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गुरुपारतन्न्यस्तोत्रम् ।।
(सिंहपक्षे पदार्थः) ( कय ) कियाहै ( साक्य ) जानवरोंको ( सत्तासा) भय जिसने ( सारंग ) मृगोंके ( भग्ग ) भग्न कियेहैं ( संदेहो ) शरीर जिसने ( समय ) मदोन्मत्त (गय) हाथियोंके ( दप्प ) दर्पका (दलणो) नाशकियाहै जिसने ( आसाइय) चखाहै ( पवर ) नये ( कव्व ) मांसका ( रसो) रसजिसने ( सीय) दिखायाहै ( गुरु ) भारी ( वदन ) मुखमें ( रदन) दांतोंका ( संदोहो ) समूह जिसने ( नीसेस ) सम्पूर्ण ( सत्त) पशुओंमें ( गुरुओ) बडा ऐसे ( हरिव ) सिंहके समान जिनवल्लभसूरि विजयशाली हैं।
.( भावार्थ ) परिपूर्ण किये हैं श्रावकोंके शुभ मनोरथ जिनने प्रधान आचारादि अंगोंसे दूर किये हैं संदेह जिनने भ्रष्ट हुआहै सिद्धान्त जिन्होंसे ऐसे चोरासी आचार्यों के अभिमानका नाशकरनेवाले आस्वादित कियाहै सर्वोत्तम काव्यरस जिनने प्रकट कीहै नवांगवृतिलक्षण श्रीअभयदेवसूरिके वचनों की रचना जिनने सम्पूर्ण जीवोंके अज्ञानांधकारको दूरकरनेवाले ऐसे सूरि. जिनवल्लभ