्रदं वनं अरण्यं तस्मिन् एतादृशेव ने ये मनुजाः नराः निर्वापितः आपत्तिजनित संतापशमनेन सुखीकृतः सकलं समत्रं त्रिभुवनं ( त्रयाणां भुवनानां समहार : त्रिभुवनं ) त्रैलोक्यं तस्य आभोगः स्थानं ( निर्वापितः सकलत्रिभुवनाभोगः ) येन तत् तादृशं जगद्गुरोः जगदज्ञानतिमिरनिरोधकस्य पार्श्वप्रभोः क्रमयुगलं क्रमयोः चरणयोः युगलं युग्मं संस्मरतिः स्मृतिपथंनयन्ति तेषां पूर्वोक्तजनानां ज्वलनः दवानलः भयं भीतिं न करोति ॥ ६-७ ॥ ( पदार्थ ) ( खर) प्रचण्ड (पवण ) वायुसे ( उडुय) फैले हुए ( वणदव ) वनके अग्निकी ( जाला ) ज्वालाओंकी ( आवलि) पंक्तिसे (मिलिय ) स्पर्शकिये हुए (सयल) सम्पूर्ण (दुम ) वृक्ष हैं जिसमें ऐसे ( गहणे ) बनमें और (उझत) जलती हुई ( मुद्ध ) सरल (मयत्र ) हरणियोंके ( भीसण ) भयंकर ( ख ) चिल्हाट से (भीस मि ) भयप्रद ऐसे ( वणे ) अरण्य में अथवा ( उज्झत ) दवाग्निसे ( मुद्ध) मुच्छित (मय) अरण्य निवासी पशुओं के ( बहु ) अत्यन्त ( भीसण ) भयंकर Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिअधास्तोत्रम् ॥ ( ख ) आक्रन्दसे ( भीसणंमि ) भयप्रद ऐसे ( वणे ) वनमें (जे ) जो ( मणुआ ) मनुष्य (नित्याविअ ) आपत्तिजनित संतापको दूरकर सुखी कियाहै ( सयल ) समग्र ( तिहुअणाभोअं) त्रिभुवन रूपस्थानको जिसने ऐसे ( जगगुरूणो ) जगद्गुरू पार्थप्रभुके ( कमजुअलं ) चस्णयुगलका ( संभरंति ) स्मरणकरते हैं ( तेर्सि ) उन्होंको ( जलणो) दावाग्नि ( भयं ) भीति ( न कुणइ ) नहीं करता ॥ ६-७ ॥ (भावार्थ ) अब दो गाथाओंसे भगवान् दावानलके भयका नाशकरते हैं ऐसा भगवानका महिमा कहतेहैं । प्रचण्ड वायुसे फैलहुए दावानलकी ज्वालाओं की पंक्तियोंसे जलते हुएहैं तमाम वृक्ष जिसमें और जलती हुई सरल हरिणयोंके भयप्रद चिल्लाहटसे भयंकर अथवा दवाग्निसे मुञ्छित अरण्यनिवासी पशुओंके अत्यन्त भयंकर आनन्दसे भीलिप्रद वनमें जो मनुष्य संसारके संतापको दूरकर सुखी कियाहै त्रिभुवन जिनने ऐसे जगद्गुरू पार्श्वभगवान्के चरणयुगल को स्मरण करतेहैं उन्हें दावाग्नि भय नहीं करता ॥ ६-७ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ नमिउणस्तोत्रम् ॥ अथ गाथायुग्मेन भगवतः पार्श्वप्रभोश्चतुर्थविषधर भयनिवारकत्वमहिमा दर्श्यते । ॥ गाथा ॥ विलसंतभोगभीसण फुरिआरुणनयणतरलजीहालं । उग्गभुअंगंनवजलय सच्छहंभीसणायारं ॥ ८ ॥ मन्नंतिकीडसरिसं दूरपरिच्छूद विसम विसवेगा । तुहनामस्करफुडा सद्धमंत-गुरु आनरालोए ॥ ९ ॥ ( छाया ) नराः लोके तवनामक्षरस्फुटसिद्धमंत्रेण गुरवः अत एव दूरपरिच्छ्रनविषमविषयेगाः संतः विलसद्भोगभीषणस्फुरितारुणनयनतरल जिन्हें नवजलदसदृशं भीषणाकारं ( भीषणाचारं ) वा एतादृशं उग्रभुजंगं कीटसदृशं मन्यते ॥ ८-९ ॥ ( विवरणम् ) ये नराः मानवाः लोके भुवने तव भवतः नामाक्षराणि एव स्फुटः प्रथितः सिद्धमंत्रः तेन गुरुः प्रभावशालिनः अतएव दूरं दूरतः परिच्छूनः परित्यक्तः विषमः मृत्युप्रदः विषवेगः गरलप्रभावः यैः ते विलसन् कान्तिमान् भोगः Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ फणा यस्य भीषणः भयङ्करः स्फुरिते चपले अरुणे रक्ते नयने नेत्रे यस्य तरला चञ्चला जिव्हा रसना यस्य तादृशः नवः नूतनः जलदः मेघः तत्समानः भषिणः आकारः आकृतिः यस्य यहा भीषणः भयप्रदः आचारः आचरणं यस्य एतादृशं उग्रभुजंगं प्रचण्डसर्प कीटसदृशं तुच्छजन्तुसमानं मन्यते गणयन्ति ॥ ८.९ ॥ ( पदार्थ) ( नरा ) मनुष्य ( लोए ) इस लोकमें ( तुह ) आपके ( नामस्कर ) नामाक्षर वहही मानो ( फुड ) प्रख्यात और ( सिद्ध ) सिद्ध ( मंत ) गारुडादिकमंत्र उससे ( गुरुआ ) प्रभावशाली होनेसे ( दूर) अत्यन्त दूर और ( परिच्छूढ ) चारोंओर टालदिया है (विसम) मृत्युप्रद ( विसवेगा ) विषका वेग जिन्होंने ऐसे होकर ( विलसंत ) चमकीला है ( भोग) शरीर जिसका और ( भीसण ) भयंकर (फुरिअ) चपल और (अरुण) लालहैं ( नयन ) नेत्र जिसके और ( तरल) चंचल, (जीहालं ) जीभ जिसकी ( नवजलय ) नए मेघके ( सच्छहं ) समान ( भीसण ) भयंकरहै ( आयारं ) आकार अथवा आचार जिसका ऐसे ( उग्ग ) विक्राल Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ (भुअंगं ) सर्पको (कीडसरिसं ) कीडे के समान (मन्नंति) मानते हैं ॥ ८-९ ॥ ( भावार्थ ) अब गाथाद्वय से सर्पविषनिवारकत्वरूप प्रभाव वर्णन करते हैं । मनुष्य इस लोकमें आपके नामाक्षररूप प्रख्यात और सिद्ध गारुडमंत्र से प्रभावशाली होकर मृत्युप्रद विषके वेग को अत्यन्त दूर टाल देते हैं और चमकदार फणावाले सुशोभि देहवाले चंचल और लालनेत्र वाले चपल जिव्हा वाले नये मेघ के समान भयंकर आकृतिवाले विकाल सर्पको कीडेकेसमान मानते हैं ॥ ८-९ ॥ अथ गाथायुगलेन प्रभोः पञ्चमतस्करभय निवारकत्वप्रभावो वर्ण्यते Į || गाथा || अडवीसुभिलतकर पुलिंदसदूलसद्द भीमासु । भयविदुलवुन्नकायर उल्लूरि पहियसत्थासु ॥१०॥ अवित्तविहवसारा तुहनाहपणाममत्तवावारा । aarयविश्वासिग्धं पत्ताहिय इच्छियं ठाणं ॥ ११ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ (छाया) भिल्लतस्करपुलिंदशार्दुलशब्दभीमासु भयविव्हलविषण्णाकातरोल्लुण्ठितपथिकसार्थासु अटवीषु हे नाथ तय प्रणाममात्रव्यापाराः अतएव अविलुप्तविभवसाराः ते जनाः व्यपगतविघ्नाःसंतः शीघ्रं हृदि इच्छितं स्थानं प्राप्ताः भवन्ति ॥ १०-११ ॥ (विवरणम् ) . भिल्लाः आरण्यकाः तस्कराः चौराः पुलिन्दाः वनचरजीवाः ( भिल्लाः पुलिन्दाश्च वनचरभेदाः) शार्दुला सिंहाश्च तेषांशद्वाः तैर्भीमासु भयप्रदासु भयेन भीत्या विव्हलाः व्याकुलीकृताः विषण्णाः दुःखिता अकातरी अभीरुभिः भिल्लैः उल्लुण्ठिताः अपहृतसर्वस्वाः एतादृशाः पथिकसार्थाः अध्वगसंघाः यासु तथाविधासु अटवीषु गहनवनेषु हे नाथ हे स्वामिन् तव प्रणामएव प्रणाम मात्रं प्रणतिमात्रं तदेव व्यापारः येषां ते अतएव अविलुप्ताः अपरिहृताः विभवसाराः उत्कृष्टधनं येषां ते जनाः व्यपगताः विनष्टाः विघ्नाः अन्तरायाः येषां ते शीघ्र स्वरितं हृदि अन्तःकरणे इच्छितं अभिलषितं स्थान प्रदेशं प्राप्ताः आसादितवन्तः भवन्ति ॥ १०.११ ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ ( पदार्थ) ( भिल्ल ) भील ( तकर ) चौर ( पुलिंद ) वनचर जीव ( सहुल ) सिंहोंके ( सद्द ) मारोमारो आदिशब्दों से ( भीमासु ) भयंकर, ( भय ) डरसे ( विहुल ) व्याकुल ( बुन्न ) दुःखित और ( अकायर ) निडर भीलोंसे ( उल्लूरिअ ) लूटलिये गएहैं (पहिअसत्थासु) पथिकसमुदाय जिन्होंके विषय ऐसे ( अडवीसु ) गहन वनोंमें ( नाह ) हे नाथ (तुह ) आपको (पणाममत्त) प्रणाममात्र है ( वावारा ) व्यापार जिन्होंका ऐसे होने सेही ( अविलुत्त ) नलूटागयाहै (विहवसारा ) उत्कृष्टधन जिन्होंका ऐसे जन (सिग्धं ) जलदी ही ( वगय) विशेषतः नष्ट होगए हैं (विग्घा) विघ्न जिन्होंके ऐसे होकर ( हिय ) हृदयमें ( इच्छियं ) अभिलषित ( ठाणं ) स्थानको ( पत्ता ) प्राप्त होते हैं ॥ १०.११ ॥ (भावार्थ) अब दो गाथाओंसे प्रभुका तस्करभयनिवारणरूप अतिशय कथन करते हैं। जो भील, चोर, बनमें संचारकरनेवाले जीव और सिंह Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ नमिउणस्तोत्रम् ॥ इत्यादि प्राणियोंके मारो २ आदि शब्दोंसे भयंकर हैं, और जिन्होंमें पथिकजन समूह निडर भीलोंसे लूटे गए हैं तथा डरसे व्याकुल और दुःखित होरहेहैं ऐसे गहन वनों में हे नाथ आपको प्रणामकरतेही मनुष्योंका उत्कृष्ट धन बच जाताहै और सम्पूर्ण विघ्न नष्ट होकर जलदी ही वे इच्छित स्थानको प्राप्त होजाते हैं ॥ १०-११ ॥ अथ गाथाद्वयेन प्रभोः सिंहभयनिरासकारकत्वरूपं षष्टमाहात्यं वर्ण्यते । ॥गाथा ॥ पजलिआनलनयणं दूरवियारियमुहंमहाकायं । नहकुलिसघायविअलिअ गइन्दकुंभत्थलाभो॥१२॥ ___ पणयससंभमपत्थिव नहमणिमाणिकपडिअपडिमस्स । तुहवयणपहरणधरा सीहं कुद्धपि न गणंति ॥ १३ ॥ (छाया) हे प्रभो प्रणतससंभ्रमपार्थिवनखमणिमाणिक्यपतित प्रतिमस्य तव क्चनप्रहरणधराः मानवाः प्रज्वलितानलनयनं दूरविदारितमुखं महाकाय नखकुलिशधातविदलितगजेन्द्रकुंभस्थलाभोगं एतादृशं सिंहं क्रुद्धमपि न गणयन्ति ॥ १२-१३ ॥ अ. ३ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ (विवरणम् ) . हे प्रभो प्रणताः नमीभूताः ससंभ्रमाः आदरसहिताः पार्थिवाः राजानः तेषां (प्रभोः) नखाः कररुहाः एवं मणिमाणिक्यानि तेषु पतिताः याः प्रतिमाः प्रणतससंभ्रमपार्थिवानां नखमाणिमाणिक्यपतितप्रतिमाः यस्मिन् सः । प्रणतससंभ्रमपार्थिवनखमणिमाणिक्यपतितप्रतिमः तस्य तव वचनं आज्ञा एवं प्रहरणं शस्त्रं तस्य धराः धारणकर्तारः ये मानवाः नराः प्रज्वलितः देदीप्यमानः यः अनलः आग्निःतद्वन्नयने नेत्रे यस्य तम् दूरात् विदारितं मुखं वदनं येन तम महान् विशालः कायः शरीरं यस्य तम् तथा नखाः एव कुलशं वज्रं तः घातः प्रहारः तेन विदलितः चूर्णितः गजेन्द्रस्य प्रबलहस्तिनः कुंभस्थलस्य गण्डस्थलस्य आभोगः विस्तारः येन तम् सिंहं क्रुद्धमपि न गणयंति न भयहेतुं मन्यन्ते ॥१२-१३॥ ( पदार्थ ) हे प्रभो ( पणय ) प्रणामकरनेवाले ( ससंभम ) आदरसहित ( पत्थिव ) राजाओंकी (नहमाणमाणिक्क) प्रभुके नखरूप मणिमाणिवयोंमें ( पडिअ ) गिरी है (पाडमस्स ) प्रतिमा जिनके विषय ऐसे (तुह्) आपके Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ १९ ( वयण ) वचनरूप ( पहरण ) शस्त्रको ( धरा ) धारण करनेवाले मानव ( पज्जलिअ ) प्रज्वलित (अनल) अग्निसमानहैं ( नयनं ) नेत्र जिसके (दूर) दूरसेही ( वियारिय ) फैलाया है ( मुहं ) मुख जिसने (महा) बड़ा है ( कार्य ) शरीरं जिसका ( नह ) नख रूप ( कुलिस ) वज्रके ( घाय ) प्रहारसे ( विलिअ ) चीरदिया है ( गइंद ) गजेन्द्रहाथी के ( कुंभत्थल ) गण्डस्थलका ( आभोअं ) विस्तार जिसने ऐसे (सीह) सिंहको (कुद्धपि ) क्रुद्ध होने पर भी (न) नहीं (गणंति) गिनते हैं ॥ १२-१३ ॥ ( भावार्थ ) अब दो गाथाओं में पार, भगवान् का सिंहमय निरासरूप प्रताप लिखते हैं । हे प्रभो आपके नखरूप रत्नोंमे आदरसहित प्रणाम करनेवाले राजाओंकी प्रतिमा प्रतिबिंबित होती है आपके वचनरूप शस्त्रको धारण करनेवाले भव्य जीव प्रज्वलित अग्नि समान नेत्र्वाले दूरसेही खानेके हेतु फाडा है मुख जैसने, मोटे शरीरवाले और नखरूप बज्र प्रहारसे छिन्न भिन्न कर दिया है गजेन्द्र हाथी का Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भमिऊणस्तोत्रम् ॥ गण्डस्थल जिसने ऐसे सिंह को क्रुद्ध होनेपर भी तुच्छ गिनतेहैं ॥ १२-१३ ॥ अथ गाथायुगलेन प्रभोः सप्तम गजभयनिरास कत्वातिशयो वर्ण्यते। ॥ गाथा ॥ ससिधवलदंतमुसलं दीहकरुलालवइदिउच्छाहं । महुपिंगनयणजुअलं ससलिलनवजलहरारावं।॥१४॥ भीमं महागइंदं अचासन्नपितेन विगणंति । जे तुम्हचलणजुअलं मुणिवइतुंगंसमल्लीणा ॥ १५ ॥ (छाया) हे मुनिपते ये तव तुझं चरणयुगलं सँल्लीनाः ते शशिधवलदंतनुसलं दीर्घकरोल्लोलवर्धितोत्साहं मधुपिंगनयन युगलं ससलिलनवजलधरारावं भीमं महागजेन्द्रं अत्यासन्नमपि न विगणयन्ति ॥ १४-१५ ॥ (विवरणम् ) हे मुनिपते हे मुनिस्वामिन् ये मानवाः तव भवतः तुझं अत्युन्नतं चरणयुगलं चरणयोः पादयोः युगलं युग्मं सँल्लीनाः समाश्रिताः ते शशिधवलदंतमुसलं शशी इव चन्द्र इव धवलौ स्वच्छौ दन्तौ दशनौ एव मुसलौ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ||... माना कि मुद्गरौ यस्य तम् दीर्घकरोल्लोलवर्धितोत्साहम् दीर्घः आयतः करः शुण्डादण्डः तस्य उल्लोलः चालनं तेन वर्धितः वृद्धिंगतः उत्साह उल्लासः यस्य तम् मधुपिंगनयनयुगलम् मधु माझिकं इव पिंगं पीतं नयनयोः नेत्रयोः युगलं युग्मं यस्य तम् ससलिलनवजलधरारावर सलिलेन जलेन सहितः सचासौ नवजलधरः नूतनमेघः- तस्य आरावः शब्दः इव आरावो यस्य सः तमू भीमं भीषणं महागजेन्द्रं अर्जितकुंजरं अत्यासन्नमपि अतिसमीपस्थंअपि न विगणयन्ति न कलयन्ति ॥ १४-१५ ॥ (पदार्थ) ( मुणिवइ ) हे मुनिपते (जे ) जो मनुष्य (तुम्ह) आपके ( तुंगं ) गुणोंसे उन्नत ( चलणजुअलं ) चरण युगलका ( समल्लीणा ) सम्यक् आश्रय करलेतेहैं (ते) वे मनुष्य ( ससि ) चंद्रके समान (धवल ) श्वेत ( दंतमुसलं ) दंतद्वयरूप मुसलहै जिसको, ( दीह) लंबे (कर) शुंडादण्ड के ( उल्लाल.) संचालनसे. ( वढि ) बढ़गया है ( उच्छाह ) उत्साह जिसका. ( महु ) शहदके समान (पिंग) पीली हैं (नयनजुअलं) दोनों आँखें जिसकी ( ससालल ) जलसहित ( नव) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ मए (जलहरारावं ) मेघके शब्दके सरीखाहै शब्द जिसका ( भीमं ) ऐसे भयंकर (महागइंदं) महान् हाथी को (अच्चासन्नपि ) अतिशय पास आनेपर भी (न विगणन्ति ) नहीं गिनते ॥ १४-१५ ॥ (भावार्थ) - अब दो माथाद्वारा प्रभुपार्श्वका सातवां गजभय - निवारणरूप प्रभाव संकीर्तन करते हैं। हे नाथ जो मनुष्य आपके अतिश्रेष्टचरणयुगलका आश्रय लेतेहैं वे चांदके समान सफेद दांत ये ही मुसल हैं जिसको, लंबी सूंडके हिलानेसे बढ़गया है उत्साह जिसका, मधु समानहै पीला नेत्रयुगल जिसका और जलसे भरेहुए मेघके समानहै शब्द जिसका ऐसा भयंकर बडाहाथी अतिसमीप होनेपरभी उसे नहीं गिनतेहैं अर्थात उससे भयभीत नहीं होतेहैं ॥१५-१५॥ ... अथ गाथायुगलेन पाइर्वप्रभोरष्टमः संग्राम भयापहारातिशयो वर्ण्यते । .. ॥ गाथा ॥ समरम्मि तिक्खखग्गा भिग्यायपविद्धउद्धृयकवंधे कुंतविणि भिन्नकारकलह मुक्कासिकार पउरम्मि ॥१६॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ निजिय दप्पुद्धररिउ नरिंदनिवहा भडाजसं धवलं । पावंति पाव पसमिण पासजिणतुहप्प भावेण ॥ १७ ॥ (छाया) हे पार्थजिन हे पापप्नशमन निर्जितदर्पोडुररिपुनरेन्द्र निवहभटाः तीक्ष्णखड्गाभिघातापविद्धोदुतकबंधे कुन्तविनिर्मिकार कलभमुक्तसत्किारप्रचुरे समरे तत्र प्रभावेण धवलं यशः प्राप्नुवन्ति ॥ १६-१७ ॥ (विवरणम् ) हे पार्श्वजिन हे पार्श्वस्वामिन् हे पापप्रशमन है पाप प्राणशक निर्जितदर्पोडुररिपुनरेन्द्रनिक्हभटाः हे. दर्पण गण उडुराः विटंखलाः रिपुनरेन्द्राः विपक्षराजानः तेषां निवहः समुदायः निर्जितः पराजितः एतादृशः समुदायः यः ते भटाः शूराः तीक्ष्णखङ्गाभिघातापविद्धोडु तकबंधे तीक्ष्णाः निशिताः खड्गाः कृपाणाः तैः अभिधाताः प्रहाराः तैः अपविद्धं अनियंत्रितं यथास्यात् तथा उडुताः नर्तितुं प्रवृताः कबंधाः मरतकरहितशरीरभागाः यस्मिन् कुन्तविनिर्भिन्नकरिकलभमुक्तसीत्कारप्रचुरे कुन्ता तोमराः तैः विनिर्भिन्नाः विदारितामाः करिकलभाः Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ गजशावाः तैः मुक्ताः परिच्युताः सीत्काराः कातरशब्दाः तैः प्रचुरे परिपूरिते समरे संग्रामे तव प्रभावेण तव प्रतापेन धवलं उज्वलं यशः ख्याति प्राप्नुवन्ति लभते ॥ १६-१७ ॥ ... (पदार्थ ) (पासजिण ) हे पार्श्वजिन (पावपसमिण ) हे पापोंके प्रणाशक ( निज्जिय ) जीतलिये हैं (दप्पुद्धर) शूरताके गर्वसे अन्ध ( रिउनरिंद ) शत्रुराजाओंके (निवहा ) समूह जिन्होंने ऐसे ( भडा ) शूरपुरुष (तिखखग्य ) तीक्षण खड्गोंके ( अभिग्घाय ) प्रहारों से ( पविद्ध ) बेरोक ( उडुय ) इधर उधर नाचने लगतेहैं ( कबंधे ) मस्तक रहित कबंध जिसमें (कन्त) भालोंसे ( विणिभिन्न ) छिदेहुएहैं अंग जिन्होंके ऐसे ( करिकलह ) हाथियोंके बच्चोंके ( मुक्कसिक्कार ) निकले हुऐ सीत्कारोंसे ( पउरम्भि ) प्रपूरित ऐसे ( समरम्भि ) संग्राममें ( तुह ) आपके (प्पभावेण ) प्रभावसे ( धवलं ) उज्वल ( जसं ) कीर्ति ( पावन्ति ) प्राप्त करते हैं ॥ १६-१७ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ ( भावार्थ ) अब गाथा द्वयसे पाचप्रभुका आठवां संग्रामभय विनाशनरूप महिमा कथन करतेहैं।' हे पार्श्वनाथ हे पापध्वंसक जीतलियेहैं शूरताके गर्वसे मदान्ध प्रतिपक्षी राजाओंके समुदाय जिन्होंने ऐसे शूरपुरुष तीक्ष्ण खड्गोंके प्रहारसे छिन्नहोनेकेकारण बेरोक इधर उधर नाचने लगे, मस्तकरहित धड जिसमें और भालोसे छिदेहए हाथियोंके बालकोंके मखसे निकले हुए सत्किारोंसे प्रपूरित संग्राममें आपके प्रभावसे उज्वल यशको प्राप्त करलेतेहैं ॥ १६-१७ ॥ अधुना एकया गथया पूर्वोक्ताष्टभयानरासकत्व महिमा वर्ण्यते । ॥ गाथा ॥ रोगजलजलणविसहरचोरारिमइंदगयरणभयाई । पासजिणनामसंकित्तणेण पसमति सवाई ॥१८॥ . (छाया) पार्शजिननामसंकीर्तनेन सर्वाणि रोगजलज्वलनविषधरचोरारिमगेन्द्रगजरणभयानि प्रशाम्यान्त ॥ १८॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ (विवरणम् ) व्याधिजभयं जलजभयं अग्निभयं सर्पजभयं तस्करादिरिपुभयं सिंहभयं करिभयं संग्रामभयं एतान्यष्टभयानि पार्वजिनेश्वरस्य नामस्मरणमात्रेणैव स्वयमेव प्रशाम्यन्ति उपशमं यान्ति ॥ १८ ॥ (पदार्थ). . (पासाजण ) पार्श्वजिनेश्वरके ( नामसंकित्तणेण) नामकीर्तनसे ( सव्वाई ) सम्पूर्ण ( रोग ) कुष्टादिरोग ( जल ) पानी ( जलण ) अग्नि (विसहर ) सर्प ( चोरारि ) तस्करादिशत्रु ( मइन्द ) सिंह ( गय ) हाथी ( रण ) संग्राम एतत्संबन्धि ( सव्वाई) सर्व ( भयाइं ) भय (पसमन्ति ) रूयं ही शान्त होते हैं ॥ १८ ॥ ( भावार्थ ) अब एक गाथामें पूर्वोक्त अष्टभयनिवारण ___ रूप अतिशय कहते हैं। पार्वजिनेश्वरके नामकीर्तनसे रोगभय, जलभय, आग्निभय, सर्पभय, चोरादिशत्रुभय, सिंहभय, करिमय तथा संग्रामभय ये आठ भय स्वयंही शान्त होतेहैं ॥१८॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् || अनया गाथया एतत्स्तोत्रमाहात्म्यं वर्ण्यते । ॥ गाथा ॥ एवं महाभयहरं पासजिणिदस्स संथवमुआरं भवियजणाणंदयरं कल्लाणपरपरीनहाणं ॥ १९ ॥ (छाया) एवं महाभयहरं पार्श्वजिनेन्द्रस्य उदारं संस्तवं भव्यजनानंदकरं कल्याणपरंपरानिदानं चास्ति, अथवा भव्यजमानां कल्याणपरं परनिभानांच बंधकरं अस्ति ||१९|| ( विवरणम् ) एवं पूर्वोक्ताष्टमहाभयजनितानर्थप्रतिघातकत्वेन विश्रुतं पार्श्व भगवतः उदारं अल्पशब्दसंघातमपिमहत्फलप्रदायकं संस्तवनं इदं नमिऊणाभिधस्तोत्रं भव्यजनानंदकरं भव्याः मुक्तिगमनयोग्याः ये जनाः प्राणिनः तेषां मोक्षप्रदानेन आनंदकरं सुखकरं कल्याणपरंपरानिदानं कल्याणस्य मंगलस्य परंपरा संततिः तस्याः निदानं आदिकारणं च अस्ति । अथवा भव्याः भगद्भत्तयैकरसाः ये जनाः मानवाः तेषां कल्याणपरं मंगलैकदीक्षाधरं तथा परे शत्रवः तेषां निभाः कपटानि तेषां बंधकरं नियंत्रकं अस्ति ॥ १९ ॥ २७ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ।। (पदार्थ) . ( एवं ) इस पूर्वोक्ताकारसे ( महाभयहरं ) मोटे भोंका नाशकरनेवाला ( पासजिणंदस्स ) पार्वजिनभगवानका ( उआरं ) थोडेशब्दोंसे बहुतफलदेनेवाला ( संथवं ) नमिऊणनामकस्तोत्र ( भावियजण ) भव्य जनोंको ( आणंदयरं ) मोक्षसुखरूप आनंदकरनेवाला और मंगलकी ( परंपर ) संततिका ( निहाणं ) आदि कारण है अथवा ( भविजणाणं ) भव्यजनोंको ( कल्लाणपरं ) मंगलदायक और ( परनिहाणं) शत्रुओं के कपटोंको ( अंदयरं ) बांधनेवाला है ॥ १९॥ (भावार्थ ) इस एक गाथासे इस स्तोत्रका माहात्म्य ... वर्णन करतेहैं । यह महाभयनिवारक बहुफलदायक श्रीपार्श्वप्रभुका नमिऊणनामक स्तोत्र भव्यप्राणियोंको मोक्षसुख देने वाला और अत्यन्त मंगलकारक है इसके पठनसे शत्रुओंने किये हुए मारणउच्चाटनादि सब प्रयोग व्यर्थ होते हैं ॥ १९॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नमिऊणस्तोत्रम् ॥ अथ गाथायुगलेन भयस्थानप्रकटनपूर्वक तन्नाशोपायः कथ्यते। . .. ॥ गाथा ॥ रायभयजक्खरक्खस कुसुमिण दुस्सउणरिक्खपीडासु संज्झासुदोसुपंथे उवसग्गे तहय स्यणीसु ॥ २० ॥ जो पढइ जोअ निसुणइ ताणं कइनो य माणतुंगस्स पासो पावं पसमेउ सयल भुवणच्चिअ चलणो ।। २१ ॥ (छाया) राजभययक्षराक्षसकुस्वप्नदुःशकुनऋक्षपीडासु द्वयोः संध्ययोः पथि उपसर्गे तथाच रजनीषु य इदं स्तोत्रं पठेत् शृणुयाद्वा तस्य ( स्तोत्र ) कर्तुर्मानतुंगस्य च पापं सकलभुवनार्चितचरणः पार्श्वप्रभुः प्रशमयतु ॥ २०-२१ ॥ (विवरणम् ) नृपतियक्षदानवकुस्वप्नदुर्भशकुनग्रहादिभयजनितपीडा-- समये प्रातःकाले 'सायंकाले अरण्यादिमार्गगमनावसरे देवमनुष्य कृतोपसर्गसमये तथा च रात्रावपि यो जनः इदं “ नमिऊण” नामकंस्तोत्रं भक्त्या पठेत् शृणुयाहा Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ तस्य, स्तुतिकर्तुनितुंगाचार्यस्य चाखिलपापराशिमखिलभुवनपूजितचरणकमलः पार्श्वदेवः प्रशमयतु ॥ २०-२१ ॥ (पदार्थ) (रायभय ) राजभय (जवख ) यक्षभय (रक्खस) राक्षसभय ( कुसुमिण ) कुस्वप्नभय ( दुस्सउण ) दुःशकुनभय (विख) अशुभग्रह इन्होंकी ( पीडासु) पीडासमयमें और ( दोसु संझासु) प्रातःकाल और सायंकाल में (पंथे ) अरण्यादिमार्गमें (उदसम्गे) देव और मनुष्यकृत उपसर्गोमें ( तहय ) और वेसेही ( रयणीसु ) रात्रिओं में ( जो ) जो मनुष्य " इस स्तोत्रको " ( पढइ ) पठनकरता है (जो अनिसुणइ) और जो भक्तिपूर्वक सुनताहै ( ताणं ) उन्होंके (य) और (कइणों) स्तोत्रकर्ता (माणतुंगस्स) मानतुडाचार्य के ( पावं ) पापको ( सयल ) सम्पूर्ण ( भुवणच्चिअ) लोकमें अर्चितहैं (चलणो) चरण जिनके ऐसे (पासो) पार्श्वभगवान (पसमेड) नाशकरो ॥ २०-२१ ॥ (भावार्थ) राजभय यक्षभय राक्षसभय कुस्वप्नभय अशुभग्रहभय इन भयोंसे पीडितहोनेपर, प्रातःकाल सायंकालमें, अरण्यादिभयानक मार्गमें, देव और मनुष्यकृत संकट Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊण स्तोत्रम् ॥ ३१ समय में और रात्रिमें जो मनुष्य इस स्तोत्रको भक्तिपूर्वक पठन करता है या श्रवण करता है उसके और मानतुंगाचार्य के पापका त्रिभुवनने पूजे हैं चरणकमल जिनके ऐसे पार्श्वप्रभु नाशकरते हैं ॥ २०-२१ ॥ अनया गाथया पार्श्वभगवतोऽतिशयो वर्ण्यते । ॥ गाथा ॥ उवसग्गंत कमठा सुरभि ज्झाणाउ जो नसंच - लिउ । सुरनरकिन्नर जुवइहिं संधु जयउ प्रास जिणो ॥ २२ ॥ ( छाया ) कमठासुरे उपसर्गकुर्वतिसति यः ध्यानात् न सञ्चलितः ससुरनरकिन्नरयुवतीभिः संस्तुतः पार्श्वजिनः जयतु ॥२२॥ ( विवरणम् ) कमठासुरे कमठदैत्ये उपसर्ग उपद्रवं कुर्वति आचरतिसति यः पार-देवः ध्यानात् नियतविषयकचित्तैकाग्र्यात् न सञ्चलितः न स्खलितः स सुराः देवाः नराः भव्यजनाः किन्नराः गंधर्वाः युवत्यः देवाङ्गनाः ताभिः स्तुतः नुतः एतादृशः पार्श्वजिनः जयतु सर्वोत्कर्षेण वर्तताम् ॥ २२ ॥ ' ( पदार्थ ) ( कमठासुरम्म ) कमठाने ( उवसग्गंते ) उपसर्ग Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ कियेसते ( जो ) जोपार्श्वप्रभु ( ज्झाणाउ ) ध्यानसे (न) न ( संचलिउ) चलायमानहुए (सुर ) देवता ( नर ) भव्यजीव ( किन्नर ) गंधर्व ( जुवइहिं ) देवाङ्गनाओंसे ( संथुउ ) स्तुतिकिएगए ऐसे (पासजिणो) पार्श्वप्रभु ( जयउ ) विजयशालीहोवें ॥ २२ ॥ (भावार्थ) . कमठासुरने अत्यन्त त्रास देने परभी जो पार्थप्रभु अपने ध्यानसे न संचलितहुए और देवता भव्यजीव गंधर्व और देवाङनाओंसे स्तुतिकिएगए ऐसे भगवान् पार्वजिन विजयी होवें ॥ २२ ॥ ॥गाथा ॥ एअस्स मप्भयारे अहारस अक्खरोहिं जो मंतो। जो जाणइ सो ज्झायइ परम पयत्थं फुडं पासं ॥ २३ ॥ (छाया) - एतस्य मध्यभागे अष्टादशाक्षरैः ( निर्मितः ) यः मंत्रः अस्ति तं ( मंत्रं ) यः जानाति सः स्फुटं परमपदस्थं पाच ध्यायति ॥ २३ ॥ (विवरणम् ) एतस्य " नमिऊणाख्यास्तोत्रस्य " मध्यभागे "नमि Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्तोत्रम् ॥ ३३ ऊणपासविसहरवसहजिण फुलिंग” इति यो मन्त्रोऽस्तितं यः जानाति सद्गुरूपदेशतः सम्यग्वोत्ति सएव स्फुटं प्रकटं यथास्यात्तथा परमं पदंस्थानं मोक्षास्व्यं तत्र तिष्ठतीति तं पार्श्व पार्श्वभगवन्तं ध्यायति सम्यग्ध्यानपथं नयति ॥ २३ ॥ (पदार्थ) ( एअस्स) इस नमिऊणस्तोत्र के ( मध्मयारे ) मध्यभागमे (अट्ठारसअक्खरेहिं) अठारह अक्षरोंका (जो मंतो) जो मंत्र है . उसमंत्रको ( जो ) जो मनुष्य ( जाणइ ) सद्गुरूपदेश से जानता है (सो) वह (फुडं ) प्रकट ( परमपयत्थं ) उत्कृष्टमोक्षरूपस्थान में उपस्थित ( पासं) पार्श्वप्रभुका (उझायइ ) ध्यानकरता है ॥ २३ ॥ ( भावार्थ ) जो मनुष्य इस नमिऊणस्तोत्रके मध्यभागमें सूचित अठारह अक्षरोंके " चिंतामणि " नामक अत्यन्त गुप्त मंत्रको सद्गुरु के उपदेशसे सम्यक जानता है वहही मनुष्य उत्कृष्ट मोक्षाख्यस्थान में स्थित पार्श्वप्रभुका ध्यान करसकता है || २३ ॥ 1 ॥ गाथा ॥ पासह समरण जो कुणइ संतुठे हिययेण अत्तर सयवाहि भय नासर तस्स दूरेण ॥ २४ ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ ( छाया ) यः संतुष्टहृदयेन पार्श्वस्यस्मरणं करोति तरय अष्टोत्तरशतव्याधिभया दूरेण नश्यन्ति ॥ २४ ॥ ( विवरणम् ) यो जीवः संतुष्ट शान्तं हृदयं मानसं तेन पार्श्वस्य - पार्श्वभगवतः स्मरणं ध्यानं करोति तस्य जीवस्य अष्टोत्तरशतसंख्याकव्याधिजभयानि दूरत एव नश्यन्ति नाशं प्राप्नुवन्ति ॥ २४ ॥ ( पदार्थ ) ( जो ) जो जीव (संतुहिययेण ) शान्त अंतःकरण से ( पासह) पार्श्वप्रभुका ( समरण ) स्मरण (कुणइ) करता है ( तस्स ) उसके ( अट्ठुत्तरस्य ) एक्सोआठ (वाहिभय) व्याधिभय ( दूरेण ) दूरसेही (नासइ) नष्ट होते हैं ॥ २४ ॥ ( भावार्थ ) जो जीव आद्ररौद्रध्यान छोडकर प्रसन्न हृदय से पार्श्वप्रभुका स्मरणकरता है उसके एकसोआठ व्याधियोंसे पैदा होनेवाले भय दूरसेही नष्ट हो जाते हैं ॥ २४ ॥ इति श्रीमानतुंगाचार्यकृतश्रीमहाभयनामक स्तोत्रमिन्दुर जैन श्वेताम्बर पाठशालामुख्याध्यापक श्रीगोपीनाथसुनु पण्डितश्री कृष्णशर्मकृतसुबोधिन्यारव्यटीकासंवलितं सम्पूर्णम् ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः॥ अथ श्रीजिनदत्तमूरिकृततंजयास्यस्तोत्रं प्रारभ्यते. ॥श्री वीतरागायनमः ॥ तं जयउ जएतित्थं जमित्थ तित्थाहिवेणवीरेण सम्मं पवत्तियं भव्वसत्तसंताणसुहजणयम् ॥१॥ (छाया) तत् जगति तीर्थ जयतु यदत्र भव्यसत्वसंतानसुखजनकं तीर्थाधिपेन वीरेण सम्यक् प्रवर्तितम् . (पदार्थ) (तं ) वह प्रसिद्ध (जए ) जगतमें (तित्थं ) चतुर्वर्ण संघ ( जयउ ) विजयको प्राप्त होओ (जम् ) जो (इत्थ) इस जगतमें ( भव्य ) भव्य (सत्त) जीवोंके (संताण) समूहको ( सुह) सुख ( जणयम् ) पेदा करनेवाला (तित्थाहिवेण ) चतुर्विध संधकेस्वामी (वीरेण ) महावीरस्वामीने ( सम्म ) भलेप्रकारसे ( पवत्तियम् ) स्थापन किया Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र ॥ (भावार्थ) जो चतुर्वर्ण संघ इसजगतमें भव्य जीवोंके समूह को सुख पेदाकरनेवाला और चतुर्विध संघके स्वामी श्रीमहावीरस्वामीने धर्ममर्यादानुसार स्थापन किया हुआ वह संघ विजयको प्राप्त होओ (गाथा) नासिय सयलकिलेसा निहयकुलेस्सा पसत्थ सुहलेस्सा सिखिद्धमाणतित्थस्स, मंगलं दिन्तुते अरिहा ॥२॥ (छाया) नाशित सकल क्लेशाः निहत कुलेश्याः प्रशस्त शुभ लेश्याः ते अर्हन्तः श्रीवर्धमानतीर्थस्य मंगलं ददतु ( पदार्थ ) (नासिय) नाशकियेहैं (सयल ) सम्पूर्ण (किलेसा) कर्मजन्यदुःखजिन्होंने (निहय ) नाशकी हैं ( कु) खराब ( लेस्सा ) कृष्णादिलेश्या जिन्होंने ( पसत्थ ) स्तुतिके योग्यहैं ( सुह लेस्सा ) शुक्लादिलेश्या जिन्होंकी ( ते ) वे प्रसिद्भ (अरिहा) अर्हन्त भगवान (सिरिवद्धमाणतित्थरस ) श्रीवर्धमानतीर्थकरभगवानने Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र ॥ स्थापनकियेहुए चतुर्विध संधको ( मंगल ) कल्याण (दिन्तु ) देओ ( भावार्थ ) नाशकियेहैं सम्पूर्ण कर्मजन्य दुःख जिन्होंने नाशकी हैं खराब कृष्णादि लेश्या जिन्होंने और स्तुतिके योग्यहैं शुभ शुक्लादिलेश्या जिन्होंकी ऐसे वे प्रसिद्ध अर्हन्त भगवान श्रीवर्धमान तीर्थकर भगवानने स्थापनाकयेहुए चतुर्विधसंघको मंगल देओ (गाथा) निद्दढकम्मबीआ,बीआपरमेष्ठिणो गुणसमिद्धा,॥ सिद्धा तिजयपसिद्धा हणन्तु दुत्थाणि तित्थस्स ॥३॥ (छाया) निर्दग्धकर्मबीजाः गुणसमृद्राः त्रिजगत्प्रसिद्धाः द्वितीयपरमेष्टिनः सिद्धाः तीर्थस्य दौस्थ्यानि नन्तु (पदार्थ) (निद8 ) जलादियेहैं (कम्म) अष्टकर्मरूप ( बीआ) बीजजिन्होंने ( गुण ) सद्गुणोंसे ( समिद्धा ) व्याप्त (तिजय ) तीनोंजगतमें ( पासिद्ध) विख्यात (बीआ) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र || दुसरे (परमोणो ) परमेष्टीभगवान (सिद्धा) सिद्धसंज्ञक (तित्थरस) चतुर्विध संधके (दुत्थाणि) क्लेशोंको ( हणन्तु ) नाशकरो. ( भावार्थ ) जलदिये हैं अष्टज्ञानावरणदि कर्मरूप बीज जिन्होंने सद्गुणोंसेव्याप्त तीनो जगतमें विख्यात ऐसे दूसरे परमेष्टी भगवान सिद्ध संज्ञक चतुर्विधसंघ के क्लेशों को नाशकरो. ( गाथा ) आयारमायरंता पंचपयारं सया पया संता || आयरिया तह तित्थं निह कुतित्थं पयासन्तु ॥४॥ (छाया) ( ज्ञानदर्शनचारित्र तपोवीर्यादि) पञ्च प्रकारं आचारं (स्वयं) आचारन्तः तथा सदा ( अन्येभ्यः) प्रकाशयन्तः आचार्याः निहतकुतीर्थे ( एतादृशं ) तीर्थ प्रकाशयन्तु ( पदार्थ ) ( पंचपयारं) ज्ञान, दर्शन चारित्र, तप वीर्य ये पांच प्रकार जिसके ऐसे (आयारं ) आचारको (आयरंता) oܬ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय स्तोत्र स्वयं आचारण करनेवाले (तह) और (सया ) सदा भव्यजीवोंके अर्थ ( पयासन्त ) प्रकाश करनेवाले ऐसे (आयरिया) आचार्य (निहय) नाश किया है (कुतित्थं) बौद्धादिकुतीर्थ जिसने ऐसे ( तित्थं ) चतुर्विधसंघको ( पयासन्तु ) उद्यतकरो . (भावार्थ) ज्ञान दर्शन चारित्र तप वीर्य ये पांच हैं प्रकार जिसके ऐसे आचारको स्वयं आचारण करनेवाले और सदा भव्य जीवोंकेअर्थ प्रकाश करनेवाले ऐसे तृतीय परमेष्टी आचार्य भगवान नाश किया है बौद्धादि कुतीर्थ जिसने ऐसे चतुर्विधसंघको उद्यतकरो गाथा ) सम्मसुअवायगावायगाय सिअवायवायगावाए। पवयणपाडणीयकए वर्णन्तु सब्वस्ससंघस्स।! ५ ॥ __ (छाया) येसम्यक् श्रुतवाचकावाचकाश्च स्याद्वादवादकाः (चतुर्थ परमोष्टनः उपाध्यायाः) सर्वस्य संघस्य प्रवचनप्रत्य नीकान् अपनयन्तु Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र ॥ ( पदार्थ ) (ए) वेप्रसिद्ध ( सम्म ) उत्तमप्रकारसे (सुअ) द्वादशांगरूप सिद्धान्तके ( वायगा )वाचक ( य ) और ( वायगा ) अनेक तत्वोंकेवाचक (वा) और (सिअवाय) स्याद्वादके ( वायगा ) स्पष्टकरने वाले ऐसे चतुर्थ परमेष्टी उपाध्यायभगवान ( सव्वस्स ) संपूर्ण (संघस्स) चतुर्विधसंघके ( पवयण ) उत्तम जिनशासनके ( पडिणीयकए ) प्रवेषियोंको ( वणिन्तु ) दूर करो (भावार्थ ) वे प्रसिद्ध उत्तमप्रकारसे द्वादशांगरूप सिद्धान्तके वक्ता और अनेक तत्वोंके प्रकाशक और स्यादवादको स्पष्टकरने वाले ऐसे चतुर्थपरमेष्टी उपाध्याय भगवान सम्पूर्ण चतुर्विधसंघके जिनशासनाविहोषियोंको दूर करो (गाथा) निब्वाण साहणुज्जय साहूणंजणियसब्वसाहज्झा॥ तित्थप्पभावगाते हवन्तुपरमेष्ठिणोजइणो ॥ ६ ॥ . (छाया) निर्वागसाधनोद्यतसाधूनां जनितसर्वसाहाय्याः तीर्थप्रभावकाः ते ( पञ्चम ) परमेष्टिनः जयिनः भवन्तु Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र ॥ ( पदार्थ ) ( निव्वाण ) मोक्षके ( साहण) साधनमें ( उज्जय ) लगे हुए ( साहूणं ) साधुओंको ( जणिय ) उत्पन्नकी है ( सव्व ) सबत हासे ( साहझा ) मदत जिन्होंने (तित्थ ) चतुर्विधसंघ के ( पभावगा ) प्रभावको विख्यात करनेवाले ( ते ) वे ( परमेड्डिणो ) पञ्चमपरमेष्टी भगवान ( जइणो ) विजयी ( हवन्तु ) होओ ( भावार्थ ) मोक्ष के साधन में लगे हुए साधुओं को उत्पन्न की है सबतह से मदत जिन्होंने चतुर्विधसंघ के प्रभाव को विख्यत करनेवाले वे पञ्चमपरमेष्टी भगवान विजयी होओ. ( गाथा ) जेणाणुगयं नाणं, निव्वाणफलंच चरणमविहवई | तित्थस्स दंसणं तं मंगलमवणेउसिद्धियरम् ॥ ७ ॥ ( छाया ) येनानुगतंज्ञानं चचरणमा निर्वाणफलं भवति सिद्धिकरं तत् तीर्थस्य दर्शनं मंगुलं अपनयतु ( पदार्थ ) ( जेण ) जिससे (अणुगयं ) प्राप्त किया हुआ (नाणं) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( तंजय स्तोत्र ॥ ज्ञान (च) और ( चरणमवि ) चारित्रभी (निव्वाणफलं) मोक्षहै फल जिसका ऐसा (हबई ) होता है (सिद्धियरं) सकलकार्य साधक (तं ) वह (तित्थस्स ) तीर्थके (दसण ) दर्शन ( मंगुलं) दुर्ध्यानको ( अवणेउ ) दुरकरो (भावार्थ) जिससे प्राप्त कियाहुआ ज्ञान और चारित्र भी मोक्षफल रूप होताहै ऐसा वह सकल कार्य साधक तीर्थका दर्शन हमारे दुर्थ्यानको दूरकरो (गाथा) निच्छम्मो सुअधम्मो,समग्ग भव्वंगिवग्गकयसम्मो गुणसुष्ठियस्स संघस्स मंगलं सम्ममिह दिसउ ॥८॥ (छाया) समग्रभव्याङ्गिवर्गकृतशर्मा निश्छद्मः श्रुतधर्मः गुणसुस्थितस्य संधस्य मंगलं सम्यगिह दिशतु (पदार्थ) (समग्ग) संपूर्ण (भव्यंगि) भव्यप्राणियोंके ( वग्ग ) समुदायको ( कय ) कियाहै ( सम्मो ) सुखजिसने (निच्छम्मो ) कपटरहित (सुअधम्मो ) शास्त्रोक्त Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजय स्तोत्र ॥ धर्म ( गुण ) ज्ञानादिगुणोंमें ( सुछियस्स ) निरंतर रहेहुए ऐसे ( संघस्य ) चतुर्विधसंघको (इह ) इस जगतमें ( सम्म ) सम्यक् प्रकारसे ( मंगलं ) कल्याण दिसउ ) देओ. (भावार्थ) सम्पूर्ण भव्यप्राणियोंके समुदायको कियाहै सुख जिसने ऐसा कपटरहित जैनशास्त्रोक्तधर्म ज्ञानादिगुणोंमें निरंतर रहेहुए ऐसे चतुर्विधसंघको इसजगत में मंगल देओ. (गाथा) रम्मोचरित्तधम्मो संपाविअभब्वसत्तसिवसम्मो ॥ नीसेस किलेसहरो हवउ सया सयल संधस्स ॥९॥ (छाया) संप्रापितभव्यसत्वशिवशर्मा रम्यः चरित्रधर्मः सकलसंघस्य सदा निःशेषक्लेशहरः भवतु. . (पदार्थ) (संपाविअ) भले प्रकारसे प्राप्तकरायाहै ( भव्वसत्व) भव्य प्राणियोंको (सिव ) मोक्षरूप ( सम्मो ) सुख जिसने ( रम्मो ) सुन्दर (चरित्तधम्मो ) चारित्र रूपधर्म Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र n. . (सयल ) सम्पूर्ण ( संघस्स संघके ( सया) हमेश ( नीसेस ) सब (किलेस ) क्लेशोंको ( हरो ) नाशकरने वाला ( हवउ ) होओ. (भावार्थ ) भलेप्रकारसे प्राप्तकरायाहै भव्यप्राणियोंको मोक्षरूप सुख जिसने ऐसा सुन्दर चारित्ररूप धर्म सम्पूर्ण संधके सबक्लेशोंका हमेश नाश करनेवाला होओ. __ (गाथा) गुणगणगुरुणोगुरुणो शिवसुहमइणोकुणन्तुतित्थस्स। सिविद्धमाणपहुपय डिअस्सकुसलंसमग्गस्स ॥१०॥ (छाया) ' श्रीवर्द्धमानप्रभुप्रकटितस्यसमग्रस्यतीर्थस्य शिवसुखमतयः गुणगणगुरवः ( श्रीहरिमद्राचार्यादिधर्माचार्याः ) कुशलं कुर्वन्तु. ___ (पदार्थ) (शिवसुह ) मोक्षसुखमें ( मइणो ) मतिहौजिन्होंकी ( गुण ) ज्ञानादिगुणोंके ( गण ) समुदायकरके ( गुरुणो ) महान ऐसे श्रीहरिमद्राचार्याद्यनुरूप धर्माचार्य (सिविद्धमाणपहु ) श्रीमहावार प्रभुने ( पयडि Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र ॥ पिन- 12 अस्स ) प्रकट किया हुआ ( समग्गरस ) समग्र ( तित्थरस ) चतुर्विधसंघका (कुसलं ) कुशल ( कुणन्तु ) करो. ( भावार्थ ) मोक्षसुखमें आकांक्षा है जिन्होंकी ज्ञानादिगुणों के समुदायकरके महान ऐसे श्रीहरिभद्राचार्यादिधर्माचार्य श्रीमहावीरप्रभुने प्रकट कियाहुआ समग्र चतुर्विधसंघका कुशल करो. ( गाथा ) जियपडिवक्खा जक्खा गोमुहमायंग गयमुह पमुक्खा || सिरिखंभसंति सहिआ कयनयरक्खा सिवं दितु ॥ ११ ॥ ( छाया ) श्रीब्रह्मशान्ति सहिताः कृतनतरक्षाः गोमुखमातंग गजमुखप्रमुखा जितप्रतिपक्षाः यक्षाः शिवं ददतु. ( पदार्थ ) ( जिय ) जीते हैं ( पडित्रक्खा ) भगवान केशासनके प्रतिपक्षी जिन्होंने ( कय ) की है (नत ) नमस्कार करनेवालोंकी ( रक्खा ) रक्षा जिन्होंने ( सिरि) शोभायुक्त ( बंभसंति ) ब्रह्मशान्तियक्ष के ( सहिता ) सहित (गोमुह ) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र ॥ --- गोमुख नामकयक्ष ( मायंग ) मातंग यक्ष ( गयमुह ) गजमुखयक्ष ये यक्ष हैं ( पमुक्खा ) मुख्यजिन्होंमें ऐसे (जक्खा ) सकल यक्ष (सिवं ) कल्याण (दिन्तु) देओ. (भावार्थ) जीतेहैं भगवच्छासनप्रतिपक्षी जिन्होंने कीहै नमः स्कार करनेवालोंकी रक्षा जिन्होंने शोभायुक्त ब्रह्मशान्ति यक्षके साथ गोमुख, मातंग, गजमुखयक्ष हैं मुख्य जिन्होंमे ऐसे सकलयक्ष भगवत् स्तुति करनेवाले भव्यजी वोंको कल्याण देओ. (गाथा) अंबा पडिहयडिंबा सिद्धासिद्धाइआ पवयणस्स चक्केसरि वइस्ट्टा संतिसुरादिसउ सुक्खाण ॥१२॥ (छाया) प्रतिहत डिंबा अंबा सिद्धा सिद्धायिका चक्रेश्वरी वैरोटया शांतिसुरा प्रवचनस्य सौख्यानि दिशतु. ___(पदार्थ) ( पडिहय ) नाशकियेहैं (डिंबा) उपसर्ग जिसने ऐसी ( अंबा ) नेभिजिन भगवानकी उपासिकादेवी (सिद्धा) वर्धमानस्वामीके शासनकी रक्षासे प्रसिद्ध ऐसी (सिद्धाइया) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र । सिद्धायिका देवी ( चक्केसरी ) चक्रेश्वरी ( वइरुट्टा) वैरोटया और ( संतिसुरा ) शान्ति देवता ये देवतापंचक ( पवयणस्स ) चतुर्वर्णसंधको ( सुक्खाणि ) मनोवांछित ( दिसउ (भावार्थ) नाशकियेहैं सम्पूर्ण क्लेशादि जिसने ऐसी नेभिजिन भगवानकी उपासिका अंबादेवी, वर्द्धमानस्वामीके शासनकी रक्षासे प्रसिद्ध सिद्धायिका चक्रेश्वरी, रोट्या और शान्तिसुरा ये देवता पंचक चतुर्वर्ण संधको मनोवांछित फल देओ. (गाथा) सोलसविज्झादेवी. उदितुसंघस्समंगलंविउलं ॥ अच्छुतासहिआउ विस्सुअसुअदेवयाइसमं ॥ १३ ॥ (छाया) अच्छुप्तासहिताः विश्रुतश्रुतदेवतया समं षोडश विद्या देव्यः संघस्य विपुलं मंगलं ददतु • (पदार्थ) (अच्छुत्ता सहिआउ) अच्छुप्ता देवी सहित (विसुअ) विख्यात ऐसी (सुअदेवआइ ) श्रुतदेवताके ( समं ) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र ॥ साथ ( सोलस ) सोलह ( विझादेवी ) अधिष्टायिका विद्यादेवियां ( संघस्स ) चतुर्विघसंघको ( मंगलं ) कल्याण ( विउलं ) बहुत ( दितु) देओ. (भावार्थ) अच्छुप्तादेवी सहित विख्यात श्रुतदेवताके साथ सोलह अधिष्ठायिका विद्यादेवियां चतुर्विधसंघको अत्यंत कल्याण देओ. (गाथा) जिणसासणकयरक्खा जक्खाचउवीससासणसुरावि ॥ सुहभावासंतावं तित्थत्ससयापणा संतु ॥ १४ ॥ .... . (छाया) जिनशासनकृतरक्षाः यक्षाः च शुभभावाः चतर्विशति शासनसुराअपि सदा तीर्थस्य संतापं प्रणाशयन्तु. (पदार्थ) (जिणसासण ) जिनशासनमें उप्तन्न हुऐ हुऐ उपद्रव निवारण रूप (कयरक्खा) कीहै रक्षा जिन्होंने ऐसे (जक्खा ) यक्ष और (सुहभावा) शुभहैं भाव जिन्होंके ऐसी (चउवसि) चोवीस ( सासणसुरा ) जिनशासनकी अ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र ॥ धिष्टायिका देवियां (वि) भी (सया) सदा (तिस्थस्स) चतुर्विधसंघके (संताव) संतापको (पणासंतु) नाशकरो. (भावार्थ ) जिनशासनमें उप्तन्न हुऐ हुऐ उपद्रव निवारण रूप की है रक्षा जिन्होंने और शुभहै भाव जिन्होंके ऐसी चोवीस जिनशासनकी अघिष्टायिका देवियां भी हमेश चतुर्विध संघके संतापको नाशकरो. (गाथा) जिणपवयणमिनिरया विरयाकुपहाउसव्वहासब्बे ॥ वेयावच्चकराविय तित्थस्स हवंतु संतिकरा ॥१५॥ (छाया) जिनप्रवचने निरताः कुपथात् सर्वथा विरताः सर्वे वैयावृत्तकरा श्चापि तीर्थस्य शांतिकरा : भवन्तु, __ (पदार्थ ) (जिण पवयणमि ) जिनशास्त्रमें ( निरया ) कियाहै आदर जिन्होंने ( कुपथाउ ) महिषवध रूप निंदनीक मार्गसे ( सव्वहा ) सब प्रकारसे (विरया) जुदे (य) और ( सव्वे ) सब ( वेयावच्चकरा ) वेयावच्च करने Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ तंजय स्तोत्र ॥ वाले (वि) भी ( तित्थरस ) चतुर्विध संघको ( संतिकरा ) दुरितोपशमन करने वाले ( हवन्तु ) होओ, ( भावार्थ ) जिन शास्त्रमें किया है आदर जिन्होंने महिषवध रूप निंदनीक मार्ग से सर्वथा जुदे और सब वेयावच्च करनेवाले भी चतुर्विध संघको दुरितोपशमन करनेवाले होओ. ( गाथा ) जिणसमय सिद्ध सुमगा वहिय भव्वाण जाणय साहृज्जो || गीयरई गीयजसो स परिवारो सुहंदि - सउ ॥ १६ ॥ (छाया) जिनसमयसिद्धसुमार्गवहितभव्यानां जनितसहाय्यः सपरिवारः गीत रतिः गीतयशाः सुखं दिशतु. ( पदार्थ ) ( जिण समय) जिनशास्त्रमें (सिद्ध) निश्चित (सुभगा ) जो सुमार्ग उसमें ( वहिय ) आश्रव रहित ( भव्वाण ) भव्यजीवोंको ( जागिय ) उत्पन्न किया है ( साहज्जो ) साहाय्य जिसने ऐसेगीयरई) दक्षिण दिग्भव गतिरति Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र ॥ नामक व्यंतर और (गीयजसो ) उत्तर दिग्भव गीतयश नामक व्यंतर ( सपरिवारो ) द्वादश विध गंधर्व निकाय सहित (सुहं ) सुख ( दिसउ ) देओ। (भावार्थ) जिनशास्त्रमें निश्चित सुमार्गानुसार आराधन में सावधान ऐसे भव्य जीवोंको उत्पन्न किया है तीर्थ यात्रादि उत्सवमें सहाय जिनने ऐसे दक्षिणोत्तरभव गीतरति. और गीतयश नामके व्यंतरद्वय द्वादशविधगंधर्व निकाय सहित चतुर्विध संघको सुख देओ। (गाथा) गिहि गुत्त खित्त जल थल वण पचय वास देव देवीउ ॥ जिणसासणहिआणं दुहाणि सव्वाणि निहणंतु ॥ १७ ॥ (छाया) ग्रहगोत्रक्षेत्रजलस्थलवनपर्वतवासिदेवदेव्यः जिनशासनस्थितानां सर्वाणि दुःखानि निक्षन्तु । . (पदार्थ) - (गिहि) घरमें ( गुत्त ) गोत्रमें (खित्त) क्षेत्रमें (जल) जलमें ( थल ) स्थलमें ( वण ) वनमें (पव्वय) पर्व ३ त० स्तो Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ तंजय स्तोत्र ॥ तमें (वास) निवास करने वाले ( देव ) देवता और (देवी) देवियां (जिण सासण) जिन शासन में (डिआणं) स्थित भव्य जीवों के (सव्वाणि) संपूर्ण (दुहाणि) दु:ख (हि ं तु ) नाशकरो । ( भावार्थ ) घरमें गोत्र में क्षत्रमें जलमें स्थलमें वनमें पर्वत में निवास करने वाले देव और देवियां जिनशासन में स्थित भव्य जीवों के केश निवारण करो 1 ( गाथा ) दसदिसिपाला सखित्तपालया नवग्गहा सन - क्खत्ता || जोग राहुग्गह काल पास कुलि अद्ध पहरोहं ॥ १८ ॥ सह काल कंट एहिं सविधिवत्थेहिं कालवेला हिं॥ सव्वे सव्वत्थ सुहं दिसन्तु सव्वरस संघस्स ॥ १९ ॥ ( छाया ) सक्षेत्रपालकाः दशदिक्पालाः सनक्षत्राः नवग्रहाः योगिनी राहुग्रह कालपाश कुलिकार्धप्रहरैः सह कालकंटैः सह सविष्टिवत्सैः कालवेलाभिः सह सर्व्वे सर्व्वस्य संघस्य सर्व्वर्थसुखं दिशन्तु Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय स्तोत्र ॥ ( पदार्थ) ( सखित्तपालया ) क्षेत्रपालोंके साथ (दसदिसपाला) दशदिग्पाल (सनक्खित्ता ) सत्ताईस नक्षत्रोंके साथ ( नवग्गहा ) नोग्रह (जोइणि ) योगिनी ( राहुग्गह ) राहु नाम ग्रह ( कालपास ) कालपाशयोग (कुलिय ) कुलिकयोग ( अद्धपहरोहिं ) अर्धप्रहर योगोंके साथ ( सहकालकंट एहिं ) कालकंटक योग के साथ ( सविधि) भद्राके साथ ( वत्थेहिं ) वत्स सहित ( कालवेलाहिं ) कालवेलाके साथ ( सधे ) संपूर्ण दिक्पालादि (सब्बस्स) संपूर्ण (संघरस) संघको (सव्वत्थ) सब अर्थ सहित (सुहँ ) सुख ( दिसन्तु ) देओ। (भावार्थ) क्षेत्रपालकोंके साथ सत्ताईस नक्षत्रों के साथ योगिनी राहुग्रह कालपाशयोग, कुलिकयोग, अर्धप्रहरयोग कालकंटक योग भद्रा वत्सयोग कालवेला इत्यादि योगोंके साथ दशदिक्पाल और नवग्रह ये सब सम्पूर्ण संघको सब मनोवाञ्छितं सुख देओ। । (गाथा) ' भवणवइवाणमंतर जोइसवेमाणि यायजे देवा । धराणंदसक सहिया दलंतु दुरियाई तित्थस्सा॥२०॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० . संजय स्तोत्र ॥ (छाया) (असुरकुमाराद्या दशभेदाः) भवनपतयः ( पिशाचादिषोडशप्रकाराः) वानव्यंतराः ज्योतिष्कवैमानिकाश्चये देवाःते धरणेंद्रशक्रसहिताः (सन्तः) तीर्थस्य दुरितानि दलयन्तु । (पदार्थ ) (भवणवइ) असुरकुमारादि दस भवनपति (वाणमंतर) पिशाचादि सोलह वानव्यंतर ( जोइस ) ज्योतिष्क (य) और ( वेमाणिया ) भानिक (जे) जो ( देवा ) देवता (धरगिंदसकसहिया ) धरणेंद्रादि शकसहित होकर ( तित्थस्स ) संघके (दुरियाई ) पापों को (दलंतु ) नाशकरो। (भावार्थ) अपुरकुमारादि दश भवनपति पिशाचादि सोलहवान व्यंतर जोतिष्क और वैमानिक देवता ये सब धरणेन्द्रादि शकोंकेसाथ संघके पापोंको नाशकरो। (गाथा) चव्कंजस्सजलंतं गच्छइपुरउँ पणासियतमोहं तंतित्थस्स भगवउँ नमो नमोवद्धमाणस्स ॥२१॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र ॥ __ २१ . (छाया) प्रणाशिततमओघं तत् ज्वलच्चक्रं यस्य पुरतोगच्छति (तस्मै) तीर्थकराय भगवते वईमानाय नमो नमोऽस्तु । (पदार्थ) (पणासिय ) नाशकियाहै ( तमो हं ) अज्ञानरूप अंधकारका समूह जिसने (तं) वह अपूर्व (जलंत) तेजसे देदीप्यमान (चकं ) धर्मचक्र (जस्स ) जिन भगवान् के ( पुरउ ) आगे ( गच्छइ) चलता है ( उन) (तित्थरस ) तीर्थङ्कर (भगवउ) भगवान् (वद्धमाणरस) वईमानस्वामीको (नमो नमो) वारंवार नमस्कार. होओ। __ (भावार्थ) अज्ञानरूप अंधकारको नाशकरनेवाला तेजसे देदीप्यमान वह अपूर्व धर्मचक्र जिन भगवानके आगे चलता है उन तीर्थंकर भगवान वर्द्धमान स्वामीको वारंवार नमस्कार होओ। (गाथा) सो जयउ जिणोवीरो जस्स जविसासणं जए. जयइ । सिद्धिपहसासणं कुपहनासणं सब्वभय महणं ॥ २२ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र ॥ (छाया) स जिनवीरः जयतु यस्य सिद्धिपथशासनं कुपथनाशनं सर्वभयमथनं शासन अद्यापि जगति जयति । (पदार्थ) ( सो ) वे प्रसिद्ध (जिणोवीरो ) जिनभगवान महावीर स्वामी ( जयउ ) विजयको प्राप्तहोओ (जस्स) जिनभगवानका (सिद्धिपहसासणं) मुक्तिमार्गका उपदेशक (कुपहनासणं) मिथ्यावादी कुमार्गनाशक (सव्वभयमहणं) संपूर्णभयविध्वंसक ( सासणं) शासन (अजवि) सांप्रत भी ( जए) जगतमें (जयइ) विजयको प्राप्त होता है। (भावार्थ) वे प्रसिद्ध जिनभगवान महावीरस्वामी विजयशाली होओ. जिन परमेश्वरका मुक्तिमार्गका उपदेशक मिथ्यावादीकुमार्गनाशक संपूर्णभयविध्वंसक शासन सांप्रत भी जगतमें विजयको प्राप्त होताहै । ( गाथा) सिरिउसभसेण पमुहा हयभयनिवहा दिसंतु तित्थस्स । सवाजिणाणंगणहारिणोणहं वंछियं सव्वं ॥ २३ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय स्तोत्र ।। (छाया) श्रीऋषभसेनप्रमुखाः हतभयनिवहाः सर्वजिनानांगणधारिणः तीर्थस्य अनघसवांछितं दिशन्तु । ( पदार्थ ) (सिरि ) शोभायुक्त ( उसभसेण ) ऋषभसेनहैं ( पमुहा) प्रमुख जिन्होंमें ( हय ) नष्टहुवाहै (भय) संसारभयोंका (निवहा) समूह जिन्होंका ऐसे ( सब ) सम्पूर्ण (जिणाणं ) ऋषभ अजितादि तीर्थकरोंके ( गणहारिणो ) गणधर (तित्थस्स ) चतुर्विधसंघको ( अणहं ) अकलंकित ( सव्व ) अखिल (वछिय) अभिलषितसुख (दिसंतु ) देओ। (भावार्थ) शोभायुक्त ऋषभसेनहै प्रमुख जिन्होंमें और नष्टहुआहै संसारसंबन्धी भयसमूह जिन्होंका ऐसे सम्पूर्ण तीर्थंकरोंके १४५२ गणधर चतुर्विध संघको अकलंकित आखिल अभिलषित सुखदेओ। .. (गाथा) सिखिद्धमाणतित्थाहिवेण तित्थंसमप्पियंजस्स सम्मंसुहम्मसामी दिसउ सुहं सयलसंघस्स ॥२४॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र ॥ (छाया). • श्रीवईमानतीर्थाधिपेन तीर्थ समर्पितं सुधर्मस्वामी यस्य सकलसंघरय सम्यक् सुखं दिशतु । ( पदार्थ) (सिरि ) शोभायुक्त (वडमाणतित्थाहिवेण ) तीर्थके अधिप वईमानस्वामीने (तित्थं ) चतर्विधसंघरूपतीर्थ ( समप्पियं ) समर्पितकिया ( सुहम्मसामी ) पंचमगणधर सुधर्मस्वामी ( जस्स ) उस प्रसिद्ध (सलय ) सकल ( संघरस ) संघको ( सम्म ) भलेप्रकार ( सुहं ) सुख ( दिसउ ) देओ। ___(भावार्थ) तीर्थके. अधिप श्रीवर्धमान स्वामीने चतुर्विधसंघरूप तीर्थ समर्पितकिया. उस प्रसिद्ध संपूर्ण संघको पंचम गणधर श्रीसुधर्मस्वामी भली भांति सुखदेओ। (गाथा) पर्यईइभद्दयाजे भद्दाणि दिसन्तु सयलसंघस्स। इयरसुराविहुसम्मं जिणगणहरकहियकारिस्स॥२५॥ (छाया) भद्रयाप्रकृत्योपलक्षिताः येजीवाइतरसुराअपि सम्य Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र # ग्जिन गणधरकथितकारिणः दिशन्तु । २५ सकलसंघस्य भद्राणि ( पदार्थ ) ( भद्दया) पापरहित ( पर्यईइ ) प्रकृतिसेयुक्त (जे) जो जीव हैं वे और ( इयर) दूसरे (सुरावि ) देवताभी और ( सम्मं ) सम्यक् प्रकारसे ( जिणगणहर ) जिन गणधरोंके ( कहिय ) कथनको ( कारिस्स) करने वाले ( सयल) संपूर्ण ( संघरस ) संघको ( भद्दाणि ) कल्याण ( दिसन्तु) देओ । ( भावार्थ ) स्वभावसेही कल्याणकारी भव्यजीव और दूसरे देवता भी जिनगणधरोंकी आज्ञाको सम्यक् पालनेवाले संपूर्ण संघको कल्याण देओ । ( गाथा ) इयजो पढइति संझं दुस्सझं तस्सन च्छिकिंपि - जए । जिंणदत्ताणाय विउ सुनिट्ठियोसुहीहोइ ॥ २६ ॥ (छाया) यः नरः इदं स्तोत्रं त्रिसंध्यं पठति तस्य जगति किमिपि ४ तं स्तो० Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजय स्तोत्र ॥ दुःसाध्यं नास्ति । जिनदत्ताज्ञायांस्थितः सुनिष्ठितार्थः सन् सुखी भवति। (पदार्थ) ( जो ) जो मनुष्य ( इय ) इस स्तोत्रको (तिसंझं) त्रिकाल ( पढ़इ) पठनकरताहै (तरस ) उसको (जए) जगतमें (किंपि ) कुछभी ( दुरसझं ) दुःसाध्य ( नच्छि ) नहीं है (जिण ) जिनभगवानने (दत्त) दीहुई ( अणाय ) आज्ञामें (ठिउ) स्थित · पुरुष ( सुनिठियट्ठो) सिद्धार्थ होकर (सुही ) मोक्षमुख भागी ( होइ ) होता है। __ (भावार्थ) जो मनुष्य इस स्तोत्रको त्रिकाल पठनकरताहै उसको जगतमें कुछभी दुःसाध्य नहींहै जिनभगवानकी आज्ञा में स्थित पुरुषों की सब कामना परिपूर्ण होकर वे मोक्ष सुखभागी होतेहैं। इन्दुरदेशीय जैनश्वेताम्बर मुख्यपाठशालाध्यापक गोपीनाथसूनुपण्डित श्रीकृष्णशर्मकृतसुबोविनी व्याख्यासहितं जिनदत्तरिकृत तंजयाख्यस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥ - Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ ॥ श्रीवीतरागायनमः ॥ गुरुपारतन्त्र्य स्तोत्रम् . ॥ गाथा ॥ ॥ मयरहियगुणगणरयण सायरंसायरंपणमिऊणं । ॥ सुगुरुजणपारतंतं उवहिव्वथुणामितंचव ॥ १॥ ___(छाया) अहं उदधिमिव मदरहितं गुणगणरत्नसागरं तं सुगुरुजनपारतंत्र्यं सायरं प्रणम्य स्तवीमिचेति (चेति शब्दो समुच्चयावधारणार्थों ) प्रणम्य स्तवीभिचेति ॥१॥ चः समुच्चये अन्यस्तोतव्यत्यागेन तमेवेत्यवधारणम् । उदधिपक्षे पदच्छेदाः मकर हितं मकरेभ्यो जलजन्तु विशेषेभ्यो हितं हितकारकं गुणगणरत्नसाकारं गुणानां शूलादिरोगापहारिणां ऋद्धिवृद्धिसौभाग्यादिजनकानांच गणः ओघः सविद्यतेयेषुतानि गुणगुणरत्नानिच सा लक्ष्मीश्च तयोः आकरः स्थानं तम् सातरं सातं सुखं शति ददातीति सातरम् ॥ १॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारतव्यस्तोत्रम् ॥ . (पदार्थ ) में श्रीजिनदत्तसूरि ( अहिब ) समुद्रके समान (मयरहियं) आठप्रकारके मदोंसे रहित उदधिपक्षे (मयर) जलजंतुओको (हियं ) हितकारक ( गुणगण ) ज्ञानादिगुणों के समूह येही मानो ( रयण ) रत्न उन्होंकी (सा) लक्ष्मी उसका (आय) लाभ उसे (रं) देनेवाला उदधिपक्षे ( गुणगण) शुलादिरोगापहरण और ऋद्धिवृद्धिसौभाग्यादिजननादिगुणहैं जिन्होंमें ऐसे ( रयण ) कर्केतनादि सोलह भेदके रत्नोंकी और (सा) लक्ष्मी की (आयर ) खदान (तं ) उस प्रसिद्ध ( सुगुरुजण) सामान्यचार्योंमें युग प्रधानत्वसे श्रेष्ट श्रीसुधर्मस्वामि प्रमुख आचार्योंका समूह उनके (पारतंत) आम्नाय को ( सायरं ) भयरहित उदधिपक्षे ( साय ) सुखको (२) देनेवाला ( पणमिऊणं ) नमस्कार कर (थुणामि ) स्तुति करता हूं ॥१॥ (भावार्थ) मैं जिनदत्तसूरि जलजंतुओंको हितकारक शुलादिरोगोंके नाशक और ऋडिसिद्धिके जनक ऐसे (ककेंतनादि सोलह भेदके) रत्नोंकी खदान और अत्यन्त सुरवकारक Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरूपारतन्त्र्य स्तोत्रम् ॥ इ' समुद्रके समान अष्ठमदोंसे रहित ज्ञानादिगुणोंके समूह रूप रत्नोंकी लक्ष्मीके लाभको देनेवाले ऐसे सुगुरु सुधर्मस्वामि प्रमुख आचार्योंके आम्नायको आदर पूर्वक नमस्कार कर स्तुति करता हूं ॥ १ ॥ ॥ गाथा ॥ निम्महियमोहजोहा नियविरोहा पण संदेहा | पण यंगिवग्गदाविय सुहसंदोहा सुगुणगेा ॥ २ ॥ ( छाया ) निर्मथितमोहयोधाः निहतविरोधाः प्रणष्टसंदेहाः प्रणताङ्गिवर्गदापितसुखसंदोहाः सुगुणगेहाः ॥ २ ॥ ( पदार्थ ) ( निम्महिय ) नष्ट किये हैं ( मोहजोह ) मोहरूप योधा जिन्होंने ( पण ) नष्टकिये हैं ( संदेहा ) हृदयके संदेह जिन्होंने ( पणयंगि) प्रणाम करने वाले प्राणियोंके ( वग्ग ) समुदायको ( दाविय ) दीये हैं ( सुह ) सुखके (संदोहा) समूह जिन्होंने (सुगुण) छत्तीस श्रेष्ट गुणोंके (गेहा ) निवास स्थान ॥ २ ॥ ( भावार्थ ) नष्ट किये हैं मोहरूपयोचा जिन्होंने उन्मूलित किये Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारतः यस्तोत्रम् ॥ हैं परस्पर वैरभाव जिन्होंने दूरकिये हैं हृदयके संदेह जिन्होंने प्रणामकरने वाले प्राणियोंको दिए हैं सुख बाहुल्य जिन्होंने और छत्तीस श्रेष्ट गुणोंके निवास स्थान ॥ २ ॥ ॥ गाथा ॥ पत्तसुजइत्तसोहा समत्थपरतिथिजणियसंखोहा। पडिभग्गलोहजोहा दंसियसुमहत्थसत्योहा ॥३॥ (छाया) प्राप्तसुयतित्वशोभाः समस्तपरतीर्थिजनितसंक्षोभाः प्रतिभमलोभयोधाः दर्शितसुमहार्थशास्त्रौघाः ॥ ३ ॥ . (पदार्थ ) (पत्त.) प्राप्तकीहै ( सुजइत्त ) उत्तम यतित्व की (सोहा) शोभा जिन्होंने (समत्थ ) सम्पूर्ण (पतिथि) परतीर्थि जनोंको ( जणिय ) उत्पन्न किया है (संखोहा) संक्षोभ जिन्होंने (पडिभग्ग) नष्ट किया है (लोह) लोभरूप ( जोहा) योधा जिन्होंने ( दसिय ) बतलाया है ( सुमहत्थ ) अत्यन्त गंभीर अर्थशाली ( सत्योहा ) शास्त्र समुह जिन्होंने ॥ ३ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरूपारतन्त्र्यस्तोत्रम् ॥ ( भावार्थ ) प्राप्तकी है उत्तम यतिलकी शोभा यतित्वकी शोभा जिन्होंने सम्पूर्ण परतीर्थिजनोंको उप्तन्न किया है संक्षोभ जिन्होंने नष्ट किया है लोभरूपयोधा जिन्होंने बतलाया है अत्यन्त गंभीर अर्थशाली शास्त्र समूह जिन्होंने ॥ ३ ॥ ॥ गाथा || परिहरियसत्तवाहा हयदुहदाहासिवंबतरुसाहा || संपाविय सुलाहा खीरोदहिणुव्वअग्गाहा ॥ 8 ॥ (छाया) परिहृतत्वबाधाः हतदुःखदाहाः शिवाम्रतरुशांखाः संप्रापित सुखलाभाः क्षीरोदधिरिवागाधाः ॥ ४ ॥ ( पदार्थ ) ( परिहरिय ) नष्ट की है ( सत्त ) जीवोंकी ( वाहा ) पीडा जिन्होंने ( हय) मिटाया हैं ( दुहदाहा) दुःखरूप दाह जिन्होंने ( सिव ) मोक्षरूप ( अंबतरु ) आम्रवृक्षकी ( साहा ) शाखा समान ( संपात्रिय) सम्यक् प्रकारसे प्राप्त करवाया हैं ( सुहलाहा ) वाञ्छित सुखका लाभ जिन्होंने Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारतन्त्र्यस्तोत्रम् ॥ ( खीरोदाहिणुव्व ) क्षीरसमुद्रसमान ( अल्गाहा ) अगाध ॥४॥ (भावार्थ) दुरकीहै जीवोंकी पीडा जिन्होंने नष्ट किया है दुःखरूप दाह जिन्होंने मोक्षरूप आम्रवृक्षकी शाखा समान भलीभाँतिप्राप्तकरवायाहै भव्यजीवोंको इच्छित सुखका लाभ जिन्होंने क्षीरसमुद्रसमान अगाध ॥ ४ ॥ ॥गाथा ॥ सगुणजणजणियपुज्जा सज्जोनिरवज्जगहिय । पन्बज्जा ॥ सिवसुहसाहणसज्जा भवगुरुगिरिचूरणेवजा ॥५॥ (छाया) सगुणजनजनितपूजाः सद्योनिरवद्यगृहीतप्रव्रज्याः - सुखसाधनसज्जाः भवगुरुगिरिचूर्णनेबज्राः ॥ ५ ॥ (पदार्थ ) सगुण ) सद्गुणोंसे युक्त ( जण) भव्यजीवोंने ) की है ( पुज्जा ) पूजा जिन्होंकी . ) तत्काल (निरवज्ज) पापरहित (गहिय ) कार की यै ( पवज्जा) प्रव्रज्याचारित्रदीक्षा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारतन्त्र्यस्तोत्रम् ॥ जिन्होंने ( सिवसुह ) मोक्षसुखके ( साहण ) साधनमें ( सज्जा ) सावधान (भव ) संसाररूप (गुरुगिरि ) भारी पर्वत को ( चूरणे ) नष्ट करने में (वज्जा ) वज्रके समान ॥५॥ (भावार्थ) सद्गुणोसे युक्त भव्यजीवोनेकीहै पूजा जिन्होंकी तत्काल अंगीकार की है पापरहित चारित्रकी दीक्षा जिन्होंने मोक्षसुख के साधनमें सावधान संसाररूप भारीपर्वतको नष्ट करनेमें वज्रके समान ॥ ५ ॥ . ॥गाथा ॥ अजमुहम्मप्पमुहा गुणगणनिवहासुरिंदविहियमहा। ताणतिसंझनामं नामंनपणासइ जियाणं ।।। .. (छाया) गुणगणानिवहाः सुरेंद्रविहितमहाः ( एतादृशाः) आर्यसुधर्मप्रमुखाः गणधराः सन्ति तेषां त्रिसंध्यं (स्मृतं) नाम जीवानां आमं न प्रणाशयतीति न अपितु प्रणाशयत्येव ॥ ६ ॥ ' (पदार्थ) ( गुणगण ) आचार्य के छत्तीस सद्गुणोंके समुदाय को ( निवहा ) निरंतर धारण करने वाले ( सुरिंद) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरूपारतन्त्र्यस्तोत्रम् || देवोंके अधिपति इन्द्रने ( विहिय ) की है (महा) पूजा जिन्होंकी ऐसे ( अज्ज ) पूज्य ( सुहम्म ) सुधर्म स्वामी हैं ( प्पमुहा ) मुख्य जिन्होंमें ऐसे गणधरोंका ( तिसंझं ) त्रिकाल ( नाम ) नामस्मरण ( जियाणं ) जीवोंकी ( आमं ) व्याधियोंको ( न षणासइ) नहीं प्रणाश करता ( न ) ऐसा नहीं अर्थात् प्रणाश करताही है ॥ ६ ॥ ( भावार्थ ) आचार्य के छत्तीस गुणों को निरंतर धारण करनेवाले, देवाधिपति इन्द्र ने की है पूजा जिन्होंकी, ऐसे परम पूज्य सुधर्मस्वामी प्रमुख गणधरोंका त्रिकाल नामस्मरण जीवोंकी सकल आधिव्याधियोंको नष्ट करता है ॥ ७ ॥ ॥ गाथा ॥ पडिवज्जियजिणदेवो देवायरिदुरंतभवहारि । सिरिनेमिचंद सूरि उज्जोयणमूरिणोसुगुरू ॥ ७ ॥ ( छाया ) प्रतिपन्नजिनदेवः देवाचार्यः दुरंतभवहारी श्रीमचन्द्रसूरिः सुगुरुः उद्योतनसूरिः एतेत्रयः विजयंन्तामित्यध्याहार्य्यम् ॥ ७ ॥ ८ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारंतव्यस्तोत्रम् ॥ (पदार्थ) (पडिवज्जिय ) अङ्गीकार किया है (जिणदेवो ) जिनदेव जिनने ऐसे ( देवायरिउ ) देवाचार्य ( दुरंत ) दुष्ट है परिणाम जिसका ऐसे ( भव ) संसारको (हारि ) हरण करने वाले (सिरिने मिचंदसूरि ) श्रीनेमिचन्द्रसूरि और ( सुगुरु ) अज्ञानरूप अंधकारको रोकनेमें समर्थ ऐसे ( उज्जोयणसूरि ) उतनसूरि विजयको प्राप्त होओ ॥ ७ ॥ (भावार्थ) आत्मकल्याणके हेतु अङ्गीकार किया है जिनदेव जिनने ऐसे देवाचार्य और दुष्ट है परिणाम जिसका ऐसे संसारको हरण करनेवाले श्रीनेमिचन्द्रसूरि और अज्ञानरूप अंधकारको रोकनेमें समर्थ ऐसे उद्योतनसूरि विजयको प्राप्त होओ ॥ ७॥ ॥ अथ वर्धमानसूरिस्तुतिमाह ॥ ॥ गाथा ॥ सिरिवद्धमाणसूरि पयडीकयसूरि मंतमाहप्पो । पडिहयकसायपसरो सरयससंकुव्वसुहजणउँ ॥८॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारतंत्र्य स्तोत्रम् ॥ (छाया) . प्रकटीकृतसूरिमंत्रमाहात्म्यः प्रतिहतकषायप्रसरः शरच्छशांक इव सुखजनकः श्रीवर्धमानसूरिः नंदतात् ॥८॥ (पदार्थ) ( पयडीकय ) प्रकट कियाहै ( सूरिमंत ) सूरिमंत्रका ( माहप्पो) प्रभाव जिनने (पडिहय ) नष्ट किया . है (कसाय ) कामक्रोधादिकषायोंका ( पसरो ) प्रसार जिनने ( सरय ) शरत्कालिक ( ससंकुव्व ) चन्द्रसमान ( सुहजणउ ) सुख उत्पन्न करनेवाले ऐसे ( सिविद्धमाणसूरि ) श्रीवईमानसूरि उत्कर्षशाली होओ॥८॥ (भावार्थ) प्रकट किया है सूरिमंत्रका प्रभाव जिनने नष्ट कियाहै कामक्रोधादिकषायोंका प्रसार जिनने शरत्कालिक चन्द्रसमान सुख उत्पन्न करनेवाले ऐसे श्रीवईमानसरि उत्कर्षशाली होओ ॥ ८ ॥ अथ वसतिमार्गप्रकाशकश्रीजिनेश्वरसूरिस्तुति गाथात्रयेणाह सुहसीलचोरचप्परण पचलोनिचलोजिणमयंभि । जुगपवरसुद्धसिद्धंत जाणउ पणयसुगुणजणो ॥९॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपरतन्त्र्य स्तोत्रम् ॥ - (छाया) सुवशीलचौरनिराकरणसमर्थः जिनमते निश्चलः युगप्रवरशुद्धसिद्धान्तज्ञातःप्रणतसुगुणजनः ( चपरणपञ्चल शब्दो क्रमेणनिरास समर्थ वाचकौ ) ॥९॥ (पदार्थ) (सुहसील ) विषयसुखमैलंपट ( चोर ) केवलसाधुवेश धारणकरनेवाले और विश्वस्तभक्त जनोंके जैनसम्यक्त्व बोधिरत्नोंको असदुपदेशद्वारा चुरानेवाले ऐसे लिङ्गी साधुओंके ( चप्परण) द्वारा जिनराजसिद्धान्तोक्त युक्ति द्वारा बलात्कारसे मतखण्डनमें (पच्चल) समर्थ (जिणमयंमि) जिनतमे (निच्चलो ) निश्चल (जुगपवर ) युगप्रवर सुधर्म स्वामीके ( सुद्ध सिद्धत ) निदोष अंगोपांगरूप सिद्वान्तके निरंतर अभ्याससे ( जाण) प्रसिद्ध और (पणय) प्रणाम करतेहैं ( सुगुण ) सद्गुणी ( जणो) जन जिनको ॥ ९ ॥ (भावार्थ) विषयसुखमें लंपट केवल साधु वेषकोहि धारणकरने वाले भक्तजनोंके जैनसम्यक्त्व बोधिरत्नोंको असदुपदेशद्वारा चुरानेवाले ऐसे लिडीसाधुओंके जिनराज Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवारतः यस्तोत्रम् ॥ सिद्धान्तोक्तयुक्तिपूर्वक बलात्कारले मतखण्डनमें समर्थ, और जिनमत में निश्चल, और युगप्रवर सुधर्मस्वामी के निर्दोष अङ्गोपाङ्गरूप सिद्धान्त के निरंतर अभ्यास से प्रसिद्ध, और प्रणाम करते हैं सद्गुणीजन जिनको ऐसे ॥ ९ ॥ ॥ गाथा ॥ १२ पुरउदुलहमहिवलहस्स अणहिलवाडएपयडं । मुकाविआरिऊणं सीहेणवदव्वलिंगिगया || १० || ( छाया ) (a) अनहिपाटके दुर्लभमहीवल्लभस्य पुरतः विचार्य सिंहेन गजा इव प्रकटं लिंगिनः मुक्ताः ॥ १० ॥ ( पदार्थ ) ( अणहिलवाडए) अनहिल पाटक नामके नगर में ( दुलह महिलहस्त ) दुर्लभसंज्ञक राजाके ( पुरउ ) सामने ( विआरिऊणं ) वाद प्रतिवाद कर ( सीहेणवदव्वगया ) जैसे सिंह हाथियोंको चीरकर फेंक देता है वेसेही ( पयडं ) सब लोगों के सामने ( लिंग ) शिथिलाचारी साधु ( मुक्का ) जिनदत्तसू रिसे शास्त्रार्थ में हराएगऐ ॥ १० ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपास्ताव्यस्तोत्रम् ॥ (भावार्थ ) अनहिल्लपाटकनामके नगरमें दुर्लभ संज्ञकराजाके समक्ष श्री जिनदत्तसृरिने शिथिलाचारी साधुओंसे वाद प्रतिवाद किया, और जैसे सिंह हाथिओंसे सामनाकर उन्हें चीरकर फेंकदेताहै वैसेही जिनदत्तसूरिने शास्त्रार्थमें उन शिथिलाचारियोंको पराजित किया ॥ १०॥ ॥गाथा ॥ दशमच्छेरयनिसिविप्फुरंत सच्छन्दसूरिमयतिमिरम् । सूरेणवसूरिजिणे, सरेण हयमहियदोसेण ॥११॥ (छाया) अहितदोषेण सूरिजिनेश्वरेण दशमाश्चनिशि विस्फुरतस्वछन्दसूरिमततिमिरं सूरेणेवहतम् ॥ ११ ॥ ... ( पदार्थ) ( अहिय ) नहीं प्रिय हैं ( दोसेण ) रागादि दोष जिनको ऐसे (सूरिजिणेसरेण) सूरिजनेश्वराचार्यने ( दशमन्छेरयनिसी ) दशम असंयमीरूप पूजा लक्षणआश्चर्यरूप रात्रि में ( विफ्फुरन्त ) स्फुरा यमाण ( सच्छन्दसूरिमयतिमिरं) अपने इच्छानुसार चलनेवाले . शिथिलाचारियोंका मतरूप अन्धकार ( सूरेणव ) सूर्यकेसमान (हयम् ) नष्ट किया ॥ ११ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारतन्त्र्यस्तोत्रम् ॥ (भावार्थ ) जैसे सूर्य रात्रिके अन्धकारको सत्वर नष्ट करता है वैसे ही रागादि दोषरहित सूरिजिनेश्वराचार्यने दशम असंयमीरूप पूजा लक्षण आश्चर्य रूप रात्रिमें स्फुरायमाण स्वच्छन्द शिथिलाचारियोंका मतरूप अन्धकारको शीघ्र नष्ट किया ॥ ११ ॥ अथ जिनचन्द्रसुरिस्तुतिं श्लेषालंकारेणाह ॥गाथा ॥ सुकइत्तपत्तकित्ती पयडिअगुत्तीपसंतसुहमुत्ती । पहयपरवाइदित्ती जिणचन्दजईसरोमंती ॥ १२ ॥ ___(छाया) सुकवित्वप्राप्तकीर्तिः प्रकटितगुप्तिः प्रशान्तशुभमूर्तिः प्रहतपरवादिदीहिः मंत्री जिनचन्द्रयतश्विरः नंदतात् ।।१२।। (पदार्थ ) ( सुकइत्त ) सुकवित्वद्वारा (पत्तकित्ती ) प्राप्त की है कीर्ति जिनने ( पयडिअ) प्रकट की है (गुत्ती) मनोवाक्वायसंवरणादिरूप गुप्ति जिनने ( पसंत ) क्रोधादिकषायरहित ( सुह ) मंगलकारक है ( मुत्ती ) शरीर जिनका ( पहय ) निरस्त किया है ( परवाइ) Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरूपारतन्त्र्य स्तोत्रम् ॥ १५ पर वादियोंका ( दित्ती ) तेज जिनने ( मंती ) मंत्राचार्य ऐसे ( जिणचन्दजईसरो ) जिणचन्द्र यतीश्वर उत्कर्ष शाली होओ ॥ १२ ॥ ( भावार्थ ) सुकवित्वद्वारा प्राप्तकी है कीर्ति जिनने प्रकट की है मनोवाक्काय संवरणादिरूप गुप्ति जिनने कोधादिकषाय रहित और मंगलकारक है मूर्ति जिनकी नष्ट किया है परवादियोंका तेज जिनने और मंत्रोंके आचार्य ऐसे जिनचन्द्रयतीश्वर विजय शाली होओ ॥ १२ ॥ अथ नवाङ्गवृत्तिकारकं श्री अभयदेवसूरिं गाथा - द्वयेन वर्णयति || गाथा || पयडियन व मुत्तत्थरयण कोसो पणासिय पउंसो । भव भीय भवियजणमणकयसंतोसो विगय दोसो ॥ १३ ॥ जुगपवरागमसार परूवणा करणबंधुरोधणियं । सिरिअभयदेवसूरी मुणिपवरो परमपसमधरो ॥ १४ ॥ (छाया) प्रकटितनवाङ्गसूत्रार्थरत्नकोशः प्रणाशित प्रद्वेषः भवभीतभविकजनमनः कृतसंतोषः विगतदोषः ॥ १३ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुप.रतन्त्र्यस्तोत्रम् ॥ युगप्रवरागमसारप्ररूपणाकरणबंधुरः अत्यर्थं मुनिप्रवरः परमप्रशमधरः श्रीअभयदेवसूरिः विजयते ॥ १४ ॥ ( पदार्थ ) ( पयडिय ) प्रकट किया है ( नवंग ) नांगके ( सुत्तत्थ ) सूत्रार्थरूप ( रणयकोसो ) रत्नोंका भाण्डार जिनने ( पणासिय ) उन्मूलित किया है ( पउसो ) प्रदेष जिनने ( भवभीय ) संसारसे डरे हुए ( भक्यिजणमण ) भविक जनोंके मनको ( कयसंतोसो) किया है संतोष जिनने (विगयदोसो) गए हैं समस्त दोष जिनके ( जुगपवरागम) युगके विषय प्रकृष्ट शास्त्रको धारण करनेवाले ऐसे कालिक सूरियोंके ( सार ) सिद्धान्तों का अनुसरण करनेवाली (प्परूवणा ) चौथी पर्युषणादिकोंके (करण) आचरण से ( बंधुरः ) मनोज्ञ ( धणियं ) अत्यर्थ ( मुणिपवरो) मुनियों में श्रेष्ट ( परम ) उत्कृष्ट ( पसम ) शान्तिको (धरो) धारण करनेवाले (सिरिअभयदेवसूरी ) श्रीअभयदेवसूरि विजयशाली होओ ॥ १३-१४॥ (भावार्थ) प्रकटकियाहै नवांगके सूत्रार्थरूप रत्नोंका भाण्डार Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारतभ्यस्तोत्रम् ॥ जिनने, उन्मूलित किया है प्रद्वेष जिनने, संसारसे डरे हए भविक जनोंके मनको किया है संतोष जिनने, गए हैं समस्त दोष जिनके, युगमें प्रकृष्ट शास्त्रको धारण करनेवाले, ऐसे कालिक सूरियोंके सिद्धान्तको अनुसरण करनेवाली चौथी पर्युषणादिकोंके आचरणसे मनोझ, मुनियोंमें अत्यन्त श्रेष्ट, उत्कृष्ट शान्तिको धारण करनेवाले, ऐसे श्रीअभयदेवसूरि विजयशाली होओ ॥ १३-१४ ॥ अथ स्वगुरोः श्रीजिनवल्लभसूरेः स्तुलै सिंहप्रकृतित्वं गाथाद्वयेनाह. (गाथा ) कयसाल्यसत्तासो हरिव्वसारंगभग्गसंदेहो । गयसमय दप्पदलणो आसाइयपवरकव्वरसो।१५। भीमभवकाणणमि दंसियगुरुवयणरयणसंदोहो । नासेससतगुरुउंसूरीजिणवल्लहोजयइ ॥ १६ ॥ छाया (प्रभुपक्षे) कृतश्रावकसत्याशः सारांगभग्नसंदेहः गतसमयदर्पदलनः आस्वादितप्रवरकाव्यरसः दर्शितगुरुवचनरचनसंदोहः निःशेषसत्वगुरुकः एतादृशः सरिजिनवल्लभः भीमभवकानने हरिव जयति Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ गुरुपारतन्त्र्यस्तोत्रम् ॥ ( हरिपक्षे ) कृतश्वापदसंत्रासः सारंगभग्नसंदेहः समदगजदर्पदलनः आस्वादितप्रवरक्रव्यरसः दर्शितगुरुवदनरदनसंदोहः निःशेषसत्वगुरुकः ( पदार्थ) (कय) परिपूर्णकी है (सावय) श्रावकोंकी (सन्तासो) शुभ आकांक्षा जिनने ( सारंग) प्रधान आचारादि अंगोंसे (भग्गसंदेहो) दूर कियाहै संदेह जिनने (गय ) भ्रष्ट हुआहै ( समय ) सिद्धांत जिन्होंसे ऐसे चोरासी आचार्योंके ( दप्प ) अभिमानको ( दलणो) नष्टकरनेवाले (आसाइय) आस्वादित कियाहै (पवर ) सर्वोत्तम ( कन्दरसो ) काव्यरस जिन्होंने ( दसिय ) प्रकट कियाहै (गुरुवयण) श्रीअभयदेवसरिके वचनोंकी ( रयण ) रचनाओंका (संदोहो ) समूह जिन्होंने ( नासेस ) सम्पूर्ण ( सत्त ) जीवोंके (गुरुउ ) अज्ञानांधकारको दूरकरनेवाले ऐसे ( सूरी जिगवल्लहो ) सरि जिनवलभ ( भीम ) भयंकर (भवकाणणंमि ) संसाररूप वनमें ( हरिष ) सिंहके समान (जयइ ) विजय शाली हैं। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारतन्न्यस्तोत्रम् ।। (सिंहपक्षे पदार्थः) ( कय ) कियाहै ( साक्य ) जानवरोंको ( सत्तासा) भय जिसने ( सारंग ) मृगोंके ( भग्ग ) भग्न कियेहैं ( संदेहो ) शरीर जिसने ( समय ) मदोन्मत्त (गय) हाथियोंके ( दप्प ) दर्पका (दलणो) नाशकियाहै जिसने ( आसाइय) चखाहै ( पवर ) नये ( कव्व ) मांसका ( रसो) रसजिसने ( सीय) दिखायाहै ( गुरु ) भारी ( वदन ) मुखमें ( रदन) दांतोंका ( संदोहो ) समूह जिसने ( नीसेस ) सम्पूर्ण ( सत्त) पशुओंमें ( गुरुओ) बडा ऐसे ( हरिव ) सिंहके समान जिनवल्लभसूरि विजयशाली हैं। .( भावार्थ ) परिपूर्ण किये हैं श्रावकोंके शुभ मनोरथ जिनने प्रधान आचारादि अंगोंसे दूर किये हैं संदेह जिनने भ्रष्ट हुआहै सिद्धान्त जिन्होंसे ऐसे चोरासी आचार्यों के अभिमानका नाशकरनेवाले आस्वादित कियाहै सर्वोत्तम काव्यरस जिनने प्रकट कीहै नवांगवृतिलक्षण श्रीअभयदेवसूरिके वचनों की रचना जिनने सम्पूर्ण जीवोंके अज्ञानांधकारको दूरकरनेवाले ऐसे सूरि. जिनवल्लभ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० गुरुपारतन्त्र्यस्तोत्रम् || भयंकर संसार रूप वनमें सिंहके समान विजयशाली होओ । ( सिंहपक्षे भावार्थ: ) किया है पशुओं को भय जिसने मृगोंके भन किये हैं शरीर जिसने मदोन्मत्त हाथियोंके दर्पको दलन किया है जिसने चखा है नूतन मांसकारस जिसने दिखाया है अपने भारी मुखमें दांतोंका समूह जिसने सम्पूर्ण पशुओंमे बड़े एसे सिंह के समान. अथ गाथा द्वयेन तस्यैव खगुरोः जिनवल्लभसूरेः सर्वोत्तमत्वं शरभोपम्येन श्लेषपूर्वकमाह ॥ ॥ गाथा ॥ उवरि लियसच्चरणो चउरणुउगप्पहाण संचरणो । असममयरायमहणो उट्टमुहोसह जस्सकरो ||१७|| दंसियनिम्मलनिच्चल दन्तगणोगणियसावउछ भजे । गुरुगिरिगुरुउसर हुन्न मूरिजिणवहशेहोछा ॥ १८ ॥ ( छाया प्रभुपक्षे ) उपरि स्थितसच्चरणः चतुरनुयोग प्रधानसंचरणः अस ममदराजमहनः असममदरागमथनोवा ऊर्ध्वमुखोयस्थकरः Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोभते तथाभूतः दर्शितनिर्मलनिश्चलदान्तगणः अगणितश्रावकोत्थभयः गुरुगिरिगुरुकः जिनवल्लभसारः शरभइवाभूत् ॥ (शरभपक्षे) उपरिस्थितसच्चरणः चतुरनुयोगप्रधानसंचरणः असम मृगराजमथनः ऊर्ध्वमुखोयस्यकरः शोभते तथा भूतः दर्शितनिर्मलनिश्चलदन्तगणः अगणितश्वापदोत्थभयः गुरुगिरिगुरकः भवति हि शरभोऽपि तथैव सूरि जिनवल्छ भोऽभूत् ॥ १७-१८ ॥ (पदार्थ ) ( उवरिद्विय ) सब आचार्योंसे अत्युत्तम है ( सत् ) शोभायमान ( चरणो) चारित्र जिनका ( चउरणुउग) द्रव्यानुयोग १ कालानुयोग २ गणितानुयोग ३ और धर्मानुयोग ४ इन चार अनुयोगसे (प्पहाण) प्रधान है (संचरणो) प्रवर्तन जिनका (असम) उत्कट है ( मय ) मदः जिन्होंका ऐसे (रायः) राजाओंसे कियागया हैं ( महणो ) पूजन जिनका, अथवा (असम) क्रोध ( मय ) गर्व और ( राय ) राग इनका ( महणो) नाश करनेवाले Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ गुरुपारतव्यस्तोत्रम् ॥ ( उढमुहो ) व्याख्यानके प्रस्तावमें ऊर्ध्वमुख (सहइ) शोभायमान है ( जस्स ) जिनका ( करो ) हात ऐसे ( दसिय ) दिखाया है ( निम्मल ) पापरहित (निच्चल) भली भांति व्रतके पालन में तत्पर ऐसा ( दन्तगगो) मुनिसमूह जिनने, अगणिय नहीं गिना है ( सावउछ ) श्रावकोंका (भउ ) अपेक्षा लक्षण भय जिनने अथवा सुसाधुओंसे परिवृत होनेसे (अगणिय) नहीं गिना है ( सावउछ ) मिथ्यात्वी श्रावकोंका ( भउ ) भय जिनने, ( गुरु ) श्रेष्ट (गिरि ) वाणीमें ( गुरुउ ) उत्कृष्ट, (सरहु ) अष्टापदके (व्व ) समान (सरि ) सरि ( जिणवल्लहो ) जिनवल्लभ ( होछा ) हुए अथवा थे ॥ १७-१८ ॥ - (शरभपक्षे ) पदार्थ ( उवरि ठिय) ऊर्ध्व देशमें स्थित हैं ( सत् ) विद्यमान (चरणो) पांव जिसके, (चउरणुउग) चार पांवके सम्बन्धसे (प्पहाण ) प्रधान हैं ( संचरणो ) संचार जिसका, ( असम ) असाधारण बलवाले ( मयराय ) सिंहका ( महणों ) नाश करने वाला, ( उट्ठमुहो) लीलावशसे ऊंचा किया हुआ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारतन्त्र्यस्तोत्रम् || ( सहई) शोभायमान है ( जस्स ) जिसका (करो) शुण्डादण्ड अर्थात् सूंड ऐसा, ( दसिय ) दिखाया है (निम्मल ) शुभ्र और (निच्चल ) दृढ़ ( दन्त ) दांतोका ( गणो ) समूह जिसने, (गणिय ) नहीं गिना है ( सावउँछ ) श्वापदोंका ( भउ ) भयं जिसने, (गुरु ) बडे (गिरि ) पर्वतके समान (गुरुङ) उंचा ऐसा जो शरभ उसके समान सूरि जिनवल्लभ थे॥ १७-१८॥ (भावार्थ) सब आचार्योंसे उत्तम चारित्रवाले, द्रव्यानुयोग १ कालानुयोग २ गणितानुयोग ३ और धर्मानुयोग ४ इन चार अनुयोगोंसे प्रधान है प्रवर्तन जिन्होंका अत्यंत गर्व करनेवाले राजाओंकेभी पूज्य अथवा क्रोध गर्व और राग इनका नाश करनेवाले, व्याख्यानके समय जिनका ऊंचा किया हुआ हात शोभता है ऐसे, मुक्तिमार्ग बतलाकर जिनने पापरहित और व्रताचरणमें तत्पर ऐसे मुनिओंका समूह बतलाया, सुसाधुओंसे नित्य घिरे होनेके कारण जिनको मिथ्यात्वी श्रावकोंका कुछ भय नहीं था, प्रतिज्ञा पूरीकरनेके कारण जो Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारतन्ध्यस्तोत्रम् ॥ श्रेष्ट वाणीके कथन में उत्कृष्ट थे, वे सूरिजिनकल्लभ अष्टापद के समान हुए ॥ १७-१८॥ (शरभपक्षे ) भावर्थ उपर किये हुए है पांव जिसने, चार पांवके सम्बन्धसे संचार करनेवाला, बड़े पराक्रमी सिंहको मारनेवाला, ऊंची उठानेसे जिसकी सूंड शोभायमान है, अपने शुभ्र और दृढ़ ऐसे चार दांतोको दिखाने वाला, जिसको किसी पशुका बिलकुल भय नहीं है और जिसका शरीर बडे पहाडके समान है ऐसे शरभके तुल्य सूरि जिनवल्लभ हुए ॥ १७-१८ ॥ अथ विशेषेणस्वगुरोर्गुणोच्चारणपूर्वकं वन्दनं करोति ॥ गाथा ॥ जुगपवसगमपीउ सपाणपाणियमणाकयाभवा। जेणजिणवल्लहेणं गुरुणातंसबहावन्दे ॥ १९ ॥ (छाया) येन जिनवल्लभेन गुरुणा भव्याः युगप्रवरागमपीयूषपानप्रीणितमनसः कृताः तं सर्वथा वन्दे ॥ ( मनसः इति सकारस्य मूले प्राकृतत्वाल्लोपः। ) ॥ १९ ॥ (पदार्थ) ( जुग ) युगमें ( पवरागम ) श्रेष्ट सिद्धान्तरूप Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु पारतन्त्र्य स्तोत्रम् || २५ ( पीउस ) अमृतके ( पाण) प्राशनसे ( पीणिय ) सन्तोषित हैं ( मणा ) मन जिन्होंके ऐसे ( कया ) किये हैं (भव्वा ) समस्त भव्य जीव ( जेण ) जिन ( जिणवणं) जिनवल्लभ ( गुरुणा ) गुरुने ( तं ) उनको (सहा) मनवचनकाय से ( वन्दे ) नमस्कार करता हूं ॥ १९ ॥ ( भावार्थ ) युगके बीच में श्रेष्ट सिद्धान्तरूप अमृत पिलाकर समस्त भव्य जीवोंके मनको सन्तुष्ट करनेवाले तत्वोपदेशक जिनवल्लभ सूरिको मनसे, वाणीसे और शरीर से मैं नमस्कार करता हूं ॥ १९ अथ गाथा इयेन सुधर्मस्वाम्यादिगुरुपारतन्त्र्यसर्वसंघभारवहन क्षमस्य गुरोरुत्कर्षमाह । ॥ गाथा ॥ विप्फुरियपवरपवयण सिरोमणी वढदूव्वहर व मोया जोसे साणंसेस व्वसहइस ताणताणकरो || २० || सच्चरियाणमहीणं सुगुरूणंपारतंतमुव्वहइ जयइ जिणदत्तमूरी सिरिनिलउं पणय मुणितिलउं ॥ २१ ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारतन्त्र्यस्तोत्रम् ॥ (छाया) विस्फुरितप्रवरप्रवचनशिरोमणिः व्यूढदुर्वहक्षमः यः शेषाणां शेष इव (यः) सत्वानांत्राणकरः सन् सहते, ( यः ) सच्चरितानां सुगुरुणामहीनं पारतंत्र्य मुद्दहति ( सः ) श्रीनिलयः प्रणतमुनितिलकः जिनदत्त सूरिः जयति ॥ २०.२१ ॥ (पदार्थ) (विप्फुरिय) निकला है ( पवर ) श्रेष्ट ( पश्यण) सिद्धान्त जिनसे ऐसे आचार्योंमें ( सिरोमणी ) मस्तक के मणिके समान ( बूढ ) धारण की है ( दुबह ) धारण करनेको कठिन ( खमो ) क्षमा जिनने, (जो) जो ( सेसाणं ) तत्कालवर्ती अन्य आचार्योंमें (सेसुव्य) शेषके समान अर्थात् पूज्य हैं, जो ( सच्चरियाणं ) उत्तम आचार वाले ( सुगुरुणं ) अपने श्रेष्ट गुरुओंका ( अहीणं ) सम्पूर्ण ( पारतन्तं ) पारतन्त्र्य (उन्वहइ) धारण करते हैं, वे (सिरि ) समस्त लक्ष्मीके (निलउ) संस्थान और (पणय ) नमस्कार करनेवाले [ मुणि] साधुओंमें ( तिल ) तिलकके समान ऐसे ( जिण ) जिनोंने ( दत्त ) ज्ञानादिगुणोंसेयुक्त दिखाये हुए Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारतन्त्र्यस्तोत्रम् ॥ २७ ( सूरि) सूरि ( जयइ ) कुतीर्थादि निराकरण द्वारा विजयशाली होवें. ( यहां स्तोत्र कर्तानें अपना 'जिनदत्तसूरि ' यह नाम भी प्रकट कर दिया है. ) ( भावार्थ ) जिनसे श्रेष्ट सिद्धान्त निकला है ऐसे आचार्योंके मस्तक के मणिके समान, धारण करनेको अत्यन्तकठिन ऐसी क्षमावाले, तत्कालवर्ती आचार्यों में परमपूज्य, आचार तत्पर ऐसे अपने सद्गुरुओंका पूर्ण पारतन्त्र्य धारण करनेवाले, समस्त लक्ष्मी के संस्थान, नमस्कार करने वाले साधुओंमेंश्रेष्ट ऐसे जिनदत्तसूरि विजयशाली होवे । इति श्री इन्दुर जैन श्वेताम्बरपाठशालामुख्याध्यापकचोबे कुलोद्भव श्रीगोपीनाथ सूनु पण्डित श्रीकृष्ण शर्मकृतसुबोधिनीटीका सहितं 66 गुरुपारतन्त्र्यस्तोत्रं " समाप्तम् ॥ Page #190 --------------------------------------------------------------------------  Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सिग्घमवहरस्तोत्रं प्रारभ्यते । ॥श्रीमहावीरायनमः ॥ ॥ गाथा ॥ सिग्यमवहरउविग्धं जिणवीराणाणुगामिसंघस्स । सिरिपासजिणोथंभण पुरहिउ निद्रियाणिहो ॥१॥ (छाया) जिनवीराज्ञानुगामिसंघस्य निष्टितानिष्टः स्तंभनकपुरस्थितः श्रीपार्श्वजिनः विघ्नं शीघ्रं अपहरतु ॥ १॥ (पदार्थ ) (जिनवीर ) श्रीमहावीरस्वामीकी ( आगा ) आज्ञा को (अणुगामि ) माननेवाले ( संघरस ) संघके (निविआ ) नाशकिये हैं (अणिट्ठो) अनभिमत जिनने Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिग्घमवहर स्तोत्र ॥ ऐसे ( भणपुर ) स्तंभनपुरमें (डिओ ) रहनेवाले (सिरिपासजिणो ) श्रीपार्श्वजिनभगवान (विग्धं ) अन्तरायका ( सिग्धं ) जलदीसे ( अवहरउ ) नाशकरें ॥१॥ (भावार्थ) श्री महावीरप्रभुकी आज्ञाको पालनकरनेवाले चतुर्विधसंघके पापोंको नाश कियाहै जिनने ऐसे स्तंभनकपुरमें निवास करनेवाले श्रीपार्श्वजिनभगवान अन्तरायका सत्वर नाशकरें ॥१॥ ॥गाथा ॥ गोयमसुहम्मपमुहा मणवइणोविहियभव्वसत्त. सुहा । सिरिवद्धमाणजिणतित्थ, सुत्थयंते कुणंतु. सया ॥२॥ (छाया) तेगौतमसुधर्मप्रमुखाः विहितभव्यसत्वसुखाः गणपतयः सदा श्रीवईमानाजनतीर्थस्वस्थतां कुर्वन्तु ॥ २ ॥ (पदार्थ ) (ते ) वे प्रसिद्ध, ( गोयम ) गौतमस्वामी और ( सुइम्म ) सुधर्मस्वामी हैं ( पमुहा ) मुख्य जिन्होंमें Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंग्घमवहर स्तोत्र ॥ (विहिय ) कियाहै ( भब्यसत्त ) भव्यजीवोंको (सुहा) सुख जिन्होंने ऐसे (गणवदणो ) गणधर ( सया) निरंतर (सिरिवद्धमाणजिण)श्रीमहावीरप्रभु जिनभगवानने स्थापनकिएहुए (तित्थ ) चतुर्विधसंघकी ( सुत्थयं ) निरुपद्रवता ( कुणन्तु ) करें ॥२॥ _ (भावार्थ) .. . वे प्रसिद्ध गौतमस्वामी और सुधर्मस्वामी, प्रमुख जिन्होंमे कियाहै भव्यजीवोंको सुख जिन्होंने ऐसे गणधर श्रीजिनभगवान महावीरस्वामीने स्थापनकिएहुए चतुर्विध संघके उपद्रवोंका नाशकरें ॥२॥ ॥गाथा ॥ सकाइणोसुराजे जिणवेयावच्चकारिणोसन्ति । अवहरियविग्यसंघा हवन्तु ते संघसन्तिकरा ॥३॥ (छाया) ये अपहृतविनसंघाः जिनवैयावृत्यकारिणः शक्रादयः सुराः सन्ति ते संघशान्तिकयः भवन्तु ॥ ३ ॥ - ( पदार्थ) (जे) जो ( अवहरिय ) नष्ट होगएहैं (विग्यसंघा) 'अन्तरायोंके समूह जिन्होंके और ( जिण ) जिनतीर्थ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिग्मवर स्तोत्र ॥ करभगवानको ( क्यावच्च ) वैयावच्च ( कारिणो ) करने वाले (सक्काइणो ) इन्द्रप्रमुख ( सुरा) देवता (सन्ति) ( ते ) वे ( संघ ) चतुर्विधसंघको ( सन्तिकरा ) शान्तिसुखके करनेवाले ( हवन्तु ) होओ ॥ ३ ॥ (भावार्थ ) नष्टहोगएहैं अन्तरायोंके समूह जिन्होंके और जिनतीर्थकर भगवानकी वैयाबच्च करनेवाले जो इन्द्रप्रमुख देवता हैं वे चतुर्विधसंघको शान्तिसुखके करनेवाले होओ ॥ ३ ॥ ॥ गाथा ॥ सिरिथंभणयट्टियपाससामिपय पउमपणयपाणीणं । निलियदुरियविंदो धरणिंदो हरउ दुरि याई ॥ ४ ॥ (छाया) श्रीस्तंभनकस्थित पार्श्वस्वामिपदपद्मप्रणतप्राणिणां निर्दलितदुरितवृंद धरणेन्द्रः दुरितानि हरतु ॥ ४ ॥ ( पदार्थ ) ( सिरि) शोभायुक्त ( थंभणय ) स्तंभनकपुर में ( द्विय) वास करनेवाले ( पाससामि ) पार्श्व भगवानके Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सिग्धमवहर स्तोत्र ॥ ( पयपउम ) चरणकमलको ( पणय ) प्रणाम करने वाले ( पाणीणं ) प्राणियोंके ( निदलिय ) नाशकिएहैं (दुरियविंदो ) कष्ट और पापोंके समुदाय जिनने ऐसे ( धरणिदो ) धरणेन्द्रभगवान (दुरियाई ) दुःखोंको (हरउ ) नाशकरें ॥ ४ ॥ (भावार्थ ) श्रीयुक्त स्तंभनकपुरवासी पार्श्वभगवानके चरणकमल को प्रणामकरनेवाले प्राणियोंके नाशकियेहैं कष्ट और पापोंके समुदाय जिनने ऐसे धरणेन्द्रभगवान दुःखोंको नाशंकरें ॥ ४॥ ..... । ॥ गाथा ॥ गोमुह-पमुक्ख-जक्खा पडिहयपडिवक्वपक्ख लक्खाते । कयसगुणसंघरक्खा हवन्तु संपत्तसिवसुक्खा ॥५॥ (छाया) प्रतिहतप्रतिपक्षपक्षलक्षाः संप्राप्तशिवसौख्याः ते गोमुखप्रमुखयक्षाः कृतसगुणसंघरक्षाः भवन्तु ॥ ५ ॥ (पदार्थ) (पडिहय ) नाशकियेहैं ( पडिवक्ख ) संघको उपद्रव Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिग्वमवहर स्तोत्र || करनेवाले वैरियोंके ( पक्ख ) पक्षोंके ( लक्खा ) लक्ष जिन्होंने ( संपत्त ) सम्यक् प्रकारसे पाए हैं (सिवसुक्खा) कल्याणरूप सुख जिन्होंने (ते) वे प्रसिद्ध ( गोमुह पमुक्ख ) गोमुखयक्ष है प्रमुख जिन्होंमें ऐसे ( जंक्खा ) यक्ष ( क ) की है ( सगुण ) ज्ञानादि गुणोंसे युक्त (संघ) चतुर्विधसंक्की ( रक्खा ) रक्षा जिन्होंने ऐसे ( हवन्तु ) होओ ॥ ५ ॥ ( भावार्थ ) नाश किए हैं संघको उपद्रवकरनेवाले वैरियोंके पक्षों के लक्ष जिन्होंने, सम्यक प्रकारसे पाया है कल्याणरूप सुख जिन्होंने ऐसे गोमुखप्रमुखादियक्ष ज्ञानादिगुणोंसे युक्त चतुर्विधसंघकी रक्षाकरने वाले होओ ॥ ५ ॥ ॥ गाथा ॥ अप्पडिचकापमुहा जिणसासणदेवयायांजणपणया । सिद्धाइयासमेया हवंतु संघस्स विग्वहरा ॥ ६ ॥ (छाया) जिनप्रणताः सिद्धायिकासमेताः च अप्रतिचक्राप्रमुखाः जिनशासनदेवताः संघस्य विघ्नहराः भवन्तु ॥ ६ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिग्घमवहर स्तोत्र (पदार्थ) (जिण ) जिनभगवानको ( पणया ) प्रणामकरने वाली (सिद्धाइया ) सिद्धाइकानामकी महावीरस्वामीके शासनकी अधिष्ठात्रीदेवीके ( समेया ) साथ (य) और ( अप्पडिचक्का ) अप्रतिचक्राहै ( पमुहा) प्रमुख जिन्होंमें ऐसी (जिणसासणदेवया ) जिनशासनकी अधिष्ठात्री देवियां ( संघस्स ) चतुर्विधसंघके (विग्घहरा) अन्तरायोंको हरणकरनेवाली ( हवंतु ) होओ ॥ ६ ॥ (भावार्थ) जिनभगवानको प्रणामकरनेवाली महावीरस्वामीके शासनकी अधिष्टाइका सिद्धाइका नामकी देवीके साथ और अप्रतिचक्राहै प्रमुख जिन्होंमे ऐसी जिनशासनकी अधिष्टाइका देवियां चतुर्विधसंघके अन्तरायोंको हरप्प करनेवाली होओ ॥६॥ . . ॥गाथा ॥ सकाएसासचउरपुरहिउवद्धमाणजिणभत्तो । सिखिंभसंतिजक्खो रक्खउसंघपयतेण ॥ ७॥ . . (छाया) : .. शक्रादेशात् ( सच्चउर ) पुरेस्थितः वईमानजिनभक्तः श्रीब्रह्मशान्तियक्षः प्रयत्नेन संधं रक्षतु ॥ ७ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट सिग्बम हर स्तोत्र || ( पदार्थ ) . ( सक्काएसा ) इन्द्रकी आज्ञा से ( सच्चउरपुर ) सच्चउरपुरमें ( डिउ ) रहने वाले ( वद्धमाणजिण ) जिन भगवान महावीस्वामी के ( भत्तो ) भक्त ( सिरि) शोभायुक्त ( बंभसंति) ब्रह्मशान्तिनामक ( जबखो ) यक्ष ( पयत्तेण ) यत्नपूर्वक (संघ) चतुर्विधसंघका ( रक्खउ ) रक्षणकरो ॥ ७ ॥ ( भावार्थ ) इन्द्रकी आज्ञासे सच्चउरपुरमें रहनेवाले और जिनभगवान महावीर स्वामीके श्रीब्रह्मशान्तियक्ष चतुर्विधसंघको रक्षणकरो ॥ ७ ॥ भक्त ॥ गाथा || क्खित्तगिहगुत्तसंताण देतदेवाहिदेवयाताउ । निव्वुइपुरपहियाणं भव्वाणकुणंतु सुक्खाणि ॥ ८ ॥ ( छाया ) याः क्षेत्रगृहगोत्र संत नदेशदेशाधिदेवताः ताः निर्वृत्तिपुर पार्थकानां भव्यानां सौख्यानि कुर्वन्तु ॥ ८ ॥ ( पदार्थ ) ( क्खित्त ) क्षेत्र ( गिह) गृह ( गुत्तसंतान ) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिग्धमबहर स्तोत्र ॥ गोत्र संतान ( देस ) देश इनसंबंधी ( देव ) देवता और ( अहिदेव ) अधिष्ठात्री देशा (ता ) ये सब ( निव्वुइपुर ) मोक्षरूप नगरके ( पहियाणं.) पथिक ( भन्वाण ) भव्यजीवोंको ( सुक्खाणि ) कष्टनिवारणरूपसुख ( कुणन्तु ) करो ॥ ८॥ . (भावार्थ ) क्षेत्रदेवता गृहदेवता गोत्र संतानदेवता देशदेवता और इन्होंकी अधिष्ठात्री देवता ये सब मोक्षरूपनगरको जानेवाले पथिकजनोंको कष्टनिवारणरूपसुख करो ॥८॥ ॥ गाथा ॥ चकेसरिचक्कधरा विहिपहरिउछिन्नकंधराघणियं । सिवसरणिलग्गसंघस्स सव्वहाहरउविग्याणि ॥९॥ (छाया) विधिपथरिपूणां अत्यर्थंछिन्नकंधरा चक्रधरा चक्रेश्वरी शिवसरणिलंग्नसंघस्य विघ्नानि सर्वथा हरतु ॥ ९ ॥ (पदार्थ) (विहिपह ) जैनक्रियाके मार्गके ( रिउ ) शत्रुओंकी ( घणियं ) अत्यर्थ (छिन्न ) काटी है ( कंधरा ) गर्दन जिसने ( चक्कधरा ) चक्रको धारणकरनेवाली Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिम्यमत्रहर स्तोत्र ॥ ऐसी ( चक्केसरि ) चक्रेश्वरी देवी ( सिवसरणि ) मोक्ष मार्गमें ( लग्ग ) लगेहुए ( संघरस ) चतुर्विधसंघके (विघागि ) अन्तराय ( सव्वहा ) सबप्रकारसे (हरउ) हरणकरो ॥ ९॥ (भावार्थ) जैनक्रियाके मार्गमें अडचन पहुंचानेवाले शत्रुओंकी अच्छेप्रकारसे काटीहै गर्दन जिसने और चक्रको धारण करनेवाली ऐसी चक्रेश्वरी देवी मोक्षमार्ग में लगेहुए चतुर्विधसंघके अन्तराय सबप्रकारसे दूरकरो ॥ ९॥ __ गाथा ॥ तित्थवइवद्धमाणो जिणेसरोसंघउंसुसंघेण । जिणचंदोभयदेवोरक्खउ जिणवल्होपहुमं ॥ १० ॥ (छाया) तीर्थपतिः जिनेश्वरः सुसंवेन संगतः जिनचंद्रः अभयदेवः जिनकल्लभः वर्द्धमानः प्रभुः मां रक्षतु ॥१०॥ (पदार्थ) (तिस्थिवइ ) चतुर्विधसंघकेस्वामी ( जिगसरो ) जिनेश्वरभगवान ( सुसंघेग ) सुन्दरक्रिय शाली संघके ( संघठ) साथ (जिणचंदो ) सामान्यकेवलियोंमें Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिग्यमवहर स्तोत्र ॥ चांदकेसमान (अभयदेवो) भयरहित अत्यन्तप्रतापशाली (जिणवल्लहो ) सामान्यकेवलियोंके प्यारे ( वद्धमाणा) वर्द्धमान ( पहु) प्रभु (मं) मेरा ( रक्खउ ) रक्षणकरो ॥१०॥ ...... (भावार्थ) ..... चतुर्विधसंघकेस्वामी जिनेश्वरभगवान् सुंदरक्रियाशाली संघके साथ सामान्यकेवालयोंमें चांदकेसमान भयरहित अत्यन्तप्रतापवान सामान्यकेवलियोंके प्यारे ऐसे वईमान प्रभु मेरा रक्षणकरो ॥ १० ॥ ॥ गाथा ॥ सोजयउवद्धमाणो जिणेसरोणेसरुवहयतिमिरो। जिणचंदाभयदेवा पहुणोजिणवल्लहाजेय ॥ ११ ॥ (छाया) जिनेश्वरः ( सरुव्व ) आदित्य इव हततिमिरः सः वर्द्धमानः जयतु ( तथा ) जिनचंद्राः अभयदेव जिनवल्लभाः प्रभवः जयंतु ॥ ११ ॥ . (पदार्थ) . ( जिणेसरो ) जिनेश्वरभगवान (णेसरुब्ध ) सूर्यके समान ( हयतिमिरः ) नष्टकियाहै अज्ञानरूपअंधकार Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सिमहर स्तोत्र || जिन ने ऐसे ( सो ) वे प्रसिद्ध ( बद्धमाणो ) वर्द्धमान स्वामी ( जयउ ) विजयी होओ. पैसेही (जिणचन्दा) जिनोंमें चांदके समान ( अभयदेवा ) निर्भय और प्रतापशाली ( जिणवल्लहा ) जिनके प्यारे (पहुणो ) प्रभु तीर्थंकर भगवान् (जेय ) विजयशाली होओ । ११ । ( भावार्थ ) सूर्यके समान नष्ट किया है अज्ञानरूप अंधकार जिनने ऐसे जिनेश्वर भगवान वे प्रसिद्ध वर्द्धमानस्वामी विजयी होओ. वैसेही जिनोंमें चांदकेसमान निर्भय और प्रतापशाली जिनोंके प्यारे ऐसे शेष तीर्थकरप्रभु भी विजयशाली होओ ॥ ११ ॥ ( गाथा ) गुरुजिणवलहपाए भयदेवप हुत्तदा यगेवंदे । जिणचंदजईसरखद्धमाण तित्थबुढिकए ॥ १२ ॥ ( छाया ) अहं अभयदेवप्रभुत्वदायकान् गुरुजिनवल्लभपादान् वंदे ( तथा ) वर्द्धमानतीर्थस्यवृद्धिकृते जिनचंद्रजिनेश्वरौ वन्दे ॥ १२ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ "सिग्मवहर स्तोत्र ॥ ( पदार्थ ) ( अभय ) निर्भयता ( देव ) देवत्र और ( पहुत्त ) प्रभुत्व को (दायगे ) देनेवाले ऐसे ( गुरु ) अंज्ञानरूपअन्धकार को रोकनेवाले ( जिण ) जिनभगवानके (वल्लह ) सुन्दर ( पाए ) चरणों को (वंदे ) नमस्कार करताहूं अथवा ( अभयदेव) अभयदेवसूरिको (पहुत्व) प्रभुत्व (दायगे ) देनेवाले ऐसे (गुरु जिणवल्लहपाए ) गुरु जिनवल्लभसूरि के चरणोंको ( वंदे ) मैं नमस्कार करताहूं. वैसेही ( वद्धमाणतित्थस्स ) वर्द्धमानस्वामीके तीर्थकी ( बुढिकए ) वृद्धिकेहेतु ( जिणचन्द ) जिन चन्द्रसूरि और ( जईसर ) जिनेश्वरसूरि को (वंदे ) नमस्कार करताहूं ॥ १२ ॥ ( भावार्थ ) निर्भयता देवत्व और प्रभुत्वको देनेवाले ऐसे अज्ञानरूपअन्धकारको रोकनेवाले जिनभगवान के सुन्दरचरणोंको मैं नमस्कार करता हूं. अथवा अभय देवसूरि को दिया है प्रभुत्र जिन्होंने ऐसे गुरु जिनवल्लभ सूरिके चरणोंको मैं नमस्कार करताहूं और वर्द्धमान स्वामीने स्थापन किये हुए चतुर्विधसंघकी वृद्धिके हेतु जिनचन्द्र और जिनेश्वर सूरिको नमस्कारकरता हूं | १२| Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘सिग्धमवहर स्तोत्र ॥ (गाथा ) . जिणदत्ताणंसम्म मन्नति कुणंति जेयकारिति । मणसावयसावउसा जयंतु साहम्मियातेवि ॥१३॥ (छाया) ये जिनदत्ताज्ञा मनसा वचसा वपुषा सम्यक मन्यते ये च तां कुर्वन्ति ये च तां कारयन्ति तेऽपि साधर्मिकाः जयन्तु ।। १३ ॥ (पदार्थ) (जे) जो (जिण ) जिनभगवानने (दत्त) दी हुई ( आणं ) आज्ञाको (मणसा) मनसे (वयसा) वाणीसे ( वउसा ) शरीरसे ( सम्म ) योग्य ( मन्नति ) मानते हैं ( कुगंति ) करते हैं ( कारिति ) करवाते है ( तेवि ) वेभी ( साहाम्मया ) साधर्मिक ( जयन्तु ) विजयी होवो ॥ १४ ॥ (भावार्थ) जिन भगवानने दी हुई आज्ञाको जो मन वचन कायसे योग्य मानते हैं स्वयं आचरण करते हैं और अन्योंसे भी आचरण करवाते हैं वे साधर्मिक भी विजयी होओ ॥ १३ ॥ ३ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिग्वमवहर स्तोत्र ॥ ॥गाथा ॥ जिणदत्तगुणेणाणाइणो, सयाजेधरत धारिति दंसियसियवायपए नमामिसाहम्मियातेवि ॥१॥ (छाया) ये सदा जिनदत्तगुणज्ञानादीन् धरति धारयन्ति तान् दर्शितस्याद्वादपदान् साधर्मिकान् अपि ( अहं ) नमामि ॥ १४ ॥ (पदार्थ) (जे) जो ( सया ) निरंतर (जिण ) जिन भगवानने ( दत्त ) दिये हुए (गुणेणाणाइणो) गुण ज्ञान दर्शन चारित्रादिकोंको (धरंति ) धारण करते हैं और ( धारिति ) धारण करवाते हैं ( दशिय ) दिखाये हैं (सियवायपए ) " स्यादस्ति स्यान्नास्ति ” इत्यादि पद जिन्होंने ऐसे ( ते) उन ( साहम्मिया) सार्मिकोंको ( अवि ) भी ( नमामि ) मैं नमस्कार करताहूं ॥ १४ ॥ ' (भावार्थ) जिन भगवानने दीये हुए गुण और ज्ञान दर्शन चारित्रादिकोंको · जो निरंतर धारण करतेहैं और Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिग्धमवहर स्तोत्र ॥ . अन्योंसे धारण करवाते हैं और " स्यादस्तिस्यान्नास्ति" इत्यादि पदोंका रहस्य दिखलाते हैं ऐसे साधर्मिकोंको भी मैं नमस्कार करता हूं ॥ १४ ॥ इति श्रीइन्दुरजैनश्वेताम्बरपाठशालामुख्याध्यापकचोबेकुलोद्भव श्रीगोपीनाथसूनु पण्डित श्रीकृष्णशर्मकृतसुबोधिनीटीकोपेतं सिग्घमवहरस्तोत्रंसम्पूर्णम् ॥ . Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीवीतरागायनमः॥ अथ श्रीभद्रबाहुकृतउवसग्गहर स्तवनं प्रारभ्यते. ॥ गाथा ॥ उवसग्गहरंपासं पासर्वदामि कम्मघणमुकं । विसहरविसनिन्नासं मंगलकल्लाणआवासं ॥१॥ (छाया) . उपसर्गहरंपार्श्व (प्राशं ) कर्मघनमुक्तं विषधरविषनिाशं मंगलकल्याणावासं एतादृशं पार्श्व वन्दामि ॥१॥ __(पदार्थ) ( उवसग्ग ) दुःखसंकटादिक उपसर्गका अथवा ( उवसग्ग ) रागद्वेषमोहकृत जन्मजरामरणरूप उपसर्ग का ( हरं ) नाशकरनेवाले ( पास ) पार्श्वनामक यक्ष है सेवक जिनका ऐसे अथवा ( पास ) ( प्राशं प्रगता Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसग्गहरस्तोत्रम् ॥ आशा यस्येतिव्युत्पत्त्या ) प्रनष्टहोगईहै सांसारिक सुखाभिलाषा जिनकी ऐसे (कम्मघण) कर्मोंके समुदाय से ( मुक्कं ) मुक्त ऐसे अथवा ( कम्मघणमुक्कं ) शुद्धचेतनरूप चांदको आच्छादितकरनेवाले कर्मरूप मेघोंसे मुक्त ऐसे (विसहर ) विषको धारणकरनेवाले सादिकोंके ( विस ) दृष्टिविष आशीविष लाला विषोंका (निन्नासं ) नाशकरनेवाले अथवा (विसहर) मिथ्यात्वरूप विषको धारणकरने वाले जो मिथ्यात्वी जीव उन्होंके ( विस ) मिथ्यात्वरूप विषका (निन्नासं) अत्यन्त नाशकरनेवाले (मंगल) उपद्रवानिवृत्तिरूप मंगल और (कल्लाण) सुखवृद्धिरूप कल्याणके ( आवास ) स्थानभूत ऐसे ( पासं ) पार्श्वप्रभुको (वन्दामि ) मैं नमस्कार करताहूं ॥ १ ॥ (भावार्थ ) दुःख ८५ उपसर्गोंका नाशकरनवाल पा नामक यक्ष है सेक्क जिनका अथवा रागद्वेषमोहकृत जन्मजरा मरणरूप उपसर्ग का नाशकरनेवाले प्रनष्ट होगईहै सांसारिक सुखाभिलाषा जिनकी शुद्धचेतनरूपचांदको आच्छादितकरनेवाले कर्मरूपमेघोंसे मुक्त विषधारी तिर्यक् Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसम्गहरस्तोत्रम् ॥ सर्पादिकोंके विषका नाशकरनेवाले अथवा मिथ्यात्वरूप विषको धारणकरनेवाले निथ्यात्थियोंके मिथ्यात्वरूप विषको उन्मूलितकरनेवाले उपद्रवनिवृत्तिरूप मंगल और सुखवृद्धिरूपकल्याणके निवासभूत ऐसे पार्थप्रभुको मैं वन्दनकरताहूं ॥१॥ ... (गाथा) . विसहरफुलिंगमंतं कंठेधारेइजोसयामणुउँ । तस्स ग्गहरोगमारी दुजराजति उवसामं ॥ २ ॥ . (छाया) यः मनुष्यः सदा विषधरस्फुलिंगमंत्रं कंठे धारयति तस्य ग्रहोगमहामारीदुष्टज्वराः उपशमं यान्ति ॥ २ ॥ (पदार्थ) (जो ) जो ( मणुउ ) मनुष्य (विसहरफुलिंगमंत) विषधरस्फुलिंग नामक अष्टादशाक्षरात्मकमंत्रको (सया) निरंतर ( कंठे ) कंठमें (धारेइ ) धारणकरताहै (तरस) उसके (गह) सूर्यादिकग्रहकृतदुःख (रोग) कफकुष्टजलोदरादिरोग ( मारी ) कॉलरा प्लेगादि उपद्रव (दुठुजरा) ऐकाहिकादिदुष्टज्वर ( उवसामं ) नाशको ( जंति ) प्राप्तहोतेहैं ॥२॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस गहरस्तोत्रम् ॥ ( भावार्थ ) जो मनृष्य विषधरस्फुलिंगनामक अष्टादशाक्षर मंत्रको निरंतर कंठमें धारणकरता है, उसके सूर्यादिग्रहजन्य दुःख कफकुष्टजलोदरादिरोग कॉलराप्लेगादि उपद्रव एकांतरापाली आदि दुष्टज्वर नाशको प्राप्तहोते हैं ॥ २ ॥ ( गाथा ) चिउदूरेमंतो, तुज्झपणामोवि बहुफलोहोइ । नरतिरिए सुविजीवा पावंतिनदुःखदोगचं ॥ ३ ॥ ( छाया ) विषधरस्फुलिंगमंत्रः दूरे तिष्टतु तव प्रणामोऽपि बहुफलः भवति नरतिर्यक्ष्वपि जीवाः दुःखदौर्गत्यं न प्राप्नुवन्ति ॥ ३ ॥ ( पदार्थ ) ( मंतः ) विषधरस्फुलिंगमंत्र तो ( दूरे) दूरही ( चिठ्ठउ ) रहो परंतु ( तुज्झ ) आपको ( पणा मोबि ) प्रणाम भी (बहुफलो ) आरोग्यधनधान्यादिसमृद्धिरूप फलको देनेवाला ( होइ ) होता है ( नर ) मनुष्य जातिमें और ( तिरिएसु ) तिर्यग्जाति में (वि) भी उत्पन्न हुवे हुए ( जीवा ) जीव ( दुःख ) संकट Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसग्गहरस्तोत्रम् ॥ और ( दोगचं ) दुर्गतिको ( न ) नहीं ( पार्वति ) प्राप्त होते हैं ॥ ३ ॥ (भावार्थ ) विषधरस्फुलिंग मंत्रतो दूरही रहो परन्तु हे नाथ ! आपको किया हुआ प्रणामभी आरोग्य धन-धान्यादि समृद्धिरूप फलको देनेवाला होता है आपको वंदन करने वाले जीव पूर्वजन्मकृत प्रबलकर्मानुसार मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हों वा तिर्यग्योनि में उत्पन्न हों तो उन योनिओंमें उन्हें भी दुःख और दुर्दशा कभी प्राप्त नहीं होती ॥ ३ ॥ ( गाथा ) ॥ तुहसम्मत्ते लद्धे चिंतामणिकप्पपायवन्भहिए | || पावन्तिअविग्वेणं जीवाअयरामरंठाणं ॥ ४॥ (छाया) चिन्तामणिकल्पपादपाभ्यधिके तव सम्यक्त्वे लब्धे सतिं जीवाः अजरामरंस्थानं अविघ्नेन प्राप्नुवन्ति ॥ ४ ॥ (पदार्थ) ( चिंतामणि ) चिन्तामणिरत्नसे और ( कप्पपायवम्भहिए ) कल्पवृक्षसे अधिक ( तुह ) आपके ( सम्मत्ते ) सम्यक्त्वदर्शनको ( लद्धे ) प्राप्तकिये सते Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसग्गहरस्तोत्रम् ॥ ( जीवा ) भव्यजीव ( अयरामरं ) जरा और मृत्युसे रहित ( ठाणं ) स्थानको ( अविग्घेणं ) निर्विघ्नतासे ( पावन्ति ) प्राप्त करलेतेहैं ॥ ४ ॥ (भावार्थ) चिन्तामणिरत्नसे और कल्पवृक्षसे अधिक आपके सम्यक्त्वदर्शनको प्राप्तकरनेसे भव्यजीव जरा और मरणसेरहित स्थानको निर्विघ्नतासे प्राप्त करलेतेहैं ॥४॥ (गाथा) इअसंथऊमहायस भत्तिम्भरनिभ्भरेणहिअएण ।। तादेवदिज्झबोहिं भवेभवेपासजिणचंद ॥५॥ (छाया) हे मह मशः भक्तिभरनिर्भरणहृदयेन इति संस्तुवे तस्मात् हे देव हे पंजिनचन्द्र भवे भवे बोधिं देहि ॥५॥ (पदार्थ) (महायस) हे त्रैलोक्यव्यापककीर्तिमान् (भत्ति) आत्यन्तिक प्रेमके ( प्भर ) समुदायसे (निप्भरेण ) प्रपूरित ( हिअएण ) हृदयसे ( इअ ) इसप्रकार आपकी ( संथउ ) स्तुतिकरताहुं ( ता ) इसहेतु ( देव ) हे देव । पाणिनंद ) हे जिनोंमें चांदके समान Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्सग्गहरस्तोत्रम् ॥ पार्श्वनाथस्वामि ( भवे भवे ) जन्म जन्ममें (बोहिं) जिनधर्मकी प्राप्ति ( दिज्झ ) देओ ॥ ५॥ (भावार्थ) हे त्रैलोक्यव्यापककीर्तमान् आपकी भक्तिके समूहसे प्रपूरित हृदयसे पूर्वोक्त प्रकार आपकी स्तुति करताहूं. इस हेतु हे सम्पूर्ण जिनोंमें चांदके समान पार्श्वप्रभु ! आप जन्मजन्ममें जिनधर्मप्राप्ति मुझे देओ ॥ ५॥ इति श्रीइन्दुरजैनश्वेताम्बरपाठशालामुख्याध्यापकचोबेकुलोद्भवश्रीगोपीनाथसून पण्डितश्रीकृष्णशर्मकृतसुबोधिनीटीकासहितं " उवसग्गहरस्तवन ममातम् । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- _