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संजय स्तोत्र ॥
(छाया) (असुरकुमाराद्या दशभेदाः) भवनपतयः ( पिशाचादिषोडशप्रकाराः) वानव्यंतराः ज्योतिष्कवैमानिकाश्चये देवाःते धरणेंद्रशक्रसहिताः (सन्तः) तीर्थस्य दुरितानि दलयन्तु ।
(पदार्थ ) (भवणवइ) असुरकुमारादि दस भवनपति (वाणमंतर) पिशाचादि सोलह वानव्यंतर ( जोइस ) ज्योतिष्क (य) और ( वेमाणिया ) भानिक (जे) जो ( देवा ) देवता (धरगिंदसकसहिया ) धरणेंद्रादि शकसहित होकर ( तित्थस्स ) संघके (दुरियाई ) पापों को (दलंतु ) नाशकरो।
(भावार्थ) अपुरकुमारादि दश भवनपति पिशाचादि सोलहवान व्यंतर जोतिष्क और वैमानिक देवता ये सब धरणेन्द्रादि शकोंकेसाथ संघके पापोंको नाशकरो।
(गाथा) चव्कंजस्सजलंतं गच्छइपुरउँ पणासियतमोहं तंतित्थस्स भगवउँ नमो नमोवद्धमाणस्स ॥२१॥