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________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ १५ होता है तबतक तीनों लोकमें मोहरूप अन्धकार फेलता है और धर्माधर्मादिज्ञानशून्य जगत् सम्यक्त्वके अभावसे आच्छादित होकर विपरीत प्रवृत्त होताहै. ॥ गाथा ॥ अरिकरिहरितिण्हुण्हम्बुचोराहिवाही। समरडमरमारीरुदखुद्दोवसग्गा ॥ पलयमजिअसंतीकित्तणे झत्ति जंती । निबिडतरतमोहा भस्करालंखियब्व ॥ १०॥ (छाया) अरिकरिहरितृष्णोष्णाम्बुचौराधिव्याधिसमरडमरमारी रौद्रक्षुद्रोपसर्गाः अजितशान्तिकीर्तने सति निबिड तरतमौघाः भास्करा लुखिता इव (स्प्टष्टाइव ) झगितिप्रलयं गच्छति. (पदार्थ) ( अरि ) शत्रु ( करि ) हाथी (हरि) सिंह (तिण्ह ) तृषा (उण्ह) आतप (अम्बु) जल, (चोर) तस्कर ( आहि ) मनोव्यथा (वाहि ) शारीरिकपीडा ( समर ) संग्राम ( डमर ) राजकृत उपद्रव ( मारी )
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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