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________________ ५४ अजिसशान्ति स्तवनम् ॥ (छाया) तपसा धुतसर्वपापकाः सर्वलोकहितमलप्रापकाः ते अजितशान्तिपादाः संस्तुताः ( सन्तः ) मे शिवसुखानां दायकाः भवन्तु ( संस्तुताः शंसुखहेतुस्तुतं येषां )। (पदार्थ) ( तवेण ) तपश्चर्यासे (धुय) नष्ट होगए हैं (सव्व) सम्पूर्ण ( पावया ) पातक जिन्होंके ( सर्व ) सम्पूर्ण (लोअ) लोकके ( हिअ ) मोक्षाव्यहितके ( मूल ) ज्ञानदर्शन चरित्ररूप मूलको ( पावया ) प्राप्तकराने वाले ( ते ) पूर्वोक्त ( अजिअ ) अजितनाथ स्वामी के और ( संति ) शान्तिनाथ स्वामी के (पायया) चरण ( संस्तुताः ) सम्यक् वर्णन कियेसते ( संस्तुता) सुख हेतुक स्तवनहै जिन्होंका (मे) मुझे (सिव) मोक्षरूप (सुहाण) सुखके (दायया ) देनेवाले (हंतु ) होओ। __(भावार्थ) तपोबलसे प्रनष्टहोगए हैं सम्पूर्ण पातक जिन्होंके सम्पूर्ण लोकके मोक्षास्यहितके ज्ञानदर्शन चारित्ररूप मूलको प्राप्तकरानेवाले. सुखहेतुक स्तवनहै जिन्होंका ऐसे. अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीके चरण मुझे मोक्षरूप सुख देनेवाले होओ।
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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