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नमिऊणस्तोत्रम् ॥
आक्रंदः तेन भीषणं भयप्रदं वनं अरण्यं तस्मिन् एतादृशेव ने ये मनुजाः नराः निर्वापितः आपत्तिजनित संतापशमनेन सुखीकृतः सकलं समत्रं त्रिभुवनं ( त्रयाणां भुवनानां समहार : त्रिभुवनं ) त्रैलोक्यं तस्य आभोगः स्थानं ( निर्वापितः सकलत्रिभुवनाभोगः ) येन तत् तादृशं जगद्गुरोः जगदज्ञानतिमिरनिरोधकस्य पार्श्वप्रभोः क्रमयुगलं क्रमयोः चरणयोः युगलं युग्मं संस्मरतिः स्मृतिपथंनयन्ति तेषां पूर्वोक्तजनानां ज्वलनः दवानलः भयं भीतिं न करोति ॥ ६-७ ॥ ( पदार्थ )
( खर) प्रचण्ड (पवण ) वायुसे ( उडुय) फैले हुए ( वणदव ) वनके अग्निकी ( जाला ) ज्वालाओंकी ( आवलि) पंक्तिसे (मिलिय ) स्पर्शकिये हुए (सयल) सम्पूर्ण (दुम ) वृक्ष हैं जिसमें ऐसे ( गहणे ) बनमें और (उझत) जलती हुई ( मुद्ध ) सरल (मयत्र ) हरणियोंके ( भीसण ) भयंकर ( ख ) चिल्हाट से (भीस मि ) भयप्रद ऐसे ( वणे ) अरण्य में अथवा ( उज्झत ) दवाग्निसे ( मुद्ध) मुच्छित (मय) अरण्य निवासी पशुओं के ( बहु ) अत्यन्त ( भीसण ) भयंकर