SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पलासिक स्तोत्रम् ॥ अजितनाथ और शान्तिनाथस्वामी ( जिणिन्दे ) जिने - न्द्रभगवानको ( सययं ) निरंतर (अभिवन्दे ) नमस्कार करताहुं (सयल ) सकल ( जय ) जगतके (हिआणं) हितकरनेवाले ( जाणं ) जिन अजितनाथ और शान्तिनाथस्वामीके ( नाममित्तेण ) नाममात्रसें (दुङ) दुःखजनक (अनि ) प्रियवियोगादिअनिष्टरूप ( दोघह) हाथियोंके ( घट्टम् ) समुदाय ( लहु ) शीघ्रही (विहss ) दूर हो जाते हैं, ( भावार्थ ) मैं जो नम्रदेवताओं के मुकुटोंसे उत्तेजित हैं. चरणकमल जिन्होंके ऐसे प्रसिद्ध जिनेन्द्र भगवान अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीको निरंतर नमस्कार करता हूं सकल जगतके हित करनेवाले जिन शान्तिनाथ और श्रजितनाथस्वामी के नाममात्र से दुःखजनक प्रियवियोगादि अनिष्टरूप हाथियोंके समुदाय शीघ्रही दूर होजाते हैं. || गाथा || पसरइ वरकित्ती वड्डए देहदित्ती ॥ विलसइ भुविमित्ती जायए सुप्पवित्ती ॥ फुरइपरमतित्ती होइ संसारछित्ती ॥ जिण अपयभत्ती ही अचिंतो रुसती ॥ ५ ॥
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy