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उल्लासिक स्तोत्रम् ॥
॥ माथा ॥ बहुविहनयभंग वच्छुणिचं अंणिञ्चम् ॥ सदसदणभिलप्पालप्पमेगं अणेगम् ॥ इय कुनयविरुद्धं सुप्पसिद्धं च जेसिं॥ वयणमवणिज ते जिणे संभरामि ॥ ८॥
(छाया) तौ जिनौ संस्मरामि ययोः बहुविधनयभंग कुनयविरुद्ध सुप्रसिद्ध वचनं अवचनीयमस्ति ( यत्र ) वस्तु नित्यमनित्यं सदसत् अभिलप्यालप्यं एकमनेकञ्च ( प्रतिपाद्यते )
( पदार्थ) (ते) उन प्रसिद्ध ( जिणे) जिनभगवानका ( संभरामि ) स्मरण करताहं ( जेसिं ) जिन्होंका ( बहु ) बहुत ( विह ) प्रकारके ( नयभंगं) नयभेद हैं जिसमें ( कुनय ) कुत्सितनयोंसे ( विरुद्ध ) भिन्न (सुप्पसिद्ध ) · अत्यन्तप्रसिद्ध (क्यणं) वचन (अवयणिज) अवचनीय है (उसका पूरी तन्हासे वर्णन नहीं किया जासकता ) ( यत्र ) जिसमें (वच्छु ) वस्तु (णिचं ) नित्य (च) और ( अणिचं)