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________________ १७ नमिउणस्तोत्रम् ॥ इत्यादि प्राणियोंके मारो २ आदि शब्दोंसे भयंकर हैं, और जिन्होंमें पथिकजन समूह निडर भीलोंसे लूटे गए हैं तथा डरसे व्याकुल और दुःखित होरहेहैं ऐसे गहन वनों में हे नाथ आपको प्रणामकरतेही मनुष्योंका उत्कृष्ट धन बच जाताहै और सम्पूर्ण विघ्न नष्ट होकर जलदी ही वे इच्छित स्थानको प्राप्त होजाते हैं ॥ १०-११ ॥ अथ गाथाद्वयेन प्रभोः सिंहभयनिरासकारकत्वरूपं षष्टमाहात्यं वर्ण्यते । ॥गाथा ॥ पजलिआनलनयणं दूरवियारियमुहंमहाकायं । नहकुलिसघायविअलिअ गइन्दकुंभत्थलाभो॥१२॥ ___ पणयससंभमपत्थिव नहमणिमाणिकपडिअपडिमस्स । तुहवयणपहरणधरा सीहं कुद्धपि न गणंति ॥ १३ ॥ (छाया) हे प्रभो प्रणतससंभ्रमपार्थिवनखमणिमाणिक्यपतित प्रतिमस्य तव क्चनप्रहरणधराः मानवाः प्रज्वलितानलनयनं दूरविदारितमुखं महाकाय नखकुलिशधातविदलितगजेन्द्रकुंभस्थलाभोगं एतादृशं सिंहं क्रुद्धमपि न गणयन्ति ॥ १२-१३ ॥ अ. ३
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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