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गुरुप.रतन्त्र्यस्तोत्रम् ॥ युगप्रवरागमसारप्ररूपणाकरणबंधुरः अत्यर्थं मुनिप्रवरः परमप्रशमधरः श्रीअभयदेवसूरिः विजयते ॥ १४ ॥
( पदार्थ ) ( पयडिय ) प्रकट किया है ( नवंग ) नांगके ( सुत्तत्थ ) सूत्रार्थरूप ( रणयकोसो ) रत्नोंका भाण्डार जिनने ( पणासिय ) उन्मूलित किया है ( पउसो ) प्रदेष जिनने ( भवभीय ) संसारसे डरे हुए ( भक्यिजणमण ) भविक जनोंके मनको ( कयसंतोसो) किया है संतोष जिनने (विगयदोसो) गए हैं समस्त दोष जिनके ( जुगपवरागम) युगके विषय प्रकृष्ट शास्त्रको धारण करनेवाले ऐसे कालिक सूरियोंके ( सार ) सिद्धान्तों का अनुसरण करनेवाली (प्परूवणा ) चौथी पर्युषणादिकोंके (करण) आचरण से ( बंधुरः ) मनोज्ञ ( धणियं ) अत्यर्थ ( मुणिपवरो) मुनियों में श्रेष्ट ( परम ) उत्कृष्ट ( पसम ) शान्तिको (धरो) धारण करनेवाले (सिरिअभयदेवसूरी ) श्रीअभयदेवसूरि विजयशाली होओ ॥ १३-१४॥
(भावार्थ) प्रकटकियाहै नवांगके सूत्रार्थरूप रत्नोंका भाण्डार