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उल्लासिक स्तोत्रम् ॥
जगत् मिथ्यात्वच्छन्नं सत् भ्रमति यावत् स्फुटफलदनंत ज्ञानांशुपूरः अजितशान्तिध्यानसूरः प्रकटं न स्फुरति.
(पदार्थ) ( ताव ) तबतक (तिअलोए ) तीनों लोकमें ( मोहन्धयारं.) मोहरूपअन्धकार ( पसरइ ) फैलता है ( ताव ) तबतक ( असणं ) धर्म अधर्मादि ज्ञान शून्य ( जयं) जगत् (मित्थत्तछण्णं ) सभ्यक्त्व के आभावसे आच्छादित होकर ( भमइ ) विपरीत प्रवृत्त होता है (जाव ) जबतक ( फुडफलंताणतणाणंसुपूरो) स्पष्ट उल्लासको प्राप्त होनेवाला है अनंतज्ञान यही मानो किरणोंका समुदाय जिसका ऐसा ( अजिय. संतीझाणसूरो ) अजितनाथ और शान्तिनाथस्वामीका शुक्लध्यानरूपसूर्य ( पयर्ड ) कर्मरूपरजके पटलसे न ढंकाहुवा ( न ) नहीं ( फुरइ ) उदय होता.
(भावार्थ) जबतक उल्लासको प्राप्त होनेवाला है अनंत ज्ञान यह ही मानों किरणोंका समुदाय जिसका ऐसा अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीका शुक्लध्यानरूपसूर्य कर्मरूपरजके पटलसे न ठेकाहुवा होकर नही उदय