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गुरूपारतन्त्र्य स्तोत्रम् ॥
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पर वादियोंका ( दित्ती ) तेज जिनने ( मंती ) मंत्राचार्य ऐसे ( जिणचन्दजईसरो ) जिणचन्द्र यतीश्वर उत्कर्ष शाली होओ ॥ १२ ॥ ( भावार्थ )
सुकवित्वद्वारा प्राप्तकी है कीर्ति जिनने प्रकट की है मनोवाक्काय संवरणादिरूप गुप्ति जिनने कोधादिकषाय रहित और मंगलकारक है मूर्ति जिनकी नष्ट किया है परवादियोंका तेज जिनने और मंत्रोंके आचार्य ऐसे जिनचन्द्रयतीश्वर विजय शाली होओ ॥ १२ ॥
अथ नवाङ्गवृत्तिकारकं श्री अभयदेवसूरिं गाथा - द्वयेन वर्णयति
|| गाथा ||
पयडियन व मुत्तत्थरयण कोसो पणासिय पउंसो । भव भीय भवियजणमणकयसंतोसो
विगय
दोसो ॥ १३ ॥
जुगपवरागमसार परूवणा करणबंधुरोधणियं । सिरिअभयदेवसूरी मुणिपवरो परमपसमधरो ॥ १४ ॥ (छाया) प्रकटितनवाङ्गसूत्रार्थरत्नकोशः प्रणाशित प्रद्वेषः भवभीतभविकजनमनः कृतसंतोषः विगतदोषः ॥ १३ ॥